
1950 में मैं सोलह साल की थी जब मेरी शादी हुई। आज के सन्दर्भ में शादी के लिए मेरी उम्र को कम कहा जा सकता है, गैरकानूनी भी। पर उस समय अगर लड़की सोलह साल की हो गई तो पिता को उसकी शादी की चिंता सताने लगती थी। ज्यादातर लड़कियों की शादी सोलह से कम में ही कर दी जाती थी।
पहली कड़ी में मैंने बताया था कि किस तरह मोकामा सकरवार टोला की एक बारात को हमारे गांव के लोगों ने पत्थर मारकर भगा दिया था। आठ साल बाद उसी नगर के उसी मुहल्ले में मेरी शादी ठीक हुई। मोकामा एक कस्बा है जिसे आप एक नगर भी कह सकते हैं। ये हमारे गांव के उत्तर पश्चिम में गंगा नदी के किनारे बसा है।
हमारे जमाने में शादी के मामले में लड़के लड़कियों से कोई राय-मशविरा नहीं लिया जाता था। फोटो आदान-प्रदान करने का भी कोई रिवाज नहीं था। वैसे भी फोटोग्राफी तब सामान्य लोगों में प्रचलित नहीं हुआ था। लड़की के पिता गांव गांव घूमकर कोई उपयुक्त रिश्ता ढूंढकर लड़की की शादी तय करते थे। शादी ठीक करते समय लड़के के अलावा जमीन-जायदाद, कुल-खानदान वगैरह देखा जाता था। मेरे बाबूजी ने अपने तीनों बेटियों की शादी के लिए इन सारी बातों के अलावा कई और सुविधाएं जैसे यातायात, अस्पताल, बाजार इत्यादि का भी ध्यान रखा था।
इसीलिए मेरी और मेरी बड़ी दीदी, सत्यभामा, की शादी मोकामा में हुई। और मंझली दीदी, जयमंती, की इन्दुपुर में, जो कि बड़हिया के बिल्कुल करीब है। बड़हिया भी मोकामा की तरह ही एक कस्बा है, शेरपुर के दक्खिन में गंगा के तट पर। हमारे यहां लोगों को गंगा नदी से काफी लगाव है। वो अपनी लड़कियों की शादी के लिए गंगा के किनारे बसे गांव या शहर को ज्यादा महत्व देते थे।
शादी के समय मेरे पति की उम्र 19 साल थी। वो पांच भाइयों में तीसरे नंबर पर थे। मैट्रिक के विद्यार्थी थे। एकदम गोरे चिट्टे, तीखे नैन-नक्श। गोरा रंग और लम्बी, पतली नाक सुन्दरता के महत्वपूर्ण मापदंड थे, आज भी हैं। क्यों हैं ये पता नहीं।
बारात जब हमारे दरवाजे पर लगी तो मेरी सहेलियों ने उन्हें देखा और घर में आकर मुझे चिढ़ाने लगे कि लड़का तो एकदम अंग्रेज लगता है। उसी समय मेरे कानों में वो गीत गूंजने लगा:
रामचन्द्र दुल्हा सुहावन लागे,
अति मन भावन लागे हे,
माइ हे न जाने ब्रम्हा जी के हाथे गुन
कौशल्या जी के कोखे गुन हे।
आज भी उन्हें पहली बार देखने पर कुछ लोग उन्हें यूरोपियन समझ लेते हैं। ससुराल आने पर मुझे बताया गया कि जब वो पैदा हुए थे तो इतने सुन्दर दिखते थे अचानक किसी के मुंह से निकल गया कि ये तो सुग्गा(तोता) जैसा सुन्दर है। फिर वही उनका पुकारु नाम पड़ गया। वैसे तो उनका नाम राम बहादुर सिंह था पर बड़े लोग उन्हें सुगना और छोटे सुगो दा(दादा) या सुगो चा(चाचा) कहकर पुकारते थे।
उस सुन्दरता का एक मूल्य भी था। दहेज के रूप में बाबूजी को 6 हजार रुपया देना था। बाकी भाइयों की अपेक्षा मेरे पति के लिए दहेज की रकम थोड़ी बढ़ा दी गई थी। दहेज प्रथा के बारे में सुनकर आज की नई पीढ़ी को शायद थोड़ा धक्का लगे। पर उस समय वो काफी प्रचलित थी। वैसे किसी न किसी रूप में आज भी है। पर शायद कुछ कम हुआ है, खासकर लड़कियां जब से शिक्षित होने लगी हैं। हमारे समय में ये गैरकानूनी भी नहीं था। अरुण ने गूगल पर खोजकर मुझे बताया कि 1961 में इसे गैरकानूनी घोषित किया गया।
बाबूजी एक किसान थे। हमारे गांव में किसानों की हालत बहुत खराब थी। जमीन का एक बड़ा भाग गंगा जी के पेट में चला गया था। अपने घर की स्थिति को मैं भलिभाति जानती थी। बाबूजी दहेज देने की स्थिति में नहीं थे।
उन्होंने अपने होने वाले समधी, मेरे होने वाले ससुर, से अनुरोध किया कि दहेज की आधी रकम, तीन हजार, वो शादी में देंगे और बाकी की रकम दुरागमन के वक्त। उस समय शादियां कम उम्र में होती थीं। इसलिए शादी के प्रायः दो तीन साल बाद लड़की का दुरागमन होता था। दुरागमन मतलब लड़की का दूसरी बार ससुराल गमन। कुछ लोग इसे दूसरी शादी भी कहते थे। मेरे ससुर इस बात पर मान गए।
शादी के बाद मैं और मेरे पति एक ही पालकी में सवार होकर शेरपुर से मोकामा के लिए विदा हुए। मेरे नैहर से ससुराल की दूरी 12 किलोमीटर है। कहार पालकी ढ़ो रहे थे और बंद पालकी में मैं अपने पति के सामने पूरी तरह घूंघट ओढ़कर बैठी थी। मेरे मन में मिश्रित भावनाएं थीं: घर से विदाई का ग़म, ससुराल के बारे में आशंकाएं, पति से मधुर मिलन की दबी इच्छाएं वगैरह वगैरह। उन यादों को जब कुरेदती हूं तो मदर इंडिया का वो गाना याद आने लगता है:
पी के घर आज प्यारी दुल्हनियां चली
रोये माता पिता उनकी दुनियां चली।
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