
शादी के तीन साल बाद मेरा गौना हुआ, 1953 में। अपने वादे के मुताबिक बाबूजी को दहेज का बाकी रकम अपने समधी को चुकाना था। वो चिन्तित रहने लगे। दहेज के लिए उन्होंने किसी तरह पैसा तो जुटा लिया पर उनकी तबियत खराब रहने लगी। उन्हें सर्दी, खांसी और बुखार की शिकायत थी। मेरी विदाई के कुछ दिन पहले उन्होंने पटना जाकर जांच करवाया तो पता चला कि टीबी है।
ये वो समय था जब टीबी एक जानलेवा बीमारी समझी जाती थी। उसके इलाज की दवा 1950 के आसपास निकल गई थी। पर लोग इससे बहुत डरते थे। इलाज में कम से कम एक साल लगता था। नियमित सेवा और देखभाल की जरूरत होती थी। मेरी मां रात दिन बाबूजी की सेवा में लगी रहती।
मेरी विदाई तो तय थी, पर मेरे लिए बाबूजी का स्वास्थ्य ज्यादा महत्वपूर्ण था। मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया कि दहेज का पैसा मैं नहीं लूंगी, आप अपने इलाज में उसका इस्तेमाल कीजिए।
जिन परिस्थितियों में मेरा गौना हुआ था उनके बारे में सोंचकर आज भी आंसू छलक जाते हैं। विदाई के ठीक पहले बड़का बाबू ने मुझे बुलाकर समझाया कि ससुराल जाते वक्त तुम मत रोना, नहीं तो हरिहर का स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। हरिहर मतलब बाबूजी। उनका नाम हरिहर सिंह था।
ससुराल पहुंचने पर दहेज के बारे में लोग कैसी-कैसी बातें करते थे, ये मैं ही जानती हूं। मैं हंस कर रह जाती थी। एक महिला ने जो टिप्पणी की थी वो आज भी मुझे याद है।
उन्होंने कहा था, “बेमारी के बहाना बना के तोहर बाबू सब पैसबा बचा लेलखुन।”
पतिदेव हमेशा मेरा हौसला बढ़ाते रहते थे। सास-ससुर ने भी इस सम्बन्ध में नहीं टोका। मेरे ससुर बाबूजी का काफी सम्मान करते थे। बीमारी के कारण उनको बाबूजी से सहानुभूति हो गई थी।
नैहर(शेरपुर) में हमारा परिवार छोटा था: बाबूजी, मां, मैं और मेरा छोटा भाई, आज के एकाकी परिवार की ही तरह। बाबूजी अपने दोनों भाइयों से पहले ही अलग हो चुके थे। मेरी दोनों बड़ी बहनों की शादियां हो गई थी। घर में भाई मुझसे आठ साल छोटा था। इसलिए घर का सारा हिसाब किताब रखने की जिम्मेवारी बाबूजी ने मुझे ही सौंप रखा था। मैं अपने घर में मालकिन थी।
ससुराल एक ऐसा स्कूल था जिसके नियम बहुत कठोर थे, औरतों के लिए और भी ज्यादा। करीब 50 लोगों का संयुक्त परिवार था। ससुर तीन भाई। सबसे बड़े रामवतार सिंह को पांच लड़के। मझले, मेरे ससुर, रामस्वरूप सिंह के पांच लड़के, एक लड़की और सबसे छोटे, सरयू सिंह, के दो लड़के एवं एक लड़की थी। मेरे पतिदेव से बड़े छह भाइयों की शादी हो चुकी थी। बड़े, बच्चे सब एक ही घर में रहते थे। चूल्हा भी एक था।
घर के मुखिया मेरे ससुर थे। घर की बहुएं उन्हें मालिक के रूप में जानती थीं। हम उनसे बात नहीं कर सकते थे। ससुर और भैंसुर (पति के बड़े भाई) के सामने हम हमेशा घूंघट में ही रहते थे। जब भी कोई ससुर या भैंसुर घर के अंदर घुसते तो कुछ जोर से बोलते हुए या जानबूझकर खांसते हुए हमें सावधान किया करते थे जिससे कि हम अगर आसपास हों तो घोघा(घूंघट) तान लें। घोघा के बिना हम घर की ड्योढ़ी के बाहर कदम भी नहीं रख सकते थे। रिश्तों में जो मर्द हमसे बड़े थे उनका नाम लेना पाप था। नई पीढ़ी की लड़कियों को यह सुनकर अजीब लगेगा कि पति का भी नाम हमारी डिक्शनरी में नहीं था।
घर में सारी चीजों को जुटाने की जिम्मेवारी मालिक की होती थी। खाने से लेकर कपड़ा-लत्ता और हमारा नैहर आना जाना, सब वही तय करते थे। हमें अगर किसी चीज की जरूरत हो तो हम अपनी सास को बताते थे। वो हमारी बात को मालिक, जो उनके पति भी थे, तक पहुंचाते थे, एक सेक्रेटरी की तरह। सास को हमलोग सरकार जी कह कर सम्बोधित करते थे। छोटे ससुर की पत्नी को छोटकी सरकार। सरकार शब्द का ये प्रयोग हमारे इलाके में काफी प्रचलित था। संयुक्त परिवार के विघटन के साथ-साथ सरकार राज भी अब लुप्त हो रहा है।
ससुराल का घर एक छोटी मोटी फैक्ट्री थी, जिसमें तरह तरह के काम होते थे। रसोई में खाना बनाने के अलावा अनाज को धोना, सुखाना, चालना, फटकना, कूटना, पीसना वगैरह सब औरतों को करना पड़ता था। उस समय तक मिल में अनाज पिसवाने की व्यवस्था नहीं हुई थी। सुबह उठने के साथ ही हम औरतें अपने-अपने काम में लग जाते थे। कोई चक्की चला रही है, तो कहीं ऊखल चल रहा है। साथ-साथ खाना भी बनता था। हम औरतों के अनुशासन की जिम्मेवारी सरकार जी की थी, पर नियम टूटते भी थे। आपस में झगड़े भी होते थे।
अदौरी, भुऔरी, तिलौरी सब घर में ही बनता था। आम के समय में अमावट या महुआ के मौसम में लट्टा। वैसे लट्टा अब लुप्त हो चला है। इसे बनाने के लिए महुआ और तीसी(अलसी) दोनों को कूटा जाता है। फिर उसे लड्डू का शक्ल दिया जाता है। तीसी में ओमेगा थ्री जैसे दुर्लभ पोषक तत्व हैं। आजकल शहरों में काफी लोकप्रिय हो रहा है। बरसात के दिनों में सुबह के नाश्ते में कई बार हम एक दो लट्टा खा लेते थे।
लगभग एक साल के बाद जब मैं मायके लौटी तो गर्भवती थी। थोड़ी कमजोर हो गई थी। गठिया से पीड़ित थी। ससुराल में दुल्हन बनकर लगातार चुक्कू-मुक्कू बैठे रहने के कारण घुटनों में दर्द होता था। पर नैहर लौटने की खुशी ही कुछ और थी। कुछ दिनों बाद गठिया अपने आप ठीक हो गया। बाबूजी भी अब पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गये थे।
©arunjee
Photo: Tara Devi
Photo credit: Prashant Gyan
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