
“सुना तुमने, उन्होंने महात्मा को ठिकाने लगा दिया,”
एक महिला सहकर्मी ने सारा लॉरेंस कॉलेज के कॉफी हाउस में खाने की मेज पर बैठते हुए कहा। बातचीत की शुरुआत करते हुए उन्होंने महात्मा शब्द को इस लहजे में कहा मानो गांधी एक ढोंगी साधु हों, एक सपेरा।
“महात्मा?”
एक महिला अध्यापिका ने दोहराया, अपने कांटे (चम्मच-कांटा) को हवा में लहराते हुए, आंखों में एक अजीब सी चमक, मुस्कान समेटे हुए। ऐसा लग रहा था कि वो अपनी पसंदीदा खबरों, कहानियों के पात्रों, चीज़ों, जैसे कोई राजा, उसका मंत्री या उसकी पगड़ी की स्मृतियों को ताजा कर रही हों।
एक क्षण की चुप्पी के बाद बातचीत को एक गंभीर पटल पर लाकर एक पुरुष अध्यापक ने विराम दिया:
“नेहरू बेहतर हैं, एक यथार्थवादी”। इसके आगे किसी ने और कुछ नहीं कहा।
खाने की मेज की दूसरी और मैं और मेरे कुछ नए, युवा सहकर्मी सुनकर सन्न रह गए: अगर गांधी का जीवन भी, मृत्यु को छोड़ दीजिए, असफल रहा इस कठोर वैचारिक उदासीनता में बदलाव लाने में, तो हमारे लिए कहने को क्या बचा था।
शाम को लौट कर जब मैं घर आई तो मेरा नन्हा बेटा और मेरे घर की अश्वेत सहायिका भी गांधी के बारे में बातें कर रहे थे। सहायिका मेज को ठीक कर रही थी और बेटा अपने एल्बम में डाक टिकट चिपका रहा था। बेटा गुस्से में था और सहायिका दुखी।
“उन्हें गांधी को शांतिपूर्वक अपना जीवन जीने और अपना कार्य संपन्न करने देना चाहिए था,” सहायिका ने दुख व्यक्त करते हुए कहा, मानो जीवन जीने के इस हक के लिए भी उसे गुहार लगानी पर रही हो।
“गंदे हैं वे…” रुएल (मेरा लड़का) ने कहा।
एक छोटा बच्चा, एक बुजुर्ग सहायिका, मैं और मेरे कुछ मित्र, शायद इन्हीं लोगों का जिक्र कर रहे थे अखबार और रेडियो वाले जब उन्होंने घोषणा की:
“सुनकर पूरा विश्व सदमे में है वगैरह वगैरह।”
सच तो यह है कि दुनिया सदमे में नहीं थी। और अगर हम कुछ लोग गांधी की हत्या का विरोध कर भी रहे थे तो एक तरह से हम अपनी बेबसी पर रोष प्रकट कर रहे थे। हम न तो उन्हें जीवित कर सकते थे, ना हत्यारों को सजा दे सकते थे। और ना ही दूसरों को (अपने सहकर्मी शिक्षकों, तथाकथित यथार्थवादियों को भी नहीं) प्रभावित कर सकते थे, जिससे कि उन्हें थोड़ा भी दुख हो गांधी के इस तरह जाने से।
सच यह भी है कि गांधी की हत्या का विरोध केवल भगवान से ही किया जा सकता है। उसी भगवान से हम हिसाब मांगते हैं, जो एक आदर्श और अलिखित कानून की प्रतिमूर्ति के रूप में मानव जीवन को संचालित करता है। उसी की सत्ता पर ये एक आघात है।
लगता है हम सब कुछ ज्यादा ही सकारात्मक और व्यवहारिक होते जा रहे हैं। पर इस तरह के अपराध को केवल सकारात्मक एवं व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखना इसकी भयावहता से मुख मोड़ना है। कॉलेज के काफी हाउस में हमारे सहकर्मियों का दृष्टिकोण भी कुछ इसी तरह का था। उनका कहना था कि आखिर गांधी की उम्र अब पूरी हो गई थी। वह 78 वर्ष के थे। कहने का मतलब है अब उनके उनकी मृत्यु का समय भी निकट ही था।
गांधी की हत्या के पीछे के राजनीतिक कारणों या फिर भारतीय राजनीति पर होने वाले उनके प्रभाव या फिर अहिंसा के भविष्य जैसी बातों से जोड़ना उसकी भयावहता को सीमित करने जैसा होगा। यह उतना ही भयावह है जितना किसी व्यक्ति का गांधी जैसे एक अहिंसक, असामान्य व्यक्ति की आंखों में आंखें डालकर ट्रिगर दबाना।
शायद हममें से कई लोग अभी भी मानते हैं कि अच्छाई एक तरह का हथियार है, एक गुण, जो अपराधीकरण को विराम देता है। पर अब ऐसा नहीं है। गांधी की हत्या ने यह साबित कर दिया है कि स्थिति बदल गई है। गांधी की हत्या ने यह भी सिद्ध कर दिया कि उनका प्रेम और मैत्री भाव ही उनकी हत्या का कारण बना। गांधी प्रार्थना सभा में सम्मिलित होने जा रहे थे। क्या गांधी की हत्या, उनके राजनीतिक विचारों के कारण हुई या फिर सरलता, शालीनता, प्रेम, सहिष्णुता जैसे उनके गुणों ने उनके हत्यारे को उद्वेलित कर किया? —————————————————
अमरीकी उपन्यासकार मेरी मकार्थी ने इस लेख को 1949 में लिखा था। तब वह न्यूयॉर्क के सारा लौरेंस कालेज में अध्यापिका के रूप में कार्यरत थीं।
अनुवादक: अरुण जी, 02.10.21