
शेरपुर में हमारा घर मिट्टी का था, उपर खपरैल। हमारे गांव में उस समय शायद सारे घर कच्ची दीवारों के ही थे। एक बार हमारे पड़ोस में चोरी हुई थी। चोर रात में घर के पीछे वाली दीवार में सेंध मारकर अंदर दाखिल हो गया। कच्ची दीवारों में सेंध मारना आसान होता है। सुबह उठकर लोगों ने देखा कि उनके घर के सारे पेटी बक्से, जिनमें कीमती कपड़े एवं जेवर थे, गायब थे।
इस तरह की चोरियां हमारे यहां आए दिन होती थीं। हमारे घर में भी एक दो बार हुई थी। एक बार तो मेरे भाई, चंद्रमौली, ने रात में ही चोर को पकड़ लिया था। वो भी एक अलग कहानी है। बहरहाल मिट्टी के हमारे घर उतने सुरक्षित नहीं थे।
मेरी शादी की तैयारी के सिलसिले में बाबूजी कई बार मोकामा मेरे ससुराल जाया करते थे। वहां से लौटने के बाद मां को बहुत सारी बातें बताया करते थे: घर-बार, लडका, उसके परिवार इत्यादि के बारे में। उस बातचीत में मैं शामिल नहीं होती थी, पर उन बातों को मैं छुप-छुप कर सुना करती थी। वो बताते थे कि पक्का का बहुत बड़ा मकान है। सुनकर काफी गर्व महसूस होता था।
मोकामा का घर गांव के पारंपरिक वास्तुकला का एक नमूना था। रोड के सामने ऊंची दीवार थी जिसके बीचो-बीच उपर चढ़ने के लिए कई सीढ़ियां। सीढ़ियों पे चढ़कर आपको एक मैदान मिलेगा, इतना बड़ा कि उसपर बच्चे गुल्ली-डंडा खेलते थे। मैदान के दांई ओर एक बड़ा चबूतरा और फिर सामने और बाईं ओर एल के आकार का खपरैल का दालान था जिसे हम बंगला भी कहते थे। सामने वाले दालान पर चढ़ने के लिए चार पांच और सीढ़ियां। फिर ठीक उसके बीचो-बीच एक विशाल दरवाजा था जिससे होकर हम घर के अंदर दाखिल होते थे। घर आयताकार था जिसके चारो ओर ग्यारह कमरे बने थे और बीच में आंगन था। घर से बाहर, पर उससे बिल्कुल सटा हुआ रसोईघर था और उसी के निकट औरतों के लिए शौचालय। छत पर जाने की सीढ़ियां अंदर ही थीं। एक कुआं भी था।
जीवन के इस नए मोड़ पर कच्चे घर से पक्के घर में मेरा प्रवेश हुआ। पर इसके अलावा और भी कई बदलाव हुए जो कम महत्वपूर्ण नहीं थे। दुल्हन के रुप में जब मैं उतरी तो पूर्ण रूप से घूंघट से ढ़की हुई। कहने को मुझे एक अलग कमरा मिला था पर शुरू के कुछ दिनों में ज्यादा समय अपने दोनों पांवों को मोड़कर, चुक्कू-मुक्कू, बैठी रहती थी। घर की औरतें, लड़कियां दिन भर मुझे घेरे रहती थीं।
नई-नवेली दुल्हन के आने पर एक रस्म होता था जिसका नाम था मुंहदिखाई। रस्म तो आज भी है लेकिन नियमों में काफी बदलाव आ गया है। मुंहदिखाई के लिए घर के या फिर पास-पड़ोस के पुरुष एवं औरत जब आते थे तो उन्हें दुल्हन का चेहरा घूंघट हटा कर दिखाया जाता था। दुल्हन की आंखें एकदम बंद होती थी और चेहरा भावहीन। अगर गलती से भी किसी की आंखें खुल गईं तो लोग शिकायत करते थे। मुंह देखने के बाद हरेक व्यक्ति कुछ पैसा दुल्हन को देता था। कुल मिलाकर उस समय मुझे 15 रुपये मिले होंगे। देखने के बाद लोग अपना-अपना मत भी प्रकट करते थे कि लड़की कैसी है या जोड़ी कैसी है।
मेरी एक ही ननद हैं, उम्र में मुझसे छोटी। उनका नाम है मालती। उन्होंने कई सालों बाद मुझे बताया कि उनकी एक सखी ने जब हमारी जोड़ी के बारे में कहा कि “राम नैया डगमग, सीता मैया चौगुना”, तो उसको उन्होंने खूब बुरा भला कहा था। असल में मेरे पति उस समय एकदम दुबले-पतले थे। उनके अनुपात में मेरा वजन थोड़ा ज्यादा था।
शादी के बाद मैं तीन महीने ससुराल में रही और मेरी पहचान ही बदल गई। मेरा नाम तारा था पर मुझे लोग दुल्हन के नाम से पुकारते थे और तब तक पुकारते रहे जब-तक दूसरी दुल्हन घर में नहीं आ गई। मैं व्यक्ति वाचक से जाति वाचक संज्ञा बन गई थी। बाद में मैं अपने गांव के नाम से जानी जाती थी। मैं तारा नहीं, शेरपुर वाली बन गई। ज़िन्दगी का पूरा व्याकरण बदल गया था।
नैहर में मैं एक चुलबुली लड़की थी, रोज गंगा नहाने जाती थी। लेकिन ससुराल में अपने घूंघट में सिमटकर रह गई थी। कमरे से मुझे केवल शौच के लिए बाहर निकाला जाता था, वो भी पूरी तरह से ढ़ककर। नहीं तो खाना-पीना, नहाना उसी कमरे में होता था। नैहर के हमारे परिवार में इतनी सख्ती नहीं थी। ससुराल में हंसना भी मना था।
एक जेठानी और एक चचेरी ननद दोनों मेरी हमउम्र थीं। एक का नाम था स्वर्णलता और दूसरी थी गोदावरी। उन दोनों की शादियां हो गई थी। इसलिए जब कभी भी मौका मिलता था तो हम एक दूसरे से अपनी अपनी शादी के अनुभवों को साझा करते थे और हंसते भी थे। एक बार ऐसा हुआ कि जब हमारी हंसी की आवाज बाहर चली गई तो बाहर से एक बुजुर्ग महिला आईं और कहने लगीं कि दुल्हन को इतनी जोर से नहीं हंसना चाहिए।
©arunjee
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Photo 1: Tara Devi, 2015
Photo 2: Her in-law’s house, 2006
Photo credit: Arun Jee