
मेरा जन्म पटना से करीब 100 किलोमीटर पूरब एक छोटे से गांव में हुआ, जिसका नाम है शेरपुर। गांव के पूर्वी छोर पर गंगा बहती है, और पश्चिमी छोर पर है दिल्ली से हावड़ा को जोड़ने वाली मुख्य रेल मार्ग। मेरे घर और रेल लाइन के बीच केवल खेत ही खेत थे। बचपन से घर की खिड़की से आती जाती गाड़ियों को देखकर मैं इतना अभ्यस्त हो गयी थी कि केवल समय देखकर और गाड़ी की सीटी सुनकर मैं बता सकती थी की ये मुगलसराय पैसेंजर है, तूफ़ान एक्सप्रेस या कोई मालगाड़ी।
सन 1934 के जनवरी महीने में हमारे गाँव और उसके आस-पास के इलाके में एक भारी भूकम्प आया था। उसमे चारो ओर जान-माल की काफी क्षति हुई थी। उस समय मैं अपने माँ के गर्भ में थी। मेरी माँ बताती थी कि उसी के सात महीने बाद मेरा जन्म हुआ। उस ज़माने में जन्म दिन याद रखने और मनाने की कोई प्रथा नहीं थी। लेकिन 1934 का वो भूकम्प मेरे जन्म की तिथि निर्धारित करने में सहायक सिद्ध हुआ।
आज जब मेरे छियासी साल पुरे हो चुके हैं, बहुत सी पुरानी बातें याद आती है। जीवन से जुड़ी कई घटनाएँ, किस्से, कहानियां मेरे जेहन में कुलबुलाती हैं, बाहर आने को आतुर हैं। ऐसा लगता है की कोई सुननेवाला मिले तो उससे अपनी उन खट्टी-मीठी यादों को साझा करूँ।
सन 1942 की कई बातें मुझे याद है, भारत छोडो आंदोलन के अलावा भी। तब मैं आठ साल की थी। उसी साल मेरी सबसे बड़ी बहन सत्यभामा की शादी हुई थी, मोकामा के सकरवार टोला मे। उसकी शादी की घटनाएँ मुझे उतना याद नहीं है।
लेकिन उसके ठीक आठ दिन बाद हमारे गांव में जो एक और बारात आई थी, मोकामा के सकरवार टोला से ही, उसकी कई बातें मुझे आज भी स्पष्ट रूप से याद है। बारात काफी सज-धज कर आई थी— उसमे कई हाथी, घोड़ों के अलावा एक मोटर गाड़ी भी थी, सकरवार टोला के नामी रईस बृजनाथ प्रसाद की। मेरे लिए किसी मोटर गाड़ी को देखने का यह पहला अनुभव था। दूल्हे की पालकी, ढ़ोल, बाजे, बत्ती के साथ बारात के सबसे आगे थी। हमारे छोटे से गांव के लिए यह एक अदभुत नज़ारा था। जब बारात दुल्हन के घर के सामने रुकी, तो सारे गांव के लोग जमा थे, बारात को देखने के लिए।
अचानक किसी ने दूल्हे का चेहरा देखा और लोग बातें करने लगे कि ‘लड़का बूढा है’, ‘लड़का बूढ़ा है’। धीरे-धीरे गांव के लोग इकट्ठा हो गए और कहने लगे कि ये शादी हम नहीं होने देंगे। एक सोलह साल की लड़की की शादी पचास साल के लड़के से नहीं हो सकती। बारात के लोग जब बातचीत से नहीं माने तो लोगों ने उनके ऊपर पत्थर फेंकना शुरू कर दिया, जिसमे मोटर गाड़ी का शीशा टूट गया। विरोध के इस पूरे अभियान में मेरे बड़का बाबू सबसे आगे थे। बड़का बाबू मेरे बाबूजी के तीन भाइयों में सबसे बड़े थे और बाबूजी सबसे छोटे। बाबू जी भी वहीं थे पर वो बारात के लोगों को बचाने की कोशिश कर रहे थे।
अंत में दूल्हे एवं बारात को उलटे पांव लौटना पड़ा। जाते-जाते मोकामा के लोगों ने धमकी दी कि शेरपुर का कोई भी आदमी जब कभी भी मोकामा आएगा तो हम इसका बदला जरूर लेंगे।
इस बीच हमारे गांव के राम बालक पहलवान दुल्हन को गोद में लेकर तेजी से अपने घर चले गए। हमलोगो ने जैसे ही देखा तो हमलोग भी उनके पीछे-पीछे गए। उन्होंने दुल्हन को एक कमरे में बंद कर दिया। राम बालक पहलवान के घर में भी उसी दिन एक लड़की की शादी थी, जिसके लिए पास के गांव, दरियापुर, से बारात आई हुई थी। गांववालों ने निश्चय कर लिया कि दरियापुर से आये बारात में से ही एक सुयोग्य वर ढूंढकर उस लड़की की शादी कर दी जाएगी। सचमुच वर मिल गया और उसकी शादी अगले दिन एक जवान युवक से हो गयी। एक ही दिन में उस लड़की के जीवन में एक नाटकीय बदलाव आया। कहाँ वह मोकामा के एक बुजुर्ग की पत्नी बनने वाली थी, अब उसकी शादी दरियापुर के एक नवयुवक से हो गयी।
इस शादी से जुडी कई किस्से, कहानियां बाद में काफी प्रचलित हुईं। हमें पता चला कि मोकामा की बारात में जो बुजुर्ग व्यक्ति दूल्हा बनकर आये थे उनका नाम था सन्तोखी सिंह। लड़की के पिता, महि सिंह, उन्हीं की जमीन पर मोकामा टाल में खेती करते थे और सन्तोखी सिंह के कर्जदार थे। इसीलिए गांव के लोगों को शक था की शादी के नाम पर वो अपनी बेटी को बेच रहें हैं। इस पुरे प्रकरण में महि सिंह की बड़ी बेटी, मुरली, की भूमिका काफी अहम थी। वह खुद तो बाल विधवा थीं, लेकिन अपनी छोटी बहन की शादी सन्तोखी सिंह से करवाने में काफी सक्रिय रहीं। इस सन्दर्भ में लोगों ने मुरली पर एक गीत रचा, वह गांव में काफी लोकप्रिय हुआ :
कहमॉ के दाली-चौरा, कहमॉ के टोकना,
केकरा ले खिचड़ी बनैलें, छौंरी मुरली।
मोकमा के दाली-चौरा, शेरपुर के टोकना
दरियापुर ले खिचड़ी बनैलें, छौंरी मुरली।
अपनौ खैलें, दरियापुर के खिलैलें
सन्तोखी ले जूठा नरैलें, छौरी मुरली।