
उषा की मृत्यु मेरे जीवन की सबसे दुखद घटना थी। उस दिन मुझे इतना याद है कि मैं जार-बजार रोये जा रही थी और सरकार जी(सास), मेरी गोतनी (जेठानी) सभी मुझे ढाढस बंधाने की कोशिश कर रहीं थीं। मैं बार-बार रोती थी और अपने आप को कोसती थी कि मेरे साथ क्यों ऐसा क्यों हो रहा है? भगवान मुझे किस गलती की सजा दे रहे हैं? दो साल के अंतराल में एक के बाद एक लगातार दो संतानों की मौत। मेरे लिए जीवन जैसे ठहर गया था। खबर मिलते ही बाबूजी आये और मुझे शेरपुर लेकर चले गए।
बाद में पतिदेव ने बताया कि ससुराल परिवार में भी मातम का माहौल था। हमारे ससुराल की एक खास बात है कि परिवार में चाहे कितना भी बड़ा दुख पड़ जाए, मर्द लोगों की आंखों से आंसू नहीं निकलते हैं। अपने पति की आंखों में मैंने कभी भी आंसू नहीं देखा है। पर उनके एक बड़े भाई, जिन्हें बच्चे गोरू बाबू (उनका रंग गोरा था) के नाम से पुकारते थे, खूब रोये थे। उषा की मृत्यु से सभी दुखी थे। आज भी लोग उसे अफसोस के साथ याद करते हैं।
शेरपुर पहुंचने के बाद धीरे-धीरे मेरा रोना बन्द होने लगा पर मैं एकदम चुप चुप रहने लगी। किसी काम में मन नहीं लगता था। कई दिनों तक मैंने नहाया भी नहीं। बार-बार मन में यही आता कि आखिर ये मेरे साथ ही क्यों हुआ? मेरी क्या गलती है? मेरी हालत को देखकर मां और बाबूजी चिन्तित रहने लगे।
दोनों बच्चों का गुजरना मेरे ऊपर एक बड़ा भावनात्मक, मानसिक आघात था। मेरे लिए वो व्यक्तिगत तो था ही पर सामाजिक भी था। उन दिनों भारत में शिशु मृत्यु दर वैसे भी काफी ज्यादा था। जैसा कि पहले भी मैंने बताया कि चार में से एक शिशु की मौत हो जाती थी। और उसका मूल कारण था स्वास्थ्य सेवाओं में कमी। पर इसका खामियाजा भुगतना पड़ता था औरतों को।
जिन औरतौं के शिशु मरते थे उन्हें हमारे यहां मरौंछ कहा करते थे। और घर में उन्हें शादी, छट्ठी (शिशु के जन्म के बाद का छठा दिन) जैसे शुभ कार्यक्रमों से दूर रखा जाता था। इस परिपाटी का महत्व मुझे आज तक समझ में नहीं आया। ऐसी परिस्थिति में एक तो औरत खुद पीड़ा में होती है। पर वो अगर उस पीड़ा को भूलने की कोशिश भी करे तो समाज उसे भूलने नहीं देता था। पुरुष इस सामाजिक तिरस्कार से बिल्कुल अछूता रहता था। शायद यही कारण है कि मेरे दिल में आज भी उन बातों की टीस मौजूद है।
हमारे गांव में उन दिनों एक संन्यासी आते थे। मेरे बाबूजी के हमउम्र और दोस्त थे। उनका नाम था हरिनंदन शर्मा। नवादा जिले के लाल विघा नामक गांव के रहने वाले थे। संस्कृत और हिन्दी के विद्वान थे। उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में भी भाग लिया था। आध्यात्म की ओर झुकाव बढ़ने के कारण गृहस्थ जीवन को छोड़ वो संन्यासी बन गए थे।
हमारे गांव शेरपुर में ही उन्होंने गंगा किनारे 1947 में अपने गुरु से औपचारिक दीक्षा ली, संन्यासी का वस्त्र और नाम धारण किया था।और यही वजह है कि शेरपुर को वो अपनी जन्मस्थली मानने लगे। संन्यासी बनने के बाद वो स्वामी विज्ञानानंद के नाम से जाने जाने लगे। गांव के लोग उन्हें जोगी जी कहकर पुकारते थे।
जोगी जी गांव गांव में घूमकर गीता और रामायण पर प्रवचन दिया करते थे। उनकी विद्वता का Gita press, Gorakhpur वाले Hanuman Prasad Poddar, जसदयाल गोयनका, एवं संतश्री रामसुखदास जी भी सम्मान करते थे। यही वजह है कि जोगी जी को गीता भवन ऋषिकेश में प्रत्येक वर्ष गीता पर प्रवचन देने के लिए आमंत्रित किया जाता था।
शेरपुर से उन्हें खास लगाव था। प्रत्येक वर्ष वो अपने सहयोगी स्वामी आनंदानन्द के साथ शेरपुर आकर एक महीना गंगा सेवन करते थे। गंगा किनारे, आम के बगीचों के बीच मंदिर के समीप बनी एक कुटिया में उनका निवास होता था। रोज शाम को उनका एक घंटे का कार्यक्रम होता था जिसमें गीता, रामायण से जुड़ी कहानियां, दृष्टांत या विवरण होता था। प्रवचन का समापन वो एक भजन से करते थे जिसकी पहली पंक्ति कुछ इस प्रकार है:
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव।
उनकी इस पंक्ति को उन्हीं के अंदाज में गाने की कोशिश मेरा लड़का आज भी करता है। जब वह छोटा था तो उसे मैं प्रवचन सुनने साथ में ले जाती थी। वो बताता है कि वो हमेशा प्रवचन के अन्त में जोगी जी के गायन का इंतजार करता था और फिर उसके बाद प्रसाद के रूप में मिश्री का।
उषा के गुजरने के बाद अवसाद की अवस्था में जब मैं शेरपुर में रह रही थी, उन्हीं दिनों जोगी जी वहां आये हुए थे। बाबूजी मुझे उनसे मिलाने ले गए। उन्होंने गौर से मेरी बातों को सुना। फिर समझाया कि सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दुख के बाद सुख और सुख के बाद दुख का आना निश्चित है। इसलिए हमें न तो दुख में कभी घबराना, न ही सुख में कभी इतराना चाहिए। जोगी जी की बातों को सुनकर मुझे थोड़ी राहत मिली।
इसके बाद रोज शाम को मैं उनका प्रवचन सुनने जाने लगी। उनके हरेक प्रवचन में कोई न कोई नया श्लोक, नया संदेश होता था। और मैं घर आकर धार्मिक ग्रंथों जैसे गीता, रामायण में उन्हें खोजती और फिर उनका अर्थ लिखती थी। धीरे धीरे मेरे अंदर नयी चीजों को जानने, सीखने की इच्छा होने लगी और मैं खुश रहने लगी।
इस बीच पतिदेव की नौकरी लग गई, राज्य सरकार के सहकारिता विभाग में। उसी साल(1958) मेरे भाई, चन्द्रमौली, की शादी भी हुई। शादी में शामिल होने के लिए मेरे पति रांची से आए थे। रांची में उस समय उनकी ट्रेनिंग चल रही थी।
©arunjee
Photo: तारा देवी एवं राम बहादुर सिंह,
2 June 1986