
स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी ने कई महत्वपूर्ण आन्दोलनों का नेतृत्व किया था और उनकी चर्चा बार-बार होती है। पर 1928 के आसपास बिहार में पर्दा प्रथा के खिलाफ उन्होंने जो आन्दोलन चलाया था, उसके बारे में शायद कम लोग जानते होंगे। मैं भी इससे वाक़िफ नहीं था।
पिछले सप्ताह मुझे जगजीवन राम पार्लियामेंट्री स्टडीज़ ऐंड पॉलिटिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट से प्रकाशित, ‘महात्मा गांधी और मैं’ पढ़ने का अवसर मिला। जाने माने स्वतन्त्रता सेनानी, रामनन्दन मिश्र रचित एक पुस्तक। इस पुस्तक में लेखक ने गांधी से अपने सम्बन्धों के अलावा उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला है।
अपने शुरुआती जीवन में रामनन्दन मिश्र कांग्रेस में सक्रिय थे। बाद में वो कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट हो गए। भारतीय सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य भी थे। कई वर्षों तक जेल में रहे। आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी। कांग्रेस सरकार की नीतियों का भी खुलकर विरोध किया। पर गांधी जी से उनके स्नेह और सम्बन्ध में कोई कमी नहीं आई।
उनकी पुस्तक, ‘महात्मा गांधी और मैं’, का प्रकाशन पहली बार उनके जीवन काल में ही हुआ था। उस समय इसका शीर्षक था ‘गांधी जी के संस्मरण’। 1989 में उनका स्वर्गवास हो गया। उसके बाद ये किताब इतिहास के पन्नों में खो सी गई थी। जगजीवन राम इन्स्टीट्यूट ऑफ पार्लियामेंट्री अफेयर्स और पोलिटिकल रिसर्च ने 2020 में पुनः प्रकाशित कर इसे एक नया जीवन दिया है।
1926 में गांधी जी के आह्वान पर रामनन्दन मिश्र ने अपनी पत्नी, राजकिशोरी देवी, को पर्दे से बाहर निकाल कर उन्हें शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। इसके लिए उन्हें अपने परिवार और समाज के बहिष्कार का सामना करना पड़ा। इस मुहिम के हरेक पड़ाव पर गांधी ने उनकी मदद की थी। राजकिशोरी देवी की पढ़ाई के लिए गांधी ने खासकर दो स्वयंसेविकाओं को साबरमती आश्रम, अहमदाबाद से बिहार के एक गांव में भेजा। इसी क्रम में गांधी के सबसे चहेते स्वयंसेवक, मगनलाल गांधी, की 1928 में पटना में मृत्यु हो गई। तब राजकिशोरी देवी को गांधी ने साबरमती आश्रम बुलवा लिया और आन्दोलन की बागडोर, गांधी के शब्दों में, ‘बिहार के तपे हुए सिपाही ब्रजकिशोर प्रसाद’ के हाथों में दे दिया।
पर्दा विरोधी आन्दोलन रामनन्दन मिश्र के लिए एक व्यक्तिगत लड़ाई में तब्दील हो गयी थी। गांधी के लिए ये व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक सब कुछ था। रामनन्दन जी के पिता को एक पत्र में साबरमती से गांधी ने 25 जनवरी 1927 को लिखा था:
“भाई राजेन्द्र प्रसाद जी मिश्र,
आपका सुपुत्र मेरे पास आया है और कहता है कि यद्यपि वह और उसकी धर्मपत्नी पर्दा छोड़ना चाहते हैं; आप उसका विरोध करते हैं। …………… मेरी तो सलाह है कि आप दम्पत्ति को अपने इच्छानुसार चलने दें। इस युग में पर्दा निभ नहीं सकता है, न आवश्यक है। प्राचीन समय में पर्दा की बुरी प्रथा न थी।
आपका
मोहनदास गांधी”
साठ के दशक से लेकर आज तक हुए बदलाव पर जब दृष्टि डालता हूं तो पाता हूं कि गांधी जी कितने सही थे। पर्दे की ये कुप्रथा, अब ‘निभ नहीं सकती’।
© अरुण जी, 01.11.20













