
बेंगलुरू महानगर में
नकाब से झांकती आंखों से
दिखता है आज भी
वही अपनापन वही मुस्कुराहट
चौड़ी सड़कें अब भी
आवारा बादलों की तरह
घूमती रहती निरंतर
अपने गंतव्य की ओर
अपार्टमेंट की ऊंचाइयों से
सुनाई पड़ती है इसकी
सागर-सी गर्जन और गूंज जो
देर रात तक चलती रहती और
बढ़ती ही रहती तेज और तेज
थकने पर बस झट से
लेती है ये एक झपकी
फिर मुंह अंधेरे ही
कोयल की एक कूक के साथ
निकल पड़ती है
नकाब चढ़ाकर
ब्रह्मांड की उस यात्रा पर
अनवरत निर्बाध अंतहीन
©अरुण जी, 07.12.21