बिहार में पर्दा प्रथा का विरोध: गांधी एवं रामनंदन मिश्र

स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी ने कई महत्वपूर्ण आन्दोलनों का नेतृत्व किया था और उनकी चर्चा बार-बार होती है। पर 1928 के आसपास बिहार में पर्दा प्रथा के खिलाफ उन्होंने जो आन्दोलन चलाया था, उसके बारे में शायद कम लोग जानते होंगे। मैं भी इससे वाक़िफ नहीं था।

पिछले सप्ताह मुझे जगजीवन राम पार्लियामेंट्री स्टडीज़ ऐंड पॉलिटिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट से प्रकाशित, ‘महात्मा गांधी और मैं’ पढ़ने का अवसर मिला। जाने माने स्वतन्त्रता सेनानी, रामनन्दन मिश्र रचित एक पुस्तक। इस पुस्तक में लेखक ने गांधी से अपने सम्बन्धों के अलावा उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला है।

अपने शुरुआती जीवन में रामनन्दन मिश्र कांग्रेस में सक्रिय थे। बाद में वो कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट हो गए। भारतीय सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य भी थे। कई वर्षों तक जेल में रहे। आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी। कांग्रेस सरकार की नीतियों का भी खुलकर विरोध किया। पर गांधी जी से उनके स्नेह और सम्बन्ध में कोई कमी नहीं आई।

उनकी पुस्तक, ‘महात्मा गांधी और मैं’, का प्रकाशन पहली बार उनके जीवन काल में ही हुआ था। उस समय इसका शीर्षक था ‘गांधी जी के संस्मरण’। 1989 में उनका स्वर्गवास हो गया। उसके बाद ये किताब इतिहास के पन्नों में खो सी गई थी। जगजीवन राम इन्स्टीट्यूट ऑफ पार्लियामेंट्री अफेयर्स और पोलिटिकल रिसर्च ने 2020 में पुनः प्रकाशित कर इसे एक नया जीवन दिया है।

1926 में गांधी जी के आह्वान पर रामनन्दन मिश्र ने अपनी पत्नी, राजकिशोरी देवी, को पर्दे से बाहर निकाल कर उन्हें शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। इसके लिए उन्हें अपने परिवार और समाज के बहिष्कार का सामना करना पड़ा। इस मुहिम के हरेक पड़ाव पर गांधी ने उनकी मदद की थी। राजकिशोरी देवी की पढ़ाई के लिए गांधी ने खासकर दो स्वयंसेविकाओं को साबरमती आश्रम, अहमदाबाद से बिहार के एक गांव में भेजा। इसी क्रम में गांधी के सबसे चहेते स्वयंसेवक, मगनलाल गांधी, की 1928 में पटना में मृत्यु हो गई। तब राजकिशोरी देवी को गांधी ने साबरमती आश्रम बुलवा लिया और आन्दोलन की बागडोर, गांधी के शब्दों में, ‘बिहार के तपे हुए सिपाही ब्रजकिशोर प्रसाद’ के हाथों में दे दिया।

पर्दा विरोधी आन्दोलन रामनन्दन मिश्र के लिए एक व्यक्तिगत लड़ाई में तब्दील हो गयी थी। गांधी के लिए ये व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक सब कुछ था। रामनन्दन जी के पिता को एक पत्र में साबरमती से गांधी ने 25 जनवरी 1927 को लिखा था:

“भाई राजेन्द्र प्रसाद जी मिश्र,

आपका सुपुत्र मेरे पास आया है और कहता है कि यद्यपि वह और उसकी धर्मपत्नी पर्दा छोड़ना चाहते हैं; आप उसका विरोध करते हैं। …………… मेरी तो सलाह है कि आप दम्पत्ति को अपने इच्छानुसार चलने दें। इस युग में पर्दा निभ नहीं सकता है, न आवश्यक है। प्राचीन समय में पर्दा की बुरी प्रथा न थी।

आपका
मोहनदास गांधी”

साठ के दशक से लेकर आज तक हुए बदलाव पर जब दृष्टि डालता हूं तो पाता हूं कि गांधी जी कितने सही थे। पर्दे की ये कुप्रथा, अब ‘निभ नहीं सकती’।

© अरुण जी, 01.11.20

Mokama Ghat: a discovery

Source: Lost Heritage of Bihar

In the British period there were several Ghats along the winding course of the river Ganga in UP, Bihar and West Bengal. They were used for the shipment of cargo and passengers across the river. They served as important links for trade and commerce. However such a Ghat would lose its importance as soon as a bridge was constructed across the river.

Mokama Ghat was one such Ghat in Bihar about which I had heard from the elders in my village, that is Mokama. It used to be a very thriving centre of transport in East India during the British period. Thousands of tons of cargo and passengers would be shipped everyday from there across Ganga to Simaria Ghat. A railway station, a port, several ships, a huge warehouse for the storage of goods and a large colony for accommodation of the railway officials (most of the senior officials were British) and workers existed at Mokama Ghat.

Just as it happens with the fate of any such Ghat, Mokama Ghat too became history as soon as its purpose was fulfilled by Rajendra Bridge, constructed across Ganga in 1959. Its docks, ships, the station, tracks— all disappeared over a period of time.

Even though the bridge was inaugurated in the same year in which I was born, I was a witness to the wiping away of the tracks and the other structures of Mokama Ghat. I saw it becoming a part of history. What remained with me were only some stories, myths or memories that could not be erased so easily. These included its association with the freedom movement or with some important persons like Jim Corbett, Ramdhari Singh Dinkar or Prafulla Chand Chaki.

I kept on wondering about this place over the years. The questions lurked in my mind how such a huge centre of transport worked? Who were the people who managed? While so many of them were the British, what were their experiences? Did anyone like Jim Corbett describe these experiences and has any of these been published? I tried to discover these through the various tools of the Google Engine like Gbooks, news, images etc. or through Wikipedia.

I found there was no article on Mokama Ghat on Wikipedia and except for Google books, it was traceless even on Google maps. I soon realized how such a thriving centre of activity was on the brink of extinction. I decided that I must create an article on Mokama Ghat on Wikipedia.

Reading and researching through more than 10 books on the net I could get some interesting facts about the place:

  1. Jim Corbett , the famous naturalist, writer and hunter had worked at Mokama Ghat railway station from 1893 to 1913 —- as a fuel inspector, transhipment manager and labor contractor. While staying in Mokama Ghat he would go for hunting the man eating tigers in the jungles of Uttarakhand from time to time. Later he joined the British army as a major in the first world war. He wrote several of his stories and books of adventure after retirement, from Kenya in Africa.
  1. Prafulla Chand Chaki was one of the revolutionaries of the freedom struggle who along with Khudiram Bose had thrown a bomb on a carriage in Muzzafarpur on April 30, 1908 in which a British lady and her daughter were killed. Prafulla Chaki was spotted at Mokama Ghat railway station after a few days and after a stand off with the police, he killed himself with his own revolver there. On the other hand Khudiram was arrested in Muzzafarpur and finally awarded death punishment.
  2. Ramdhari Singh Dinkar, the well known Hindi poet of India, was a student of Mokama Ghat railway high school.
  3. An author named Malabika Chakrabarti mentions the congestion at Mokama Ghat in May  1897 as one of the factors that impacted the supply of grains during the famous Bengal famine of 1896-97 in her book.

Many more questions are still lurking in the mind. Perhaps a lot more excavations are required to answer these questions.

You may click the following link to see a short piece that I wrote on Mokama Ghat on Wikipedia in 2012. 

http://en.wikipedia.org/wiki/Mokama_Ghat

फ्रेंसेस्का ऑर्सीनी से मेरा परिचय

श्रोत: डॉ बी आर अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली (वेबसाइट)

फ़्रेसेस्का ऑर्सीनी। कल तक इस नाम से मैं परिचित नहीं था। दो दिन पहले इनके बारे में मैंने ख़बर पढ़ा कि सरकार ने भारत में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी है। उन्हें उल्टे पांव या कहिए कि उल्टी उड़ान से लंदन विदा कर दिया गया। मुझे लगा कि अगर इस ख़बर में सचमुच कोई दम है तो इससे जुड़े विवरण अपने आप चलकर मेरे पास आ जाएंगे।

और कल सचमुच ऐसा ही हुआ। फेसबुक ने Pervaiz Alam का पोस्ट मेरे लिए परोस दिया। कमेंट बॉक्स में उन्होंने एक दो लिंक भी साझा किया है। पोस्ट को पढ़कर मैंने जब Cineink का यूट्यूब लिंक खोला तो फिर मैं सुनता ही रह गया।

अचला शर्मा से बातचीत में फ़्रेसेस्का ऑर्सीनी के व्यक्तित्व और कृतित्व का पता चलता है। हिंदी, उर्दू, अवधि जैसी अन्य कई दक्षिण एशियाई भाषाओं और उनके साहित्य का फ़्रेसेस्का ने गहन अध्ययन किया है। वह एक विदुषी हैं। भारत में रहकर उन्होंने पढ़ाई की है, शोध किया है। बहुभाषीय संस्कृति की समर्थक हैं। अपने आप को इलाहाबादी मानती हैं।

वह कहती हैं कि बचपन में अगर किसी ने पहले मगही सीखा, उसके बाद हिंदी और उसके बाद अंग्रेजी तो ये अच्छी बात है। जरूरत के हिसाब उसे तीनों का प्रयोग करना चाहिए। केवल एक ही के प्रयोग पर बल देना उचित नहीं है। (वैसे उनकी ये टिप्पणी मुझपर सटीक बैठती है)।

इसी तरह ट्रेन की हम प्रतीक्षा करें या उसका इंतज़ार, क्या फ़र्क पड़ता है। जिसे जो इच्छा हो वह उसका प्रयोग करे। दोनों के बीच एक विकल्प की बात पर ज़ोर देने से हमारी भाषा समृद्ध नहीं होगी। ऐसी बातें हमारी भाषा को कमज़ोर करती हैं। इस संदर्भ में उन्होंने अंग्रेजी के शब्दकोशों का उदाहरण दिया जिनमें हरेक कुछ वर्षों में दूसरी भाषाओं के शब्दों को शामिल किया जाता है।

एक समय था जब ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी अपने शब्दकोश को हरेक दस साल में अपडेट करती थी। वैसे आज भी वह कर रही है। देश और दुनियां में आज जितनी तेजी से बदलाव हो रहे हैं उसके हिसाब से हरेक साल नये शब्द शामिल किए जा रहे हैं। कॉलेज के दिनों में मुझे याद है कि एक बार ऑक्सफोर्ड ने ‘पराठा’ और ‘रायता’ जैसे शब्दों को शामिल किया था। और मैं ख़ुश था। चलो बच्चू अब हमारे शब्दों को तुम्हें लेना पड़ रहा है। पर अंग्रेजी तो समृद्ध हो रही थी। मतलब ये हुआ कि हिंदी में बोल-चाल वाले शब्दों को घटाने से हम अमीर नहीं, गरीब होते चले जाएंगे। चाहे वे किसी भी अन्य भाषा के शब्द क्यों न हों।

बिहार चुनाव और हरिशंकर परसाई

श्रोत: मेटा एआई

बिहार में जब-जब चुनाव आता है हमें हरिशंकर परसाई ख़ूब याद आते हैं। ख़ासकर उनकी कहानी ‘हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं’। बिहार चुनाव पर एक तीखा व्यंग। कहानी का एक अंश कुछ इस प्रकार है:

——-

चुनाव के समय गांव में एक भेड़िया प्रकट होता है। वह एक मेमने के पीछे चल पड़ता है। 

मेमने के पास पहुंचकर वह पूछता है, 

“तुमने मुझे पुकारा था?”

सहमा हुआ, डरा हुआ मेमना कहता है,

“मैंने तो मुंह ही नहीं खोला।”

भेड़िया कहता है, 

“तो मैंने तेरे हृदय की पुकार सुनी होगी।”

मेमने की तरह बिहार की जनता भी बार-बार यह कह रही है कि हमने तुम्हें नहीं पुकारा। हमें अपना उद्धार नहीं करवाना है। तुम क्यों हमारा भला करने पर उतारू हो?

——–

बरसों पहले हरिशंकर परसाई द्वारा लिखी यह कहानी आज भी कितना प्रासंगिक है इसे हम निम्नलिखित उदाहरण की मदद से समझने की कोशिश करते हैं: 

बिहार के एक निर्वाचन क्षेत्र में एक दुर्दांत अपराधी अभी-अभी जेल से निकला है। या यूं कहें कि उसे निकालकर भेजा गया है। एक समय अपराध की दुनियां में उसका नाम था। वह एक बड़े गैंग का सरगना हुआ करता था। कई लोगों की हत्याओं से उसका नाम जुड़ा है। पर धीरे-धीरे वह राजनीति की ओर मुड़ा। एक लम्बे समय तक या तो वह खुद या उसकी पत्नी इस क्षेत्र की एम एल ए रह चुकी है। उसने अपार संपत्ति अर्जित की। आज-कल वह जनता के बीच सफ़ेद परिधान में ढोल-नगाड़े के साथ घूम रहा है। वह अपने उम्र की ढलान पर है। पैदल चलने में उसे अपने अनुयाइयों के कन्धों की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन पत्रकारों के कैमरे जब उसके चेहरे पर केंद्रित होते हैं, तो मूंछ पर ताव देने लगता है। पत्रकार उससे पूछते हैं आंय तो वह जवाब देता है बांय।

विरोधी पक्ष ने उसके खिलाफ़ जिस उम्मीदवार को मैदान में उतारा है वह भी अपने समय का एक खूंखार अपराधी रह चुका है। एक बड़े गैंग का सरदार। दर्जनों हत्याओं में शामिल। उसने भी राजनीति में कदम आगे बढ़ा कर अकूत संपत्ति हासिल की है। वह भी इस क्षेत्र का एम एल ए, एम पी वगैरह रह चुका है और उसकी पत्नी भी।

इन दोनों उम्मीदवारों के बारे में गोस्वामी तुलसीदास की उक्ति, ‘को बड़ छोट कहत अपराधी’, बिल्कुल ठीक बैठती है। दोनों उम्मीदवारों के कार्यकाल में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मूल मुद्दे पर क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई है। इन मुद्दों पर ये बात भी नहीं करते हैं। हां, विकास के नाम पर मंदिर जरूर बने हैं। हाल में सरकार ने इस क्षेत्र में एक मंदिर बनवाने का जो आदेश दिया है वह निश्चित रूप से पहले उम्मीदवार के खाते में जाना चाहिए। क्योंकि निवर्तमान एम एल ए उसकी पत्नी है। उसी तरह दूसरे उम्मीदवार ने भी अपने गांव में ख़ूब जतन से एक मंदिर बनवाया है जिसमें समय-समय पर धार्मिक अनुष्ठान एवं भोज-भात होते रहते हैं। 

दोनों उम्मीदवारों के कार्यकाल में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मूल मुद्दे पर क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई है। इन मुद्दों पर ये बात भी नहीं करते हैं। हां, विकास के नाम पर मंदिर जरूर बने हैं। हाल में सरकार ने इस क्षेत्र में एक मंदिर बनवाने का जो आदेश दिया है वह निश्चित रूप से पहले उम्मीदवार के खाते में जाना चाहिए। क्योंकि निवर्तमान एम एल ए उसकी पत्नी है। उसी तरह दूसरे उम्मीदवार ने भी अपने गांव में ख़ूब जतन से एक मंदिर बनवाया है जिसमें समय-समय पर धार्मिक अनुष्ठान एवं भोज-भात होते रहते हैं। 

क्षेत्र की जनता पर बरसों से नायकत्व का एक नशा-सा सवार है। उसे लगता है कि उसका प्रतिनिधि एक ऐसा नायक हो जिसके केवल होने से ही उसकी सारी समस्याएं दूर हो जाए। वह भक्ति में लीन है। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को उसने भगवान के भरोसे छोड़ दिया है।

कहां महात्मा बुद्ध और कहां संत टरंम्प?

फोटो क्रेडिट: यादवेन्द्र

बुद्ध, मंटो एवं टरंम्प की कहानियां

पिछले सप्ताह यादवेन्द्र जी से बातचीत में मुझे पाकिस्तान की एक कहानी याद आ गई। बातचीत के संदर्भ के बारे में हम आगे बात करेंगे। पहले वो कहानी।

पाकिस्तान के सीमावर्ती गांव में एक चौपाल पर कुछ लोग जमा थे। परेशान थे यह जानकर कि भारत ने सिंधू नदी के पानी पर रोक लगा दी है। हालांकि ये केवल एक अफवाह थी। इसमें कोई सच्चाई नहीं थी। लेकिन वे इसे सच मानकर दुखी थे। वे सोच रहे थे कि उनके फसलों का क्या होगा? पानी के बिना उनकी खेती बर्बाद हो जाएगी। कुछ लोग इस बात पर क्रोधित भी थे।

उनके बीच नत्थू चौधरी नामक एक छुटभैया नेता बार-बार भारत को गाली दिए जा रहा था।

तभी करीम नामक एक हट्टा-कट्टा व्यक्ति अचानक चौधरी के सामने उठ खड़ा हुआ। उसने ऊंची आवाज़ में कहा:

गाली मत दे चौधरी।

चौधरी पहले तो थोड़ा सहमा। फिर संभलकर वह बाकी लोगों की ओर मुड़ा और उन्हें सम्बोधित करते हुए कटाक्षपूर्ण लहज़े कहा,

देखो भाइओ, इसे भारत से कितना प्रेम है!

करीम की ओर देखकर पूछा,

क्यों नहीं दूं मैं गाली? वे तुम्हारे क्या लगते हैं?

करीम ने कहा कि वे हमारे दुश्मन हैं?

इसपर नत्थू ने पूछा कि तो फिर क्यों उनका बचाव क्यों कर रहे हो?

करीम का जवाब था कि दुश्मन को गाली देना या उसे कोसना हमारी कमज़ोरी की निशानी है। हम ऐसा तब करते हैं जब हमारे पास कोई विकल्प नहीं बचता। हमारा दुश्मन हमारे ख़िलाफ़ किस तरह के हथियार का प्रयोग करे। ये हम तय नहीं कर सकते। ये उसकी मर्जी है। पानी रोके या कुछ और करे। वह अपनी जगह पर सही है। हम उसे नहीं रोक सकते।

हमें उसके जवाब में सही हथियार के प्रयोग का विकल्प ढूंढना चाहिए। अपने दुश्मन को हम ये नहीं कह सकते कि हमारे ऊपर तुम बड़े बम क्यों गिरा रहे हो? या धारदार हथियार का उपयोग क्यों कर रहे हो? वैसे भी वह हमसे पूछकर कुछ नहीं करेगा। हमें उसका सही जवाब देना चाहिए। गाली नहीं। यह तो सरासर बेवकूफ़ी है।

यह एक काल्पनिक कहानी है जिसे प्रसिद्ध कथाकार मंटो ने भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय लिखा था। पर इस वर्ष मई के महीने में ऐसा लगने लगा कि ये सच का रूप धारण करने वाली है। भारत और पाकिस्तान दोनों सचमुच में युद्ध के कगार पर पहुंच चुके थे। और दोनों के बीच सिन्धु नदी के जल बंटवारे का मुद्दा सुर्खियों में था। सौभाग्य से युद्ध टल गया।

लेकिन इसके साथ ही अमरीका के राष्ट्रपति डॉनाल्ड ट्रंप ने घोषणा कर दी कि युद्ध विराम उन्हीं के प्रयासों का फल है। ये बात वे आज भी बार-बार कह रहे हैं। इस आधार पर वे नोबेल शांति पुरस्कार विजेता बनने की राह पर चल पड़े हैं। शायद पुरस्कार उन्हें मिल भी जाए।

ट्रम्प साहब ने युद्ध रुकवाया या नहीं ये तो पता नहीं। पर उस दिन यादवेन्द्र ऐसी ही एक कहानी का जिक्र कर रहे थे जिसमें महात्मा बुद्ध ने एक युद्ध रुकवाया था। और वह भी नदी के जल बंटवारे से जुड़ी है।

लगभग 2500 वर्ष पूर्व रोहिणी नदी के दोनों तटों पर दो गणराज्य बसे थे। कपिलवस्तु और रामग्राम। वैसे तो आज भी रोहिणी नदी के दोनों ओर ये मौजूद हैं। पर वे कोई गणराज्य नहीं, बल्कि नेपाल देश की सीमा का हिस्सा हैं।

उस वक्त दोनों गणराज्यों के लोग रोहिणी के जल का उपयोग रोज़मर्रा की जरूरतों के अलावा सिंचाई, खेती वगैरह के लिए किया करते थे। नदी के जल को लेकर कपिलवस्तु और रामग्राम में विवाद की स्थिति बनी रहती थी। एक बार दोनों गणराज्य जब युद्ध के कगार पर पहुंच गए तो बुद्ध ने दोनों के बीच समझौता करवाया। उन्होंने युद्ध को टालने में मदद की थी।

बुद्ध की इसी कहानी के सच की खोज में भारत से साहित्यकारों का एक दल आजकल नेपाल में रोहिणी नदी की यात्रा पर हैं। यह दल रोहिणी के उद्गम से लेकर उसके साथ साथ एक लम्बी यात्रा तय करेंगे। यादवेन्द्र भी इस दल में शामिल हैं। पिछले सप्ताह यादवेन्द्र की इसी कहानी से मुझे सिन्धु जल विवाद से जुड़ी मंटो की कहानी का स्मरण हुआ।

कभी कभी लगता है कि कल्पना से सच्चाई का रिश्ता भी अजीब है। कौन सी कहानी कब सच दिखाई पड़ने लगे और कौन सी सच्चाई कब कल्पना में परिवर्तित हो जाए, कहना मुश्किल है।

मंटो की सिंधु जल बंटवारे की कहानी 70 वर्षों से भी ज्यादा पुरानी है। पर इस वर्ष वह सच के काफ़ी क़रीब दिख रही थी। उसी तरह बुद्ध की हज़ारों वर्ष पुरानी कहानी अब हमारी कल्पना का हिस्सा है। पर उस कल्पना लोक में विचरण करना हमें कितना अच्छा लगता है।

एक और विचार। मान लीजिए कि डॉनल्ड ट्रम्प को भारत-पाकिस्तान युद्ध रुकवाने के आधार पर इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार मिल जाता है। और आज से पचास या सौ साल बाद उनके अनुयाई उन्हें एक महान संत के रूप में स्थापित कर देते हैं। उसके कुछ और वर्षों बाद उनके अनुयाइयों का एक दल भारत पाक सीमा पर सिन्धु नदी की यात्रा पर जाएं और संत ट्रम्प के इस महान कृत्य की गाथा गाएं।

पटना की एक कॉलोनी में सबके अपने-अपने आम

एक दिन आशियाना नगर के चौक पर मुझे रामाश्रय सिंह गौतम मिले। पेशे से डॉक्टर हैं। उम्र में मुझसे बड़े। हमलोग उन्हें डॉ गौतम के नाम से जानते हैं। वे पार्क से लौट रहे थे। और मैं वहीं सैर के लिए जा रहा था। अच्छा संयोग था। नहीं तो प्रायः हमारी मुलाकात नहीं हो पाती है। वह जल्दी वाले हैं। और मैं हूं थोड़ा लेट लतीफ़।

मैंने उन्हें गुड मॉर्निंग कहा। फिर उनके आम के पेड़ की ओर इशारा कर बताया कि आपका यह पेड़ बहुत सुंदर दिखता है। चौक से उनका घर बिल्कुल पास है। केवल बीस कदम की दूरी पर। उनका पेड़ वहीं से दिखाई पड़ता है। घर की शान में सीधा खड़ा।

पेड़ का जिक्र होते ही वे उदास हो गये। उन्होंने कहा, अरुण जी, क्या कहूं? इस बार हमारे पेड़ पर मंजर नहीं आये हैं। इसके रसीले फलों से इस बार हमें वंचित होना पड़ेगा। मैंने भी गौर किया कि सचमुच उनके पेड़ पर मंजर नहीं दिख रहे थे।

अप्रैल का पहला सप्ताह था। आशियाना नगर के ज्यादातर पेड़ों पर मंजर आ चुके थे। कुछ ऐसे जरूर थे जिन पे इस बार मंजर या तो कम थे या बिल्कुल नहीं। आम के पेड़ पर आने वाले फूलों को ही मंजर कहते हैं। इन फूलों के नहीं आने का दर्द मेरे अंदर भी था। हमारे घर के सामने भी आम के पेड़ हैं। हमें मालूम है कि फूल नहीं तो फल नहीं।

मैंने बात बदलते हुए उनसे कहा कि आप ऐसा क्यों समझते हैं कि आपके पेड़ की उपयोगिता केवल फल तक ही सीमित है। यह आपको छाया देता है। इसके कारण आपके घर के आसपास का तापमान कम रहता है। यहां पक्षियों का बसेरा है। वे रोज अपनी चहचहाहट से आपके घर को गुलज़ार रखते हैं। अपने मधुर गीतों से वे रोज़ एक नये दिन का स्वागत करते हैं। पेड़ के और भी कई फायदे हैं। इस वर्ष फल नहीं खाने को मिलेगा तो क्या हुआ? फल तो आप खरीदकर खा सकते हैं। पर इन फायदों को आप पैसों से नहीं खरीद सकते।

ये सारी बातें मैंने कुछ सोच-समझकर नहीं कहे थे। वे मेरे मुंह से अचानक निकल गये। वैसे भी मैंने उन्हें कोई नयी बात नहीं बताई थी। वे खुद जानकार व अनुभवी व्यक्ति हैं। पर सुनकर वे काफी खुश हुए। उनका चेहरा खिल उठा। मुझे धन्यवाद कहकर अपने घर की ओर चल पड़े।

अगली सुबह जैसे ही पार्क में पहुंचा, उन्होंने मुझे अपनी ओर बुलाया और कहा कि मैं उनके साथ उनके घर चलूं। मुझे थोड़ा अजीब सा लगा कि अभी अभी मैं मॉर्निंग वॉक के लिए आया हूं, पता नहीं ये मुझे किसलिए घर लेकर जा रहे हैं? फिर भी मैंने कुछ पूछा नहीं। बस उनके साथ हो लिया। वहां पहुंचकर उन्होंने मुझे अपने पेड़ से मिलवाया। उसपर लगे झूले पर बिठाया। और आम के उस पेड़ से जुड़ी कुछ कहानियों को साझा किया। पेड़ के सानिध्य में उन बातों को सुनना मुझे अच्छा लग रहा था।

रामाश्रय सिंह गौतम अपने पेड़ के सानिध्य में (फोटो क्रेडिट: अरुण जी)

आम के पेड़ से लगाव के ऐसे किस्से पटना के आशियाना नगर में खास हैं। यहां आपको कई उदाहरण मिलेंगे जिनमें लोगों ने अपने घरों के अंदर आम के पेड़ों को जगह दी। उन्हें सींचा। उनकी देखभाल की। गर्मी के मौसम में उनके फलों को तोड़कर ख़ुद भी खाया। दूसरों को भी खिलाया। अपने पेड़ों पर उन्हें गर्व है। आप उनसे बात करें तो उनके पास उन पेड़ों से जुड़ी रोचक कहानियां मिलेगीं। फलों के प्रकार, उनके स्वाद, उनके इतिहास के बारे में।

लगभग पचास एकड़ में फैले, चारों ओर बाउंड्री वॉल से घिरे इस नगर में प्रवेश के तीन गेट हैं। अन्य सुविधाओं में यहां पार्क, कम्यूनिटी हॉल वगैरह हैं। पर सबसे महत्वपूर्ण यहां आम के कुल 235 पेड़ हैं। पेड़ों की यह संख्या मुझे मिली सुधीर कुमार सिंह से। पिछले सप्ताह उन्होंने पूरे नगर का दो बार चक्कर लगाया और हरेक पेड़ की गिनती की। सुधीर जी नगर के पूर्वी हिस्से में रहते हैं। अपने घर के सामने उन्होंने भी एक पेड़ लगाया है।

1986 में आशियाना नगर की स्थापना के बाद की जो पीढ़ी यहां बसने आई उनमें पेड़ों के प्रति खास प्रेम रहा। अपने घरों में या बाहर पेड़ों को उन्होंने इसलिए नहीं लगाया क्योंकि उनके बारे में किताबों में पढ़ा था। या पेड़ों से प्रेम करने के लिए उन्हें स्कूलों में सिखाया गया था। बचपन से वे एक ऐसी संस्कृति का हिस्सा रहे जिन्हें पेड़ों से लगाव रहा।

नगर के पश्चिमी हिस्से में गेट नंबर 3 वाली सड़क पर उर्मिला जी का घर है। वह सरकारी स्कूल में अध्यापिका थीं। उनका परिवार आशियाना में 1993 में शिफ्ट हुआ। पति श्रीकांत जाने-माने लेखक व पत्रकार हैं। उर्मिला जी बताती हैं कि शुरू के दिनों में यहां से आशियाना मोड़ जाने के लिए रिक्शा मुश्किल से मिलता था। दो किलोमीटर की दूरी प्रायः उन्हें पैदल तय करना पड़ता था। उस समय गेट नंबर वन से थोड़ा आगे दाहिनी ओर एक डाकघर हुआ करता था। डाकघर से रामनगरी के रास्ते में ऐसे कई घर थे जिनमें आम के पेड़ लगे थे। गर्मी के दिनों में फलों से लदे, मच्छरदानी से ढके वे उन्हें काफी आकर्षित करते थे। उनसे प्रेरित होकर उन्होंने भी अपने घर में दो आम्रपाली नस्ल के पेड़ लगाए। उनमें से एक को जगह की कमी के कारण हटाना पड़ा। पर दूसरा उन्हें प्रत्येक वर्ष रसीले फलों का उपहार प्रदान करता है। उन्हें वो दोस्तों, रिश्तेदारों में बांटती रहती हैं। 

उर्मिला जी की बेटी एकता आर्किटेक्ट है। उसने 2013 में घर के रेनोवेशन के दौरान इस बात का खास ख़्याल रखा कि आम का वो पेड़ बचा रहे। रेनोवेशन के बाद घर का पूरा नक्शा बदल गया। लेकिन पेड़ घर के बीचोबीच अपनी जगह पर खड़ा है। उर्मिला जी के घर का यह नया डिज़ाइन आशियाना नगर में भवन निर्माण का बेहतरीन नमूना है। उसकी सुंदरता के कई आयाम है। पर सबसे महत्वपूर्ण यह कि इसमें किसी पेड़ की बलि नहीं चढ़ी।

आशियाना में पेड़ के संरक्षण की एक और कोशिश के बारे में जानकारी दी बैद्यनाथ प्रसाद ने। बैद्यनाथ प्रसाद आशियाना के पुराने निवासी हैं। 1987 से यहां रह रहे हैं। उनका घर पार्क नंबर 1 के दक्षिण पूर्वी कोने पर स्थित है। पेशे से इंजीनियर हैं। उन्होंने बताया कि उनके सामने अरुण ठाकुर के घर में निर्माण के दौरान आम के पेड़ को कोई क्षति नहीं पहुंची। अरुण ठाकुर के यहां पेड़-पौधों की पूरी देखभाल उनकी पत्नी अनीता ठाकुर करती हैं। घर के पीछे एक शेड के निर्माण के दौरान अनीता जी ने आम के पेड़ से छेड़छाड़ नहीं होने दी।

बैद्यनाथ प्रसाद के अपने घर में चार आम के पेड़ थे। अब दो बचे हैं। एक पेड़ को उन्होंने शुरू में ही हटा दिया था। पर दूसरे को वे हटाने के पक्ष में नहीं थे। उसके साथ उनका बहुत लगाव था। उसे वह पूर्णियां से लेकर आये थे। घर के विस्तार के दौरान पिछले साल जब उसकी बलि चढ़ी तब वे उसके पक्ष में नहीं थे। उसके ठीक बाद वे डेंगू से पीड़ित हो गये और पेड़ के जाने का ग़म उन्हें सताता रहा।

बैद्यनाथ प्रसाद अपने दोनों पेड़ों के बीच, (फोटो क्रेडिट: अरुण जी)

वैसे आज भी उनके घर में आम के दो बड़े बड़े पेड़ हैं। उन दोनों की घनी छाया के बीच एक सुंदर सा झूला लगा है। आस-पास और कई पौधे लगे हैं। उनकी सफाई और सुन्दरता को देखकर जब मैंने उनसे कहा कि वाह, आप इन सब की अच्छी देखभाल कर रहे हैं। उनका जवाब था, ये कमाल मेरा नहीं, रेणु प्रसाद एवं तृष्णा का है। पेड़-पौधों की देखभाल में हमारे यहां इन्हीं दोनों का योगदान है। रेणु प्रसाद बैद्यनाथ प्रसाद की जीवनसंगिनी हैं। तृष्णा उनकी पुत्रवधू जो मैनेजमेंट में पीएचडी हैं एवं पटना के एक कॉलेज में लेक्चरर के पद पर कार्यरत।

गेट नंबर 2 के पास रागिनी जी का घर है। उनके पति सुधीर कुमार इंजिनियर हैं। जैसे ही आप उनके हाते में दाखिल होते हैं सामने आपके स्वागत में खड़ी मिलती है मल्लिका। रागिनी जी इसे 2013 में लेकर आई थीं। गर्मी के दिनों में पत्तों और फलों से आच्छादित मल्लिका अभी जवानी की दहलीज़ पर खड़ी है।

रागिनी जी सालों-साल पति की नौकरी के सिलसिले में अलग-अलग शहरों में रहीं। लेकिन जब कभी भी वह यहां आतीं तो उन्हें पड़ोसियों के घरों में लगे आम के पेड़ लुभावने लगते थे। पति के अवकाश प्राप्त करने के बाद जब वो यहां आईं तो सबसे पहले उन्होंने लगाया यह पेड़। मल्लिका। रागिनी जी को पेड़-पौधों से काफी लगाव है। अपने किचन गार्डन में प्रायः कुछ नये नये प्रयोग करती रहती हैं। आजकल उन्होंने एक लीची का पेड़ लगाया है।

गेट नंबर 2 से प्रवेश करने पर क़रीब पचास मीटर बाद पूरब की ओर जो सड़क मंदिर के लिए मुड़ती है उसी के कोने पर एक घर है। आजकल उसमें हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता योगेश चन्द्र वर्मा रहते हैं। क़रीब बीस वर्ष पहले उसकी निचली मंजिल के पिछले हिस्से में एक किरायेदार रहती थीं। नाम था बिमला सिन्हा। हमलोग उन्हें बीमो दी कहकर पुकारते थे। उनके पति शरदचंद्र चिकित्सक हैं। नौकरी के सिलसिले में अलग-अलग शहरों में रहते थे। इसलिए बीमो दी उन दिनों अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए पटना में रह रही थीं।

उस घर में दो आम के पेड़ थे। मकान मालिक/मालकिन की अनुपस्थिति में पेड़ों की देखरेख बीमो दी ही करती थीं। गर्मी की छुट्टियों में जब हम राजकोट (गुजरात) से आशियाना आते तो उन पेड़ों के फलों का स्वाद चखने को मिलता था। बेटी मेधा पेड़ों से नीचे झूलते हुए फलों को देखकर काफी आकर्षित होती थी। एक बार उसने एक पके हुए आम को अपने हाथों से तोड़ा था। मेधा उस समय छोटी थी। पर यह उसके लिए एक बड़ी बात थी।

अस्सी के मध्य में जब लोग आशियाना में बसने लगे तब यातायात के साधनों का यहां सर्वथा अभाव था। आशियाना से दीघा लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर है, गंगा के किनारे। उस वक्त आशियाना दीघा रोड की स्थिति बहुत ख़राब थी। 88-89 के दौरान एक बार हमें रिक्शे में कुर्जी अस्पताल (दीघा) जाने का अवसर मिला था। याद है कि हमें कितने हिचकोले खाने पड़ते थे। पर दीघा के पास पहुंचते ही हमारी थकान दूर हो जाती थी। वहां आम के बगीचों को देखकर हमें बड़ा सुकून मिलता था। दुधिया मालदह के ढेर सारे बाग थे।

आनेवाले वर्षों में जैसे जैसे इस इलाके में नई कॉलोनी व नगर बसते गए, यातायात की सुविधाओं में वृद्धि होती गई। मनुष्य का आना-जाना बढ़ता गया और आमों के वे बाग सिकुड़ते चले गए। अब वे केवल दो जगह सिमट कर रह गए हैं। एक सेंट जेवियर्स कॉलेज के कैम्पस में और दूसरा सदाकत आश्रम के अहाते में। हालांकि सेंट जेवियर्स कॉलेज में उनकी संख्या अब बहुत कम है। पिछले कुछ वर्षों में कॉलेज का विस्तार हुआ। और बहुत सारे पेड़ इस विस्तार के शिकार हो गए। सदाकत आश्रम में भी पेड़ों के भविष्य पर खतरा मंडरा रहा है।

दिलचस्प है कि जिस समय दीघा के बागानों के सिकुड़ने की शुरुआत हुई उसी समय आशियाना नगर में इन पेड़ों के लगने का आरम्भ भी। यही वो समय था जब आशियाना नगर में लोग अपने घरों में या उसके आसपास आम का वृक्षारोपण कर रहे थे। हालांकि दीघा के उन बागानों के अनुपात में यहां पेड़ों की संख्या नगण्य है।

पर एक कॉलनी के रूप में अगर देखें तो आज भी आशियाना नगर में आम के पेड़ों की संख्या अच्छी है। अन्य पेड़ों की भी। पटना की अन्य कॉलोनियों की अपेक्षा काफी अधिक। यही कारण है कि यहां शहर के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा प्रदूषण का असर कम है।

सवाल यह है कि यह स्थिति यहां कितने दिनों तक बनी रहेगी? क्योंकि पिछले कुछ सालों में भवन निर्माण में तेजी से हो रहे बदलाव के कारण यहां कुछ पेड़ों की कटाई भी हुई है, जो चिन्ता का विषय है। अगर भवन निर्माण की इस नयी प्रवृत्ति, जिसमें हम पेड़ों से दूरी बनाते जा रहे हैं, का इसी तरह फैलाव होता गया तो इस नगर की सबसे बड़ी विशेषता से हम वंचित होते चले जाएंगे। फिर यह एक खास नगर नहीं, बल्कि पटना का एक आम नगर बनकर रह जाएगा।

नगर के कुत्ते

Source: Meta AI

हमारे नगर में आजकल कुत्तों का प्रकोप बढ़ रहा है। हर गली में यहां आपको दो-चार मिल जाएंगे। अलग-अलग रंगों के कुत्ते। उजले, काले, लाल, चितकबरे।

वैसे मैं पालतू कुत्तों की बात नहीं कर रहा। अपने मालिक के टुकड़ों पर पलने वाले उन कुत्तों की बात अलग है। प्रकोप तो नगर में उनका भी है। उनके मालिक प्रायः मार्निंग वॉक में सैर करते हुए उन्हें जंजीरों में बांध कर घूमते हैं। इसलिए उनसे खतरा कम है। लेकिन नगरवासियों को उनके मल-मूत्र को झेलना पड़ता है। कुत्तों के मालिक अपने टामी, राकी, टाइगर (जो भी नाम हो) के मल-मूत्र त्याग के लिए नगर के सड़कों का अधिकारपूर्वक प्रयोग करते हैं। यही अगर कोई दूसरा बड़ा शहर होता तो लोग अपने कुत्ते के पॉटी को उठाने के लिए कोई पॉलिथिन बैग वगैरह का इंतजाम रखते।‌ पिछले सप्ताह मैंने बेंगलुरु के एक सोसायटी में देखा कि सुबह-सुबह लोग कुत्तों को सैर कराते हुए आराम से पॉटी उठा रहे थे। डेढ़ वर्ष पहले जब पेरिस में था तो वहां के लोग इसके लिए और भी सजग दिखे। खैर, हम पटना को बेंगलुरु या पेरिस नहीं बना सकते पर सफाई के प्रति अपनी जिम्मेदारी तो बढ़ा ही सकते हैं। कम-से-कम अपनी सोसायटी में तो जरूर।

वैसे पालतू कुत्तों से भी ज्यादा हमें परेशानी है गली के कुत्तों से। हरेक गली में उनका चार-पांच का एक समूह है। उस समूह का प्रमुख एक कुत्ता, बाहुबली टाइप होता है। बाकी के कुत्ते, कुत्तियां उसका अनुसरण करते हैं। प्रायः ये नगर के लोगों को पहचानते हैं। इसलिए उनपर नहीं भौंकते। उन्हें तंग नहीं करते हैं। पर एक गली ऐसी है जिसका बाहुबली नगर के लोगों को भी नहीं बख़्शता। उस गली से गुजरने वाले कुछ नगरवासियों को उसका प्रकोप झेलना पड़ा है। कुछ लोगों को उसने केवल भौंककर डराया ही नहीं, बल्कि काटा भी है।

मेरा भी दो-तीन बार उससे सामना हुआ है।‌ पहली बार तब जब मैं साइकिल से सुबह में चक्कर लगा रहा था। उसने मेरी ओर देखकर भौंकना शुरू कर दिया। अंदर से तो मैं डर गया था। क्योंकि उसके भौंकने और काटने की कहानियां मैंने सुन रखी थी। फिर भी साइकिल रोककर मैं उतर गया। और उसकी ओर देखकर डांटने लगा।

ये क्या बदतमीजी है। मैं तुम्हें कोई बाहरी दिख रहा हूं क्या? ये ग़लत बात है। मैं तुमसे डरने वाला नहीं हूं।

मेरे इस तेवर को देखकर वह चुप होकर पीछे हट गया। शायद उसे जवाब मिल गया था। भौंकने का जवाब भौंकना। अगली सुबह से जब भी मैं उधर से गुजरता तो वह मुझे नजर अंदाज कर देता था। ऐसा लगातार करीब एक महीने तक चलता रहा। पर कुछ समय बाद एक दिन फिर जब मैं साइकिल से जा रहा था तो फिर उसने भौंकना शुरू कर दिया। मेरा तरीका फिर वही था। मैं उतर कर उसे डांटने लगा। और वह चुप। खैर, उसके बाद से शायद वह मुझे पहचान गया है। लेकिन उधर से गुजरते वक्त मैं अभी भी सशंकित रहता हूं। कि पता नहीं कब भौंकना शुरू कर दे या काट ले?

इन घटनाओं के बारे में जब मैं सोचता हूं तो लगता है कि आखिर उस कुत्ते को मुझसे क्या परेशानी हो सकती है? क्या उसे मेरी साइकिल से चिढ़ है? उसे लगता होगा कि नगर के सभी लोगों के पास तो कार है। ये साइकिल वाला कहां से आ गया? जरूर ये कोई बाहरी है? उसे शायद मेरे हेलमेट से भी चिढ़ हो सकती है। लगता होगा कि हेलमेट तो मोटरसाइकिल के लिए होता है। ये साइकिल पर हेलमेट पहनकर कौन बेवकूफ आ गया? भगाओ इसे यहां से।

लगता है कि आदमी की मानसिकता भी तो यही है। नयापन हमें स्वीकार्य नहीं। चाहे वो कोई चीज हो, तरीका, वेश-भूषा या कोई नया व्यक्ति। हमें सबकुछ अपने जैसा चाहिए। अपरिचित, अलग को स्वीकारने में समय लगता है। उन्हें देखकर हम घूरते हैं। भौंकते हैं। या कभी कभी काट खाने को दौड़ते हैं।

सिक्योरिटी चेक

फोटो क्रेडिट: विकिमीडिया फाउंडेशन

हमारे सामान को चुपचाप ढोनेवाले
सूटकेस और बैग की ऐसी दुर्गति
ओह, देखकर दिल दहल गया
पता नहीं उन बेचारों के साथ ही
एयरपोर्ट पर बार-बार ऐसा क्यों होता है

हमें तो देखकर, छूकर, टटोलकर,
पूछकर छोड़ दिया गया पर
उन्हें एक भारी-भरकम मशीन के पास जाकर
अपनी हाजिरी लगानी पड़ी
देने पड़े उन्हें इस बात के सबूत
कि वे पूर्ण रूप से निर्जीव हैं
शेष नहीं है उनमें कोई जीव
और उसके खतरे

फिर उन्हें हमसे बिल्कुल अलग
दूर किसी गुफ़ानुमा जगह में
धकेल दिया गया
तीन घण्टे बाद जब वे हमसे मिले
धूलधूसरित, बदरंग
पट्टियों में लिपटे
तो वे हांफ रहे थे 
देखते ही हमने उन्हें गले लगाया
और चल पड़े हम साथ-साथ

बोकारो बसे मेरे मन में

Credit: DPS Bokaro

22 दिसंबर, रविवार का दिन। सुबह सुबह मेरी नींद खुली चिड़ियों के कलरव से। उठा तो अहसास हुआ कि पटना के चिल्ल-पों से दूर मैं अपने पुराने शहर बोकारो में हूं। महेश मामू-शर्मिष्ठा मामी के घर।

पिछले शाम ही वहां पहुंचा था। डीपीएस बोकारो के पहले बैच के स्टुडेंट्स के पुनर्मिलन समारोह में शामिल होने। 1991 में उस बैच ने डीपीएस से बारहवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की थी। दो वर्षों तक (1989-1991) मैं उनका अंग्रेजी अध्यापक था।

झटपट उठकर मैं बाहर आया और सुनने लगा पक्षियों का आर्केस्ट्रा। घर के अहाते में आम के पेड़ पर कोयल का गायन। सामने पार्क की एक पेड़ की फुनगी पर बैठी चिड़ियों की तान। वाह, क्या जुगलबंदी थी! कुछ देर तक सुनता रहा। सोचता रहा कि क्या यह पटना जैसे शहर में संभव है? क्या पेड़, पक्षी और मनुष्य वहां आनंदपूर्वक एक साथ जीवन बिता सकते हैं?

अपने जीवन के तीसरे दशक के लगभग नौ साल मैंने बोकारो में गुजारे थे। डीपीएस में नौकरी के सिलसिले में। पिछली शाम से ही मैं बोकारो की उन धुंधली पड़ती स्मृतियों को झाड़ने, पोछने में लगा था। शहर का भूगोल, जगहों के नाम, लोगों के चेहरे, उनसे जुड़े किस्से। धीरे-धीरे सब याद आ रहे थे।

सुबह नौ बजे मुझे डीपीएस पहुंचना था। समारोह में शामिल होने। तैयार होकर मैं निकल पड़ा। रास्ते में कार से उचक उचक कर देख रहा था कि सेक्टर वन की कौन सी सड़क स्कूल जाने के लिए कहां मुड़ती है। सेक्टर फोर पहुंचने पर केन्द्रीय विद्यालय, डीएवी होते हुए बायीं ओर मुड़कर हम स्कूल पहुंचे। रोटरी स्कूल कब निकल गया, पता ही नहीं चला।

Credit: DPS Bokaro

स्कूल में प्रिंसिपल गंगवार गर्मजोशी से अपने चेम्बर में मिले। उस चेम्बर से मेरी बहुत सारी यादें जुड़ी हैं। डॉ एम एस त्यागी के जमाने की। एक बार डॉ त्यागी से छुट्टी की स्वीकृति के बिना मैं दो दिनों के लिए पटना चला गया था। मेरे पीएचडी का साक्षात्कार था। ये 1993 की बात है। अगले दिन सुबह सुबह जब स्कूल पहुंचा, तो अभिमन्यु ने आकर मुझसे कहा: प्रिंसिपल सर आपको बुला रहे हैं। मेरे तो चेम्बर पहुंचने के पहले पसीने छूटने लगे। अन्दर प्रवेश करते ही डॉ त्यागी ने अपनी कड़क आवाज़ में मुझसे सवाल किया: आपने ऐसा क्यों किया? मेरे पास सॉरी कहने के अलावा और कोई जवाब नहीं था। खैर, मुझसे सॉरी सुनकर तुरत उनका गुस्सा उतर गया और उन्होंने मुझसे जाने को कहा। गंगवार के साथ उस चेम्बर में बैठकर बातें करते हुए ऐसे और भी दिलचस्प वाकये याद आ रहे थे।

Credit: DPS Bokaro

पुराने सहकर्मियों में शीला राय शर्मा और महापात्रा जी से भेंट हुई। शीला मैम का अंदाज़ आज भी वही है। सोशल साइंस पढ़ाने की उनकी यात्रा भी जारी। हिंदी और अंग्रेजी साहित्य से उनका लगाव पहले से ही था। आजकल कहानियों और कविताओं की रचना कर रही हैं। उनकी कहानियों के संकलन का शीर्षक है ‘खिड़की’। इसमें उन्होंने आज के समाज में तेजी से हो रहे बदलाव और उससे उत्पन्न विडंबनाओं को सुन्दर ढंग से चित्रित किया है।

महापात्रा जी के अपने किस्से ही काफी दिलचस्प हैं। अगर आपके पास समय हो तो आप देर तक उनकी बातों को सुन सकते हैं। पुराने लोगों में एक और व्यक्ति जो मौजूद था वह था अभिमन्यु। सरल, सौम्य व्यक्तित्व एवं चिर-परिचित मुस्कान।

देश के अलग-अलग हिस्सों से आए 91 बैच के विद्यार्थियों से मिलने का अनुभव खास था। नितिन, मृत्युंजय, प्रणव, जया, अमरेश, सुमित, मनोज, अनुपमा, तुषार, सुश्मिता, रंजन, गौतम, संजू, आशीष, सभी अपने-अपने पेशे में अनुभवी और निपुण हैं। उन्हें देखकर, उनसे मिलकर गर्व का अनुभव हुआ। सुमित की पत्नी डॉ वारिजा की कविता, ‘लिखूं कि ज़िन्दगी तुम्हारे बाद तुम्हें याद करे’, काफी अर्थपूर्ण थी। और उनके द्वारा उसका पाठ भी उतना ही मधुर। वैसे तो इस बैच के सभी लोगों की बातों को सुनना अच्छा लग रहा था। पर मनोज के किस्से लाजवाब थे। उसने हमें खूब हंसाया। मेरी तो हंसी रुक ही नहीं रही थी। पेशे से मनोज एक डॉक्टर हैं। लेकिन मुझे लगता है कि उनमें एक स्टैंडअप कॉमेडियन के सारे गुण मौजूद हैं।

लगभग 25 वर्षों के बाद इस मिलन के अनुभव को व्यक्त करना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। इसलिए जब मुझे स्टेज पर बुलाया गया तो मैंने शब्दों को जोड़-तोड़ कर कुछ इस तरह कहा:

Thirty five years ago
Destiny chose this place
For you and I
To meet exchange and grow

For two long years  
In the classroom
In the corridors
In the campus
On the grounds
Days after days

With boredom, pleasure or pain
In the sunshine or in the rain
There was a lot of churning
You and I both
Kept on learning, learning and learning

Then came the time
When in order to chart
A new course in your career
You had to move to a new location
You had to begin a new chapter
We said goodbye to each other
And we parted

Thirty three years after that parting
When we are meeting once again
I am trying to figure out 
If I am the same as I was then
And if you are the same as you were then

Probably we are partly the same
And partly we are not the same
Our memories of people, places
Days and moments
May have remained the same
But we all have changed
After all these years
Each one of us
Is a different being today

On the occasion of this celebration
I must say
That today it is both
A reunion of memories
And a union of new beings
———————————-

यादों की इक बारात
आई है ढूंढ़ने
उन बेंचों, कुर्सियों, दीवारों, सीढ़ियों
उन ध्वनियों, चेहरों, गीतों और गलियों को
दौड़ती हुई उन सांसों को
अनगिनत उन बातों को

पर यहां तो खंडहर है
यादों का एक खंडहर
कहां है बचा अब कुछ भी यहां

बचे हैं तो बस
कुछ क़िताबों की गंध
कुछ बिखरे हुए पन्ने
स्याही की बूंदें
गीतों की गूंज
खेलों की प्रतिध्वनियां
———————

Credit: DPS Bokaro

गंगवार जी के नेतृत्व में सम्पन्न यह समारोह शानदार रहा। स्वागत से लेकर कार्यक्रम का हरेक पक्ष सराहनीय था। शिक्षक-शिक्षिकाओं, बच्चों एवं गंगवार जी समेत उनकी पूरी टीम को हार्दिक बधाई और आभार।

बहुत सारे परिचित स्थानों जैसे सिटी सेंटर, खट्टा-मीठा, सेक्टर सिक्स वगैरह पर जा नहीं पाया। जाकर देखता कि वे वैसे ही हैं या बदल गये। कई प्रियजनों से मिलना रह गया। समय कम था। खैर, कभी और सही।

सोशल मीडिया का उभरता सितारा: Blue Sky

Source: Blue Sky app


पिछले महीने मशहूर अनुवादक डेज़ी रॉकवेल ने X (ट्विटर) पर घोषणा की: अब मैं X को छोड़ रही हूं। मुझसे जुड़ने के लिए आप Blue Sky पर आ सकते हैं। मेरे कान खड़े हो गए। मन में कई सवाल उठने लगे। कि अचानक ये क्या हुआ कि डेज़ी रॉकवेल जैसी अंतर्राष्ट्रीय ख़्याति प्राप्त अनुवादक X छोड़ रही हैं? और ये ब्लू स्काय कौन सी बला है जिसे वह और उनके जैसे अन्य कई लेखक, अनुवादक, कवि, मीडिया संस्थान ज्वाइन कर रहे हैं?

ढूंढ़ने पर पता चला कि ब्लू स्काय एक माइक्रोब्लॉगिंग साइट है। इसका होम पेज असंख्य तारों से भरे नीले आसमान की तरह दिखता है। ठीक अपने नाम के अनुरूप। स्वच्छ एवं पारदर्शी। 2019 में इसे ट्विटर ने ही शुरू किया था। एक प्रयोग के तौर पर। उस वक्त यह आम लोगों के लिए उपलब्ध नहीं था। 2022 में ट्विटर पर एलोन मस्क के स्वामित्व के बाद ब्लू स्काय से ट्विटर का रिश्ता टूट गया। इसका अपना एक स्वतंत्र वजूद हो गया। हालांकि आम लोगों के लिए इसका दरवाज़ा खुला इस वर्ष, फ़रवरी 2024 में।

पर अचानक इतनी बड़ी संख्या में X को छोड़ लोग ब्लू स्काय की ओर क्यों भागने लगे? और ख़ासकर पिछले दो महीनों में भागने की इस क्रिया में अप्रत्याशित वृद्धि कैसे हुई? इन प्रश्नों के उत्तर मुझे मिलने लगे X और उसके स्वामी एलोन मस्क की हाल की गतिविधियों पर नज़र डालने पर।

2022 में जब से मस्क ने ट्विटर की कमान संभाली, उसका नाम बदल कर X रखा, तभी से उसपर बदलाव दिखने लगे थे। खरीदने के पहले मस्क ने काफी प्रचार किया था कि वे स्वतन्त्र विचारों (Free Speech) को बढ़ावा देंगे, गलत सूचनाओं पर नियंत्रण करेंगे वगैरह वगैरह। पर किया उन्होंने ठीक उसका उल्टा।

आते ही उन्होंने उन कर्मचारियों को नौकरी से निकाला जो ट्विटर पर घृणा या झूठ को रोकने में लगे थे। उसके बाद उन्होंने 62000 ऐसे निलंबित एकाउंट्स को बहाल किया जिनका प्रयोग झूठ और घृणा फैलाने के लिए किया जा रहा था। फिर डोनाल्ड ट्रम्प के एकाउंट को बहाल किया। वही एकाउंट जिस पर कैपिटोल हिल पर हमले के लिए उकसाने का आरोप था।

ट्विटर का नया अवतार X धीरे धीरे एक पार्टी, एक विचारधारा के पक्ष में दिखने लगा। मस्क खुद भी वहां रिपब्लिकन पार्टी का प्रचार करने लगे। ट्रम्प के पक्ष में और कमला हैरिस के विरोध में झूठ फैलाने लगे। ग़लत तथ्यों, झूठे विडियो का प्रयोग करने लगे। वैसे किसी पार्टी, व्यक्ति या विचार के पक्ष में होना ग़लत नहीं है। पर वह जिस तरीके से कर रहे थे, उससे उनकी निष्पक्षता और उससे भी ज्यादा X की निष्पक्षता पर सवाल उठने लगे।

मस्क साहब केवल वहीं नहीं रुके। द वाशिंगटन पोस्ट में माईकल शीरर एवं जोश डोअसी की एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प को जिताने में लगी 45 मिलियन डॉलर के एक प्रोजेक्ट का नेतृत्व करने लगे। एक ऐसा प्रोजेक्ट जिसकी बहुत सारी चीज़ें अस्पष्ट थीं। जैसे किन लोगों ने उसमें डोनेशन दिया, कितना दिया वगैरह वगैरह। प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य था कमला हैरिस के समर्थकों को झांसा देकर ट्रम्प के पक्ष में रिझाना। और उन्हें बहकाना।

इस काम के लिए उनके पास सलाहकारों की एक पूरी फौज थी। अत्यंत आधुनिक तकनीकों से लैस। वे अमरीकी वोटरों के विचार, उनके व्यक्तिगत पसंद, नापसंद से अवगत थे। उन्होंने इस पर अच्छा-खासा रिसर्च किया था। उन्हें मालूम था कि अमरीका के किस स्टेट, किस क्षेत्र के वोटर को किस तरह का मेसेज, विडियो या ऑडियो भेजना है। और कैसे भेजना है।

यहूदी वोटरों को मेसेज भेजा गया कि कमला हैरिस इज़राइल-फिलीस्तीन मुद्दे पर फिलीस्तीनियों की समर्थक हैं। मुसलमान वोटरों को मेसेज भेजे गए कि कमला के पति यहूदी है और वह इज़राइल की समर्थक हैं। उदारवादियों को बताया गया कि कमला रूढ़िवादी हैं और रूढ़िवादियों को कि वे उदारवादी हैं। अश्वेत वोटरों को कहा गया कि कमला के आने से उनके अधिकारों का हनन होगा। श्वेतों को डराया गया कि अश्वेत को ज्यादा लाभ दिये जाएंगे।

ई-मेल, सोशल मीडिया में टेक्स्ट, ओडियो, विडियो के माध्यम से खूब प्रचार किया गया। झूठ, आधा सच का धड़ल्ले से प्रयोग हुआ। वोटरों की शिनाख़्त करके, सटीक निशाना बनाकर उन्हें इस तरह कन्फ्यूज़ किया गया कि वे कमला हैरिस से विमुख हो जाएं। चुनाव से एक सप्ताह पहले इस प्रचार तंत्र ने अपनी गतिविधियां और तेज कर दीं। इसका वोटरों पर अपेक्षित असर हुआ। डोनाल्ड ट्रम्प जीत गए।

जीत के बाद जब डोनाल्ड ट्रम्प ने ऐलान किया कि अमरीका में ‘एलोन मस्क नामक एक नये सितारे का उदय हुआ है’ तब लोगों को आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि वैसे भी X पर मस्क की गतिविधियां जगजाहिर थीं। रही-सही का पर्दाफाश द वाशिंगटन पोस्ट, अल्जज़ीरा जैसे मीडिया संस्थानों ने कर दिया।

यही वो समय था जब ब्लू स्काय का उदय हुआ। सोशल मीडिया के एक नये सितारे के रूप में। फ़रवरी 2024 में जैसे ही ब्लू स्काय की खिड़की खुली, लोग X को छोड़ उससे जुड़ने लगे। वे X के पक्षपातपूर्ण रवैए से उब चुके थे। ख़फ़ा थे। अमरीकी चुनाव के नजदीक आने के साथ-साथ ब्लू स्काय पर भीड़ बढ़ने लगी। पिछले दो महीनों में (अक्टूबर 2024 से) ट्विटर से भागकर ब्लू स्काय ज्वाइन करने वालों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि होने लगी।

द गार्डियन के अनुसार पिछले दो महीनों में क़रीब 2.7 मिलियन अमरीकी यूज़र्स मस्क के X को छोड़ चुके हैं। और उसी अवधि में ब्लू स्काय में क़रीब 2.5 यूज़र्स की वृद्धि हुई। जैसे जैसे अमेरिका में चुनाव के दिन नजदीक आने लगे, वैसे वैसे इसमें तेजी आने लगी। ट्रम्प की जीत के बाद इसमें और भी तेजी आई। 5 नवंबर को चुनाव परिणाम घोषित हुए और उसके एक सप्ताह के अंदर ब्लू स्काय के यूज़र्स की संख्या 743900 से बढ़कर 1400000 (1.4 मिलियन) हो गई। मतलब दूनी हो गई। उसके अगले सप्ताह में एक बार फिर से दूनी हुई, मतलब 2.8 मिलियन।

X को छोड़ ब्लू स्काय ज्वाइन करने वालों में दुनियां भर के जाने-माने फिल्मकार, कलाकार, साहित्यकार, पत्रकार, मीडिया संस्थान, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। 26 नवंबर को यूरोपीय फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स ने घोषणा की कि 20 जनवरी 2025 से वे एलन मस्क के X पर कुछ भी प्रकाशित नहीं करेंगे। वे X का हिस्सा इसलिए नहीं बनना चाहते क्योंकि एलोन मस्क ने उसे झूठ और प्रोपगंडा फैलाने की मशीन के रूप में परिवर्तित कर दिया है। यूरोपीय फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स एक ऐसी संस्था है जिससे 44 देशों के 295000 जर्नलिस्ट्स जुड़े हैं। 13 नवंबर को इंग्लैंड के जाने-माने न्यूज़ पोर्टल द गार्डियन ने घोषणा की: X पर वह अपने आधिकारिक हैंडल से कुछ भी पोस्ट नहीं करेगा। अन्य देशों के मीडिया संस्थान एवं नामी हस्तियां भी धीरे-धीरे X को छोड़ रहे हैं। ब्लू स्काय में यूज़र्स की संख्या रोज-ब-रोज तेजी से बढ़ रही है।

सोशल मीडिया के फ़लक पर 3000 मिलियन यूज़र्स के साथ मार्क जुकरबर्ग का फ़ेसबुक आज भी सबसे आगे है। 2500 मिलियन के साथ गूगल का यूट्यूब दूसरे नंबर पर है। इसके बाद मार्क जुकरबर्ग के ही इन्स्टाग्राम में 2350 मिलियन यूज़र्स, व्हाट्सएप में 2400 मिलियन और मेसेंजर में 1000 मिलियन यूज़र्स हैं। हरेक की अपनी अपनी खासियत है। पर ब्लू स्काय की तुलना इनमें से किसी से नहीं हो सकती। वह X एवं Threads की तरह एक माइक्रो ब्लॉगिंग साइट है जिसका उद्देश्य है कम-से-कम शब्दों में सूचना व समाचार को तत्काल शेयर करना।

ब्लू स्काय के यूज़र्स की संख्या अभी 20 मिलियन से कुछ अधिक है। ये X के 500 मिलियन और Threads के 275 मिलियन से अभी भी काफ़ी कम है। पर जिस तेजी से लोग इसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि आने वाले महीनों एवं वर्षों में यह इन दोनों के लिए खतरे की एक बड़ी घंटी है।

ब्लू स्काय एक मायने में इन दोनों से बिल्कुल भिन्न है। यह एक ओपन सोर्स प्लेटफार्म है जो मुनाफे के लिए नहीं बना है। कम-से-कम अभी तक तो नहीं। यह लोगों के डोनेशन पर निर्भर है। जब कि X एवं Threads दोनों अमरीका के दो बड़े पूंजिपतियों के हाथों की कठपुतली हैं। हम सब जानते हैं कि X को मस्क कैसे एक औजार की तरह उपयोग कर रहे हैं। मेटा के मालिक मार्क जुकरबर्ग का दामन भी कोई साफ़ नहीं है। उनसे भी लोगों को आशा नहीं है कि Threads का प्रयोग वह निष्पक्ष होकर करेंगे।

ब्लू स्काय की लोकप्रियता का एक और कारण यह है कि यह यूज़र्स को अपने पसंद के लोगों, उनके विचारों से जुड़ने की कुछ खास सुविधाएं प्रदान करता है। साथ ही ये झूठ, प्रोपगंडा और घृणा से दूरी बनाने में मदद करता है। आप चाहें तो यहां अपने मनमुताबिक एक ईको चेम्बर का निर्माण कर सकते हैं। अपने पसंद की चीजें पढ़ सकते हैं, सुन सकते हैं।

हालांकि अपने ईको चेम्बर में रहने और अपने मन की बात सुनने के कुछ नुकसान भी हैं। दूसरे पक्ष से बातचीत व संवाद से वंचित होने का खतरा बना रहता है। फिर भी ब्लू स्काय का वह चेम्बर एक पूंजीपति द्वारा संचालित उस चेम्बर से तो लाख गुना बेहतर है जहां आप बार-बार ठगे से महसूस करते हैं।
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अरुण जी, 16.12.24