
हमलोग चार भाई बहन थे— तीन बहन और एक भाई। तीनो बहनों में मैं सबसे छोटी थी और भाई हम सबसे छोटा। वह मुझसे आठ वर्ष छोटा है। उसके जन्म होने के पहले मैं घर में सबसे छोटी थी, सबकी लाड़ली भी। उस ज़माने में बेटे और बेटियों में बहुत भेद-भाव किया जाता था। वैसे तो यह फ़र्क आज भी किसी न किसी रूप में बरक़रार है। पर मेरे बाबू जी के विचार बिल्कुल अलग थे। वे अपनी बेटियों को पढ़ाना चाहते थे। पहली दो बेटियों में तो वे सफ़ल नहीं हो सके, लेकिन मुझे वे पर्याप्त शिक्षा प्रदान करना चाहते थे। शुरू के वर्षों में घर में बेटा नहीं होने के कारण मेरा लालन-पालन भी बेटे के जैसा ही हुआ।
मेरा पहला स्कूल मेरे गांव का भी इकलौता स्कूल था । उसका नाम था ‘लाला गुरू जी का स्कूल’। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इस स्कूल के शिक्षक, कर्ता-धर्ता और सबकुछ एक ही व्यक्ति थे, लाला गुरु जी। गुरु जी गांव के बच्चों को वर्णमाला एवं पहाड़ा की शिक्षा देते थे गांव के लोग इसके बदले उन्हें जो दक्षिणा देते थे, उसी से उनका जीवन यापन होता था। एक गुरु के द्वारा चलने वाले वाले ऐसे स्कूल आसपास के गावों में काफी प्रचलित थे। स्थानीय भाषा में इसे ‘पिंडा’ भी कहा जाता था। यहाँ मैंने हिंदी वर्णमाला, गणित में पहाड़ा एवं आसान जोड़ घटाव का ज्ञान हासिल किया। आजकल स्कूलों में 1 से 12 तक ही पहाड़ा सिखाया जाता है, लेकिन लाला गुरु जी के स्कूल में हमने 1 से 30 तक का पहाड़ा से लेकर सवैया(1.25), अढ़ैया(2.5), हुठा(3.5) इत्यादि दशमलव वाले पहाड़ों को भी मैंने कंठस्त कर लिया था।
करीब पच्चीस बरसों बाद मेरे बड़े लड़के, अरुण, की प्रारंभिक शिक्षा भी इसी स्कूल से शुरू हुई। उस समय गांव में एक पर्व मनाया जाता था जिसका नाम था चकचंदा। इस पर्व के अवसर पर गुरू जी अपने शिष्यों के साथ घर-घर जाते थे और गीत गा-गा कर गुरु दक्षिणा मांगते थे। मुझे याद है कि अरुण भी गुरु जी एवं अन्य शिष्यों के साथ एक बार हमारे घर आया था।बच्चों ने उसके आँख को बंद कर दिया और वे गाने लगे:
“बबुआ रे बबुआ, लाल-लाल ढबुआ
अंखिया लाल-पियर होळौ रे बबुआ,
मैया तोर कठोरा रे बबुआ
बाबू तोर निरमोहिया रे बबुआ
जरियो नै दर्द आवहौ रे बबुआ,
भूख लगल हौ रे बबुआ
प्यास लागल हौ रे बबुआ।
हमारे घर से गुरु जी के लिए दक्षिणा लेकर वे सभी दुसरे घर चले गए।
लाला गुरु जी के यहाँ मैंने कक्षा एक एवं दो की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद की पढ़ाई के लिए हमारे गांव में कोई विकल्प नहीं था। इसलिए बाबूजी ने मेरा दाखिला पास के गांव, बादपुर, के सरकारी स्कूल में करवा दिया। वह स्कूल मेरे घर से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर था।
नया स्कूल, नया बस्ता, नयी पुस्तकों को पाकर मैं काफी उत्साहित थी। घर से बाहर जाना, बल्कि गांव से भी दूर स्कूल में जाकर नयी चीजों के बारे में जानना और सीखना — मेरी कल्पना से बिल्कुल परे था। पहले दिन का अनुभव तो एकदम आशा के अनुरूप था — मैं स्कूल गयी और घर लौट कर आई, पूरे उत्साह और उमंग के साथ।
लेकिन दुसरे दिन मैं जैसे ही घर से बाहर निकली कि मेरे एक चचेरे भाई, जो मुझसे करीब २० साल बड़े होंगे, ने मुझे रोककर मेरा बस्ता छीन लिया और गुस्से में आकर कहा, “खबरदार! आज से तुम्हारा स्कूल जाना बंद। इसके बाद अगर मैंने तुम्हें स्कूल जाते हुए देखा, तो तुम्हारे हाथ पैर तोड़ दूंगा।”
बाद में उन्होंने मेरे बाबूजी को भी इसके लिए बुरा भला कहा। असल में हमारे इस भाई साहब ने हमारे संयुक्त परिवार के प्रतिष्ठा की सुरक्षा का बीड़ा उठा रखा था। इसलिए खासकर औरतों और बेटियों को बाहर भेजने पर उन्होंने पाबन्दी लगा रखी थी। अपने इस दायित्व को वह धर्म के रूप में निभाते थे।
पर बाबूजी ने हार नहीं मानी। अखबार इत्यादि के माध्यम से उन्होंने घर में ही मुझे पढ़ना और लिखना सिखलाया। थोड़ी बड़ी होने के बाद चिट्ठी पढ़ने और लिखने में मुझे दिक्कत नहीं होती थी। गांव में किसी के घर डाक से चिठ्ठी आती तो कई बार लोग मुझे बुलाने आते थे। मैं उनको चिठियां पढ़कर सुनाया करती थी।
अखबार के अलावा धीरे-धीरे मैं धार्मिक पुस्तकें भी पढ़ने लगी। उस समय रामायण, गीता, महाभारत जैसी पुस्तकें लोग घर-घर में पढ़ा करते थे। मेरे गांव में कई ऐसे व्यक्ति थे जिन्हे धार्मिक पुस्तकों की पंक्तियाँ पूरी तरह से याद थी। इन पुस्तकों का पाठ एवं गायन हमारे सामाजिक जीवन का एक अभिन्न अंग था।
मैं 13 या 14 वर्ष की हो गई होंगी जब मुझे और मेरी चचेरी बहन, कलावती, को बड़का बाबू शाम को बंगला(दालान) पर बुलाते थे और रामचरितमानस पढ़ने के लिए कहते थे। वे खुद चौकी पर बैठ जाते थे। हम दोनों बहन नीचे चटाई पर। हमलोग मानस की चोपाई का पाठ करते और बड़का बाबू उसका अर्थ कहते थे। बीच में उच्चारण में कोई त्रुटि होने पर वो उसे दूर कर देते थे। बड़का बाबू हमारे बाबू जी के तीन भाईयों में सबसे बड़े थे। कलावती बड़का बाबू की ही बेटी थी। मेरी हमउम्र बहन एवं सहेली भी।
आज संयुक्त परिवार जब समाज से विलुप्त होने के कगार पर है तब समझ में आता है कि कैसे कुछ शब्दों का महत्व भी अब ख़त्म हो रहा है। संयुक्त परिवार में पिता के अन्य भाई भी पिता के समान समझे जाते थे, उन्हें भी उतनी ही इज्जत दी जाती थी। इसलिए बाबू जी के बड़े भाई को बड़का बाबू, मंझला बाबू इत्यादि कहकर पुकारा जाता था। इस तरह के शब्द संयुक्त परिवार को जोड़कर रखने में सहायक सिद्ध होते थे।
अब जब संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार ज्यादा प्रचलित हो रहा है तो इन शब्दों की शायद जरूरत नहीं रही। शब्दों की भी पदोन्नति हो गयी है। बाबू या पिता की जगह पापा अथवा डैड ने ले ली है। बड़का बाबू, मंझला बाबू इत्यादि अब सिमटकर चाचा अथवा अंकल बन गए हैं।