
प्रसिद्ध चित्रकार जतिन दास की इस पेंटिंग को देखकर मुझे अंग्रेजी की एक कहानी याद आ गई। इसे नब्बे के दशक में मैं क्लास 12 के विद्यार्थियों को पढ़ाता था। वैसे ये पेंटिंग मेरे लिए बस एक ट्रिगर है कहानी शेयर करने के लिए। क्योंकि पेंटिंग और कहानी में कई असमानताएं भी हैं। कहानी कुछ इस प्रकार है:
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एक अंधा भिखारी एक शानदार होटल के सामने सड़क पर अपनी छड़ी के सहारे टक् टक् करता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसके कपड़े गंदे थे। कोट फटे हुए थे।
ठीक उसी वक्त मिस्टर पारसन्स नामक एक संभ्रांत व्यक्ति होटल से निकल रहे थे। सूटेड-बूटेड, टाई लगाए। मेहनत और ईमानदारी उनके जीवन के दो महत्वपूर्ण सूत्र थे। और उन्हीं के बल पर उन्होंने समाज में एक मुकाम हासिल किया था।
छड़ी की आवाज को सुनकर वे थोड़ा ठिठके। अंधे व्यक्तियों के प्रति उनके अंदर एक खास झुकाव था। सहानुभूति थी।
उन्होंने जैसे ही अपना एक कदम बढ़ाया, भिखारी ने उनकी ओर पलट कर कहा: “एक मिनट रुकिए साहब, मेरी बात सुन लीजिए।”
मिस्टर पारसन्स ने कहा, “माफ कीजिएगा। मैं किसी से मिलने जा रहा हूं। मेरे पास समय कम है। फिर भी बताइए, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं?”
“मैं कोई भिखारी नहीं हूं, साहब। मेरे पास एक छोटी सी चीज है। इसे मैं बेचता हूं।” कहकर झट से एक छोटी वस्तु को अपने बैग से निकालकर उसने पारसन्स की हथेली के ऊपर रख दिया। “इसकी कीमत केवल सौ रुपए हैं। यह एक बेहतरीन सिगरेट लाइटर है। आपके काम आएगा।” उसने कहा।
भिखारी के इस व्यवहार से पारसन्स झुंझलाहट से भर गए। कुछ पल के लिए रुके। फिर उन्होंने कहा, “पर मैं सिगरेट नहीं पीता हूं।”
भिखारी उनके कोट की बांह को पकड़कर विनती करने लगा, “इसे खरीद लीजिए, साहब। किसी और को दे दीजिएगा। मेरा भला हो जाएगा।”
पारसन्स ने एक सौ रुपए का नोट पर्स से निकाल कर उसे दे दिया और लाइटर को अपनी जेब में डाल लिया, यह सोचकर कि उसे अपने लिफ्टमैन को दे दूंगा।
इसके बाद उस भिखारी ने कहना शुरू किया कि 14 साल पहले वह जिस केमिकल फैक्ट्री में काम करता था, वहां भयंकर विस्फोट हुआ था। उसमें 108 लोग आग में झुलस कर मर गए थे। उसने बताया कि वह खुद भी उसी दुर्घटना का शिकार हुआ था।
इसे सुनकर मिस्टर पारसन्स उसे गौर से सुनने लगे। मानो वे अपनी पुरानी यादों में खो गए हों।
भिखारी की निगाह पारसन्स की जेब पर थी। उसे लग रहा था कि पारसन्स इस कहानी को सुनकर कुछ और पिघल जाएंगे और उसे कुछ और पैसे मिल जाएंगे।
कहानी को जारी रखते हुए उसने आगे कहा, “साहब, मुझे अभी भी याद है वो आग, धुंआ और वो गैस जिसने मेरा सब कुछ लूट लिया। आप जानना चाहेंगे कि मेरी आंखों की रोशनी कैसे गई?”
“मैं उस केमिकल फैक्ट्री में मजदूर के रूप में काम करता था। विस्फोट के दौरान मैं वहां मौजूद था। सारे लोग फैक्ट्री से बाहर की भाग रहे थे। कई लोग सुरक्षित निकल गए। लेकिन मैं उस भीड़ में थोड़ा पीछे था। जैसे ही मैं बाहर निकलने को हुआ कि एक आदमी नें मेरा पैर पकड़कर कहा कि मुझे पहले जाने दो। और वह मेरे पीठ पर चढ़कर मुझसे आगे निकल गया। उसने मुझे वहीं धूल में छोड़ दिया। मैं कुछ देर वहीं पड़ा रहा। चारों ओर जहरीली गैस फैल चुकी थी।”
इतना कहकर वह अंधा भिखारी सुबक सुबक कर रोने लगा।
“ये कहानी सच्ची तो है, पर है यह अधूरी।” मिस्टर पारसन्स ने कहा।
“अधूरी? आप कहना क्या चाहते हैं …? भिखारी ने पूछा।
“यही कि तुम्हारी कहानी अधूरी है”, पारसन्स ने बताया।
“कैसे?”, भिखारी ने चौंककर पूछा।
“क्योंकि धूल और जहरीली गैस के बीच जो व्यक्ति पीछे छूट गया वह मैं था। और मेरी पीठ पर चढ़कर आगे निकलने वाले श़ख्स तुम थे, मार्क।” पारसन्स ने कहा।
यह सुनकर कुछ पल के लिए भिखारी एकदम चुप हो गया। उसकी हालत ऐसी थी जैसे काटो तो खून नहीं। फिर अचानक वह जोर जोर से चिल्लाने लगा, “हो सकता है, ऐसा हो सकता है। पर अब मैं अंधा हूं। और आप मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं।”
उसकी आवाज को सुनकर आसपास के लोग उनकी ओर देखने लगे।
“आप जाइए यहां से … मेरा मज़ाक मत उड़ाइए। मैं अंधा हूं?”, उसने आगे कहा।
“देखो मार्क,” मिस्टर पारसन्स ने कहा, “हंगामा खड़ा मत करो … अंधा मैं भी हूं”
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यह अंग्रेजी की कहानी, एक मैन हूं हैड नो आईज़, का हिन्दी रूपांतरण है। कहानी के लेखक हैं मैकिनले कैन्टर। इसका रूपांतरण किया है अरुण जी ने।