
इन दिनों मेरी किताब है लेखक अनुवादक यादवेन्द्र की घने अन्धकार में खुलती खिड़की। इसी वर्ष सेतु से प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक ईरान में महिलाओं के अधिकारों के हनन के विरोध में लगातार उठतीं आवाजों का एक संकलन है। वैसी आवाजें जो संस्मरण, चिट्ठियां, सिनेमा, कहानियां, कविताएं एवं ब्लाग्स के माध्यम से महिलाओं ने व्यक्त किया है। ईरान की महिलाएं अपने हक़, अपनी आज़ादी के लिए लम्बे समय से संघर्षरत रहीं हैं। अनगिनत महिलाओं ने सजा पाईं, यातनाएं सहीं हैं, आज भी सह रहीं हैं। कइयों ने अपने जीवन भी कुर्बान कर दिए। उन्हीं की पीड़ा, उनके दर्द और उनके अथक प्रयास को समेटने की कोशिश है यादवेन्द्र की यह किताब, घने अन्धकार में खुलती खिड़की।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एशिया एवं अफ्रीका के देशों में जब लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष तेज होने लगा तो ईरान भी उससे अछूता नहीं था। वहां के लोगों ने भी तत्कालीन राजा, मुहम्मद शाह पहलवी, के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़ी। उस लड़ाई में सभी विचारधारा के लोग एक साथ थे: उदारवादी, कम्युनिस्ट, सेक्युलर, पुरुष, स्त्री, धर्म गुरु इत्यादि। पर कितनी बड़ी विडम्बना है कि वहां राजतंत्र का खात्मा तो हुआ लेकिन उसकी जगह 1979 में एक ऐसी सरकार सत्ता में आई जिसका आधार था धार्मिक कट्टरता और जो पिछली सरकार से भी ज्यादा नागरिक विरोधी, क्रूर एवं निरंकुश साबित हुई।
इसका सबसे ज्यादा असर ईरान की महिलाओं पर पड़ा। पचास, साठ, सत्तर के दशक में ईरानी महिलाएं को बहुत सारे अधिकार मिले हुए थे। उनके बाहर आने-जाने, कपड़े पहनने, नौकरी करने पर विशेष रोक-टोक नहीं था। उन्होंने शाह की सत्ता के विरोध में हुए आन्दोलनों में पुरुषों का साथ दिया था। पर नई सरकार के आने के बाद उनपर एकदम से वज्रपात हो गया। उनका जीवन कैदियों की तरह हो गया। या तो वे घरों में कैद़ कर दी गईं। या फिर बाहर, कपड़ों के अन्दर। कई ऐसी महिलाएं थीं जो शाह विरोधी आंदोलनों में भी जेल गईं और फिर 1979 में इस्लामिक गणतंत्र के आने के बाद भी। कई ऐसी भी थीं जिन्हें नई सरकार ने मृत्युदंड दिया। लेकिन इन सारी यातनाओं को झेलने के बावजूद महिलाओं ने अपना संघर्ष जारी रखा है। यादवेन्द्र की यह पुस्तक पिछले चालीस-पचास सालों से चल रही स्त्रियों की इस लड़ाई की दर्द भरी दास्तां है।
पुस्तक के पहले खंड में हैं ‘जेल संस्मरण’ जिसमें अलग अलग महिलाओं ने जेल में बिताए अपने पीड़ादायक अनुभवों को साझा किया है। नीचे मैं उनमें से केवल दो का जिक्र करना चाहूंगा।
तेहरान में जन्मीं शहरनुश परसीपुर एक लेखक हैं जिन्हें वहां की धार्मिक रूप से कट्टर सरकार ने उनके विचारों और लेखनी के लिए जेल में डाल दिया। 4 साल एवं 7 महीने जेल में व्यतीत करने के बाद वह अमरीका चलीं गईं। जेल में बिताए अपने उन पलों को याद करती हुई वह लिखतीं हैं कि एक बार वो रातभर हेवी मशीनगन के धमाकों की आवाज सुनती रहीं। कैदी साथियों ने बताया कि जेल के बाहर कैदियों को गोलियों से भूना जा रहा है। ‘अगले दिन अखबारों में 300 लोगों के नाम छपे थे।’ उस पूरे वाकए और ख़ासकर एक नाबालिग लड़की के बारे में सोचकर वह बताती हैं: “मेरे मन में हुकूमत के लिए कितनी घृणा, कितना गुस्सा पैदा हुआ इसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती।”
शहला तलेबी एक समाजशास्त्री हैं जिन्हें 1979 की इस्लामिक क्रांति के पहले, शाह के जमाने में, और उसके बाद भी कई वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे रहना पड़ा। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है कि प्रतिरोध में इतनी ताकत है कि जेल की अमानवीय परिस्थितियों में भी क़ैदी रचनाशीलता के नए माध्यमों को ढूंढ लेते थे। उनके जेल की कोठरियां इतनी छोटी एवं तंग थीं कि कैदियों के लिए अपना ज़ख़्मी हाथ पांव भी चलाना मुश्किल था। पर उस विषय परिस्थिति में भी वे अपनी रचनात्मकता के द्वारा अपनी आत्मा को बचाकर रखते थे। कंकड़-पत्थर, सिक्के, बटुए, चिट्ठियां जो भी मिल जाए उनमें वे अपनी कला, अपनी प्रतिभा को जीवित रखने की कोशिश करते थे। हालांकि जेल के पहरेदारों की पैनी निगाहें हमेशा ऐसे कार्यों में रुकावट डालने के नए नए तरीके ढूंढते रहते थे।
इन दोनों के अलावा भी अन्य कई महिलाएं हैं जो ‘जेल संस्मरण’ के इस खंड में हुक़ूमत की ज्यादती और क्रूरता की कहानियां सुनाती हैं।
इस किताब का दूसरा खंड, ‘चिट्ठी-पत्री’, भी कम पीड़ादायक नहीं है। इसकी शुरुआत होती है ‘इज़्ज़त ताबियां की वसीयत और चिट्ठी से’, जिसे पढ़कर तो मेरा दिल दहल गया।
इज़्ज़त ताबियां एक वामपंथी छात्र नेता थीं जो पहले शाह के विरोध में और बाद में धार्मिक हुकूमत के खिलाफ जी-जान से लड़ी थीं। 1982 में उन्हें गोलियों से उड़ा दिया गया। वो फ़ारसी के प्रमुख कवि माज़िद नफ़ीसी की पत्नी थीं। यहां मैं केवल उनकी एक चिट्ठी को साझा कर रहा हूं। इसे उन्होंने अपने शौहर के लिए लिखा था। इसके बाद है एक कविता जिसे उनके शौहर ने उनके कब्र को ढूंढते हुए लिखा था। दोनों काफी मार्मिक हैं:
इज़्ज़त ताबियां की चिट्ठी
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“मेरे प्यारे साथी (पति)
मेरा जीवन बहुत छोटा था और हमें साथ साथ रहने के लिए और भी कम समय मिल पाया। मेरी ख़्वाहिश मन में ही रह गई कि आपके साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताऊं… अब तो ये मुमकिन भी नहीं है। आपसे इतनी दूर खड़ी हूं पर यहीं से आपका हाथ पकड़ कर हिला रही हूं… और आपकी लंबी उम्र के लिए दुआएं कर रही हूं… हालांकि मुझे लग रहा है इस वसीयत की क़िस्मत में आप तक पहुंचना नहीं है।
उन सब को सलाम जिनसे पिछले दिनों में प्यार किया और अब भी करती हूं… और सदा-सदा के लिए करती रहूंगी। अलविदा…
इज़्ज़त ताबियां, 7 जनवरी 1982

उनके शौहर की कविता का शुरुआती अंश
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निशान लगा ख़ज़ाना
फाटक से आठ क़दम दूर
और दीवार से सोलह क़दम के फासले पर…
है किसी पोथी का लिखा
ऐसे किसी ख़ज़ाने के बारे में?
ओ मिट्टी!
काश मेरी अंगुलियां छू पातीं तुम्हारी धड़कनें
या गढ़ पातीं तुमसे बरतन…
अफसोस मैं हकीम नहीं हूं
और न ही हूं कोई कुम्हार
मैं तो मामूली सा एक वारिस हूं
लुटाए-गवाएं हुए अपना सब कुछ…
दर-दर भटक रहा हूं तलाश में
कि शायद कहीं दिख जाए
वो निशान लगा हुआ ख़ज़ाना
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इज़्ज़त ताबियां की मृत्यु के बाद उनके पति माज़िद नफ़ीसी 1983 में घोड़े पर सवार होकर ईरान से भाग निकले। टर्की, फ्रांस होते हुए वे अमरीका पहुंचे और वहीं बस गए। वहां उनकी बहुत सारी कविताएं, लेख, संस्मरण, किताबें छपीं। वे एक जाने माने एक्टिविस्ट भी हैं जो ईरान और पूरी दुनियां में मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में सतत् सक्रिय रहते हैं।
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जेल संस्मरण और चिट्ठी-पत्री के अलावा यादवेन्द्र की इस पुस्तक के और भी कई खंड हैं, जैसे सिनेमा, ब्लाग्स, कहानियां, कविताएं इत्यादि। ये ईरान की स्त्रियों के जीवन में व्याप्त घने अन्धकार से पाठकों का न केवल परिचय कराती हैं, बल्कि उम्मीद की एक खिड़की भी खोलती हैं। इन स्त्रियों के संघर्ष के बारे में पढ़कर, जानकर उनके बेहतर भविष्य के प्रति हमारा विश्वास और मजबूत होता है।
इस पुस्तक के बारे में हिंदी के जाने-माने कवि एवं साहित्यकार अरुण कमल की निम्नलिखित पंक्तियां मुझे बिल्कुल उपयुक्त जान पड़ती हैं। वे कहते हैं कि यादवेन्द्र की ‘घने अन्धकार में खुलती खिड़की ईरानी स्त्रियों के लोकतांत्रिक संघर्ष के सांस्कृतिक पक्ष का ज्वलंत दस्तावेज है जो संभवतः हिंदी में पहली बार उपलब्ध हो रहा है।’