
फणीश्वरनाथ रेणु की चिट्ठियों का एक संकलन “चिट्ठियां रेणु की भाई बिरजू को” मुझे पिछले सप्ताह मिला। पुस्तक पिछले महीने ही प्रकाशित हुई है। मैंने जल्दी ही इसे पढ़ डाला। फिर इस पर कुछ लिखने की इच्छा होने लगी। पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
मेरे लिए सबसे बड़ी समस्या के रूप में खड़े थे रेणु खुद। उनका कृतित्व और व्यक्तित्व। बार बार ये लगता था कि मुझे क्या हक़ है उन पर कुछ भी लिखने का? मैंने उनकी कितनी रचनाओं को पढ़ा है? सिवाय उस एक के, जिस पर आधारित है वो मशहूर चलचित्र, तीसरी कसम (हालांकि तीसरी कसम अपने आप में कम नहीं है रेणु की लेखनी और उनकी दृष्टि से परिचय करवाने के लिए)।
फिर जब इस पुस्तक के सह संपादक प्रयाग शुक्ल के आलेख के अंत में हमारे जैसे पाठकों के लिए एक संदेश पढ़ा, तो हिम्मत बढ़ी। उन्होंने लिखा है: “कोई इन पत्रों को संदर्भ, संकेत, जाने बिना – सिर्फ एक मित्र को लिखे गए दूसरे मित्र के पत्र भर मानकर पढ़े, तो भी उसे बहुत कुछ मिलेगा – “
वैसे मेरे पास रेणु से जुड़े कुछ संदर्भ और संकेत दोनों पहले से ही मौजूद थे, तीसरी कसम के अलावा भी। पटना में सत्तर के दशक का छात्र आंदोलन और उसके बाद का दौर अपने आप में एक महत्वपूर्ण संदर्भ था। उसमें रेणु की भूमिका एक लेखक, विचारक, और योद्धा के रूप में अविस्मरणीय थी। उन दिनों मैं पटना विश्वविद्यालय का छात्र था। जेपी और रेणु जैसी हस्तियां हमारे प्रेरणाश्रोत थे। रेणु को एकाध बार देखा भी था। उनका चश्मा और उनके लहराते हुए बाल हमें खूब लुभाते थे। घर में या दोस्तों के बीच उनके बारे में बराबर चर्चा होती थी। आज भी होती है। राजेन्द्र नगर में उनके निवास, काफी हाउस में उनकी उपस्थिति से लेकर भाषा, साहित्य और समाज पर उनके गहरे प्रभाव जैसे विषयों पर।
पुस्तक खोलने के बाद संकलन कर्ता व संपादकों के लेखों को छोड़कर मैं आगे बढ़ गया। मेरे लिए रेणु की चिट्ठियां सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थीं। सबसे पहले उनको पढ़ना और सुनना चाहता था। उनसे बातें करना चाहता था।
बिरजू बाबू को लिखी गई ये चिट्ठियां रेणु के जीवन में हो रहे रोजमर्रा की परेशानियों के साथ साथ उनकी आर्थिक तंगी और बिगड़ते स्वास्थ्य को दर्शाती है। इन चिट्ठियों से ये भी पता चलता है कि रेणु गांव, समाज और देश के प्रति कितने प्रतिबद्ध थे। और अपनी इसी प्रतिबद्धता को हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में पिरोकर वो अमर हो गए। रेणु के जीवन में परिवार, समाज, साहित्य, राजनीति, देश सब साथ साथ चलते हैं।
1953 में लिखी एक चिट्ठी से पता चलता है कि रेणु जैसे महान रचनाकार को भी अपने पहले उपन्यास को प्रकाशित करवाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। इस चिट्ठी में वो भाई बिरजू को कहते हैं:

“यह पांडुलिपि जब तक अप्रकाशित अवस्था में मेरे पास पड़ी रहेगी; समझो बिन ब्याही जवान बेटी गरीब की! और क्या कहूं?”
1975 की एक चिट्ठी हृदयविदारक है। इसमें वो बिरजू बाबू को लिखते हैं:

“रात मेरा सब कुछ चोर उठा ले गया। एक ट्रंक जिसमें मेरे सारे कपड़े, पोर्टफोलियो बैग– दोनों –(VIP box को तोड़कर – चीजें निकालकर – पाट के खेत में छोड़ दिया) – 500 नकद, मेरी प्राण से भी प्यारी ‘पारकर 51’ कलम, शैलेंद्र के 50 से भी अधिक पत्र, साढ़े 300 पेज लिखी हुई पांडुलिपि, एक बुश रेडियो बड़ा– बहुत सारे अन्य अत्यावश्यक कागजात– सब ले गए। मेरे पास सिर्फ देह पर जो कपड़े हैं– बस।…
अन्य चीजों के अलावा शैलेंद्र के पत्र, उनकी अपनी एक पांडुलिपि की चोरी – सचमुच, रेणु के लिए कितना पीड़ादायक रहा होगा।
नेपाल में प्रजातंत्र की नींव रखने वाले वहां के भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला का एक मार्मिक संस्मरण भी है इस पुस्तक में। श्री कोइराला ने बताया है कि कैसे रेणु से उनकी मुलाकात नाटकीय ढंग से हुई थी एक ट्रेन में। और फिर कैसे ‘नितांत अपरिचित किशोर रेणु कोइराला परिवार का एक अभिन्न सदस्य जैसा हो गया और जीवनपर्यंत रहा।’ रेणु की अचानक मृत्यु की खबर को सुनकर वे काफी मर्माहत हुए थे। संस्मरण के अंत में लिखते हैं:

“… रेणु मर गया, लेकिन रेणु जिन्दा है। अपनी जिंदादिली के लिए, अपने क्रान्तिकारी विचारों के लिए, तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष के लिए, अपनी जिजिविषा के लिए, अपनी सिसृक्षा के लिए…”
अरुण जी, 12.04.22