टुकड़ों में बटी जिन्दगी: समीक्षा


श्रीकांत को मूल रूप से मैं एक ख्यातिलब्ध पत्रकार के रूप में जानता था। उनकी किताबें, ‘मैं बिहार हूं ‘ या ‘चिट्ठियों की राजनीति ‘ को मैंने हाल ही में पढ़ा था। पर मुझे ये नहीं मालूम था कि वे आधुनिक कहानी के एक दिग्गज शिल्पकार भी हैं। उनके व्यक्तित्व के इस आयाम से मेरा परिचय हुआ बस कुछ दिनों पहले, जब मैंने उनकी कहानी संग्रह, टुकड़ों में बटी जिंदगी, को पढ़ा। व्यक्ति, परिवार एवं समाज के आन्तरिक संबंधों और सन्दर्भों को छूती हुई इस संग्रह की हरेक कहानी बेहद रोचक एवं विचारोत्तेजक है। पात्रों को रचने और कहानियों को गढ़ने में श्रीकांत काफी सुघड़ हैं, संवेदनशील भी।

सत्तर और अस्सी के दशक में लिखी गई ये कहानियां उस वक्त के देश और समाज का एक आईना है, आज भी उतना ही प्रासंगिक। समाज के आर्थिक-राजनीतिक ढांचे में व्यक्ति की विवशता एवं छटपटाहट, संयुक्त परिवार की कड़वी सच्चाईयां तथा प्रशासन की बिगड़ती स्थिति इन कहानियों के कुछ खास विषय हैं। और इन विषयों को आधुनिक कहानी के ताने-बाने में बुनकर पाठकों को परोसने में वो माहिर हैं।

टुकड़ों में बटी जिंदगी इस कहानी संग्रह की पहली कहानी है और वही इस पुस्तक का शीर्षक भी। इस कहानी का मुख्य पात्र एक सरकारी सस्ते गल्ले का दुकानदार है जिसे एक भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनना पड़ता है, अपनी इच्छाओं के विपरीत। इस कारण उसके अन्दर एक तरह की कसमसाहट है। वो हमेशा एक अपराध बोध से ग्रसित रहता है।

जहर, बूढ़े पेंटर की कहानी, सही रास्ता इत्यादि भी कुछ इसी तरह की व्यक्ति परक कहानियां हैं जिनमें लेखक ने मुख्यपात्र की वेदना एवं मनोदशा को उजागर करने की कोशिश की है।

संयुक्त परिवार की कठोर सच्चाइयों को बयां करने वाली कहानियां हैं, लाल और सफेद खून का फर्क, लावारिस और पितृ-ऋण। इन तीनों में लाल और सफेद खून का फर्क और लावारिस दिल को छूने वाली कहानियां हैं। पढ़कर आंखें नम हो जाती हैं। लाल और सफेद खून का फर्क के मंझले भैया को श्रीकांत ने बखूबी तराशा है। मेरी राय में इसका शीर्षक मंझले भैया होना चाहिए। कहानी को खत्म करने के बाद भी मंझले भैया का पात्र पाठक के दिलो-दिमाग पर छाया रहता है। कमोबेश यही बात लावारिस की माधुरी दी के साथ भी लागू होती है। वैसे तो श्रीकांत अपनी कई कहानियों में जीवन और समाज की सच्चाई को तटस्थ होकर उजागर करते हैं और समस्याओं का हल देने से बचते हैं। शायद उनका उद्देश्य होता है पाठक के सामने बस यथास्थिति को रखना और फिर उनके विवेक पर छोड़ देना, सोचने के लिए, समझने के लिए। पर परिवार-केन्द्रित इन दो कहानियों के अन्त को उन्होंने सकारात्मक मोड़ देने की कोशिश की है। मजेदार बात ये है कि इन कहानियों की रचना उस समय हो रही थी जब भारतीय समाज में संयुक्त परिवार अपने विघटन के कगार पर था। उस मायने में ये कहानियां उस बदलते समाज का एक महत्वपूर्ण डोक्युमेंट भी हैं।

इस कहानी संग्रह की एक और खास बात है कि इसमें कहानियों की विविधता है। कई ऐसी कहानियां हैं जिन्हें आप किसी भी श्रेणी में नहीं रख सकते। वो अपने आप में अनूठी हैं। अंतिम कहानी, कुत्ते , प्रशासनिक व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य है। यह काफी लोकप्रिय भी रही है। इप्टा ने पूरे देश में इसका मंचन हजारों बार किया है। यह एक उच्च अधिकारी की बेटी के कुत्ते के खो जाने की कहानी है, जिसमें सारा पुलिस महकमा रातभर परेशान रहता है। वो कई दूसरे कुत्तों को बांधकर थाने ले आते हैं। सुबह जाकर उन्हें पता चलता है कि खोया हुआ कुत्ता रात में ही मिल गया था। पर थाने में खबर पहुंचने में देर हो जाती है। इस पूरे प्रकरण का हर्जाना थाने में लाए गये कुत्तों के मालिकों को भरना परता है।

टुकड़ों में बटी जिंदगी आपको आजादी के बीस-पच्चीस वर्ष बाद वाले भारत की सैर कराता है। अपने इस सैर में आप मिल सकते हैं उस समय के पात्रों से, उनके घरों में या बाहर की दुनिया में भी। देख सकते हैं उनकी स्थिति, उनका संघर्ष। समझ सकते हैं, महसूस कर सकते हैं कि आजादी के बाद जो वादे किए गए थे उनमें कितने पूरे हुए और कितने रह गए बस कागज पर, अधूरे।

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©अरुण जी, 01.08.21

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