जगमगाते जुगनुओं की जोत: समीक्षा

जगमगाते जुगनुओं की जोत है इन दिनों मेरी किताब। विश्व के अलग अलग देशों के समकालीन कथाकारों की अनुदित कहानियों का एक बेहतरीन संकलन। अनुवादक एवं संकलन कर्ता हैं यादवेन्द्र। 

पेशे से इंजीनियर और वैज्ञानिक रह चुके यादवेन्द्र मानवता और समाज  को साथ लिए आजकल विश्व साहित्य की दुनिया में विचरण करते हैं। विश्व के विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों से वे बातें करते हैं और उनका अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करते हैं। स्त्री केन्द्रित रचनाओं की ओर उनका विशेष झुकाव है। पिछले कुछ वर्षों में एक के बाद एक उनकी तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुई हैं। पहला, तंग गलियों से भी दिखता है आकाश (2018), दूसरा, स्याही की गमक (2019)। इन दोनों पुस्तकों में उन्होंने विश्व साहित्य की समकालीन महिला कथाकारों की कहानियों को शामिल किया है।

जगमगाते जुगनुओं की जोत इसी श्रृंखला में तीसरा संग्रह है, इस वर्ष अप्रैल के महीने में प्रकाशित। पहले दोनों संग्रहों की ही तरह इसमें भी दुनियां की अलग अलग भाषाओं की रोचक कहानियों को शामिल किया गया है: स्पैनिश, चाइनीज, जापानी, अंग्रेजी, बर्मी, नाईजेरियन, फिलिस्तीनी, इजराइली, सीरियन इत्यादि। पर इसकी खास बात ये है कि इसमें पुरुष लेखकों की स्त्री केन्द्रित कहानियां हैं। विषय और विधा दोनों दृष्टिकोण से यादवेन्द्र द्वारा चयनित एवं अनुदित ये कहानियां दिलचस्प हैं, उनमें विविधता है।

यादवेन्द्र के बारे में जानेमाने लेखक लीलाधर मंडलोई द्वारा ‘इस किताब की बाबत’ लिखी कुछ बातों को उद्धरित करना मैं जरूरी समझता हूं:

“यादवेन्द्र अनुवाद में सांस लेते हैं —- वे हिंदी साहित्य की जमीन पर रहते हुए विश्व साहित्य का अनुवाद करते हैं। वे अनुवाद में रमते हैं — उनका अनुवाद दृष्टि सम्पन्न है।” (उनके अनुवाद को पढ़कर ऐसा लगता है) “कि ये तो बिल्कुल हमारे अपने समाज की कथाएं हैं जो संयोग से अन्य भाषा में अवतरित हुई हैं।” 

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वैसे तो जगमगाते जुगनुओं की जोत में कहानियां एक से बढ़कर एक हैं। पर मैं यहां दो कहानियों का जिक्र करना चाहूंगा: 

पहली कहानी है काली बरसात। मसुजी अबुसे के प्रसिद्द जापानी उपन्यास ब्लैक रेन का एक अंश। 

ये एक दिल दहलाने वाली कहानी है जो हिरोशिमा के पास गांव में रह रहे एक परिवार पर केंद्रित है। परिवार के तीन सदस्यों में चाचा, चाची और उनकी एक भतीजी हैं। चाचा और चाची के कंधों पर भतीजी की शादी का बोझ है। पर शादी के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़े हैं हिरोशिमा पर गिराए गए एटम बम।

असल में उनके गांव में ये अफवाह था कि बम गिरने के वक्त भतीजी यासुको एक स्कूल में काम कर रही थी और वो विकिरण से होनेवाली बीमारी का शिकार हुई थी। “जो कोई भी शादी के लिए आगे आता, गांव में पड़ोसियों से पूछताछ करने पर इस अफवाह के चलते पीछे हट जाता।” इस कारण चाचा शिमेगत्सु और चाची शिगेको काफी चिंतित रहते थे। भतीजी यासुको भी दुखी रहती थी। असल में यासुको उस दिन स्कूल नहीं गई थी। उन्हें मालूम था कि वो विकिरण से प्रभावित नहीं हुई थी। पर उनके लिए अफवाह को रोक पाना संभव नहीं था और इस कारण यासुको की शादी कहीं पक्की नहीं हो रही थी। 

कुछ दिनों बाद एक युवक का रिश्ता आया। युवक ने यासुको को पसंद कर लिया। पर इस बार चाचा शिमेगत्सु ने विशेष सावधानी बरतते हुए यासुको के स्वस्थ होने का सर्टिफिकेट उपलब्ध करवाकर शादी की बातचीत में मध्यस्थता करने वाले (अगुआ) को भिजवा दिया। लेकिन सर्टिफिकेट का प्रभाव कुछ उल्टा ही पड़ गया। उसे देखने के बाद मध्यस्थ ने हिरोशिमा में बम गिराए जाने से लेकर गांव लौटने तक यासुको कहां-कहां गई थी, उसकी पूरी जानकारी मांगी। 

यह सुनकर पहले तो यासुको काफी दुखी हो गई। फिर उसने चाचा को अपनी डायरी पढ़ने के लिए दिया। वो नियमित रूप से डायरी लिखा करती थी। डायरी में तिथिवार उसकी गतिविधियों का विवरण था। उसे पढ़ने के बाद उसके चाचा शिमेगत्सु ने तय किया कि उस डायरी की कापी वो अगुआ को भेज देगा। 

पर दिक्कत ये थी कि 9 अगस्त के अपने लेखन में यासुको ने काली बरसात का जिक्र किया था। परमाणु बम गिरने के दिन उसे गीली और काली राख के आसमान से गिरने का अनुभव हुआ था। उसे ऐसा लगा था कि जैसे किसी ने उसके शरीर पर ढ़ेर सारा कीचड़ उड़ेल दिया हो। उस काली बरसात का अनुभव उसके लिए अजीब था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। 

अब शिमेगत्सु उधेड़बुन में पड़ गया कि 9 अगस्त के उस विवरण को वो कैसे भेजे? अगर भेजता है तो शक और अफवाह को और भी बल मिलेगा। और उस विवरण को हटाने पर अगर वो लोग मूल प्रति भी देखना चाहें तो क्या होगा? कहानी के अंत में आखिर क्या होता है? ये सब जानने के लिए पाठक को कहानी से दो दो हाथ करना पड़ेगा।

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दूसरी कहानी है सिंगापुर के ओ थियाम चिन द्वारा रचित आंख और कान। एक विवाहित जोड़ी की अद्भुत प्रेम कहानी। 

कहानी शुरू होती है शाम के समय, जब पति घर लौट कर आता है। देखता है कि घर में सब कुछ बिखरा बिखरा सा है। उखड़ा उखड़ा सा है। उसे महसूस होता है कि जरूर कुछ गड़बड़ है। फिर वह सोचने लगता है कि आज जब उसकी पत्नी डॉक्टर से मिलने गई होगी तो डॉक्टर ने क्या कहा होगा, स्तन में उसके गांठ के बारे में।

और यहीं से कहानी का फ्लैशबैक शुरू होता है जिसमें पति-पत्नी का प्रथम मिलन, उनका प्यार, शादी और एक बच्चा। शादी के बाद कैसे वह एक दूसरे पर निर्भर थे। पति था पत्नी की आंख और पत्नी उसका कान। पति बचपन से ही सुन नहीं सकता था और पत्नी की आंखों में रौशनी नहीं थी। पर दोनों का प्रेम कितना गहरा था। 

इस कहानी की विधा काफी महत्वपूर्ण है। पति के दृष्टिकोण से लिखी गई इस कहानी की शुरुआत में पाठक की उत्सुकता जगती है, घर की बिगड़ी हुई स्थिति को देखकर और फिर पत्नी की बीमारी के जिक्र से। 

इसके बाद लेखक बीमारी की बात को वहीं छोड़कर फ्लैशबैक में उनके जीवन की पुरानी घटनाओं का सुन्दर और रोचक वर्णन करता है। पाठक की उत्सुकता और बढ़ जाती है कि आखिर पत्नी की बीमारी का क्या हुआ होगा? कहानी के अंत में क्या हुआ होगा? जानने के लिए आपको कहानी को पढ़ना होगा।

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व्यक्ति और समाज के विभिन्न पहलुओं को छूती हुई जगमगाते जुगनुओं की जोत की हरेक कहानी रोचक एवं अर्थपूर्ण है। इनमें से कई विधा की दृष्टि हमें चकित भी करती हैं हिंदी के पाठक के लिए ये एक उपहार है।

जिन्हें इस पुस्तक में दिलचस्पी हो उनके लिए मैं अमेज़न पर इसके लिंक को नीचे शेयर कर रहा हूं:

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चिट्ठियां रेणु की भाई बिरजू को: एक समीक्षा

फोटो: अरुण जी

फणीश्वरनाथ रेणु की चिट्ठियों का एक संकलन “चिट्ठियां रेणु की भाई बिरजू को” मुझे पिछले सप्ताह मिला। पुस्तक पिछले महीने ही प्रकाशित हुई है। मैंने जल्दी ही इसे पढ़ डाला। फिर इस पर कुछ लिखने की इच्छा होने लगी। पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।

मेरे लिए सबसे बड़ी समस्या के रूप में खड़े थे रेणु खुद। उनका कृतित्व और व्यक्तित्व। बार बार ये लगता था कि मुझे क्या हक़ है उन पर कुछ भी लिखने का? मैंने उनकी कितनी रचनाओं को पढ़ा है? सिवाय उस एक के, जिस पर आधारित है वो मशहूर चलचित्र, तीसरी कसम (हालांकि तीसरी कसम अपने आप में कम नहीं है रेणु की लेखनी और उनकी दृष्टि से परिचय करवाने के लिए)।

फिर जब इस पुस्तक के सह संपादक प्रयाग शुक्ल के आलेख के अंत में हमारे जैसे पाठकों के लिए एक संदेश पढ़ा, तो हिम्मत बढ़ी। उन्होंने लिखा है: “कोई इन पत्रों को संदर्भ, संकेत, जाने बिना – सिर्फ एक मित्र को लिखे गए दूसरे मित्र के पत्र भर मानकर पढ़े, तो भी उसे बहुत कुछ मिलेगा – “

वैसे मेरे पास रेणु से जुड़े कुछ संदर्भ और संकेत दोनों पहले से ही मौजूद थे, तीसरी कसम के अलावा भी। पटना में सत्तर के दशक का छात्र आंदोलन और उसके बाद का दौर अपने आप में एक महत्वपूर्ण संदर्भ था। उसमें रेणु की भूमिका एक लेखक, विचारक, और योद्धा के रूप में अविस्मरणीय थी। उन दिनों मैं पटना विश्वविद्यालय का छात्र था। जेपी और रेणु जैसी हस्तियां हमारे प्रेरणाश्रोत थे। रेणु को एकाध बार देखा भी था। उनका चश्मा और उनके लहराते हुए बाल हमें खूब लुभाते थे। घर में या दोस्तों के बीच उनके बारे में बराबर चर्चा होती थी। आज भी होती है। राजेन्द्र नगर में उनके निवास, काफी हाउस में उनकी उपस्थिति से लेकर भाषा, साहित्य और समाज पर उनके गहरे प्रभाव जैसे विषयों पर।

पुस्तक खोलने के बाद संकलन कर्ता व संपादकों के लेखों को छोड़कर मैं आगे बढ़ गया। मेरे लिए रेणु की चिट्ठियां सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थीं। सबसे पहले उनको पढ़ना और सुनना चाहता था। उनसे बातें करना चाहता था।

बिरजू बाबू को लिखी गई ये चिट्ठियां रेणु के जीवन में हो रहे रोजमर्रा की परेशानियों के साथ साथ उनकी आर्थिक तंगी और बिगड़ते स्वास्थ्य को दर्शाती है। इन चिट्ठियों से ये भी पता चलता है कि रेणु गांव, समाज और देश के प्रति कितने प्रतिबद्ध थे। और अपनी इसी प्रतिबद्धता को हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में पिरोकर वो अमर हो गए। रेणु के जीवन में परिवार, समाज, साहित्य, राजनीति, देश सब साथ साथ चलते हैं।

1953 में लिखी एक चिट्ठी से पता चलता है कि रेणु जैसे महान रचनाकार को भी अपने पहले उपन्यास को प्रकाशित करवाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। इस चिट्ठी में वो भाई बिरजू को कहते हैं:

फोटो: अरुण जी

“यह पांडुलिपि जब तक अप्रकाशित अवस्था में मेरे पास पड़ी रहेगी; समझो बिन ब्याही जवान बेटी गरीब की! और क्या कहूं?”

1975 की एक चिट्ठी हृदयविदारक है। इसमें वो बिरजू बाबू को लिखते हैं:

फोटो: अरुण जी

“रात मेरा सब कुछ चोर उठा ले गया। एक ट्रंक जिसमें मेरे सारे कपड़े, पोर्टफोलियो बैग– दोनों –(VIP box को तोड़कर – चीजें निकालकर – पाट के खेत में छोड़ दिया) – 500 नकद, मेरी प्राण से भी प्यारी ‘पारकर 51’ कलम, शैलेंद्र के 50 से भी अधिक पत्र, साढ़े 300 पेज लिखी हुई पांडुलिपि, एक बुश रेडियो बड़ा– बहुत सारे अन्य अत्यावश्यक कागजात– सब ले गए। मेरे पास सिर्फ देह पर जो कपड़े हैं– बस।…

अन्य चीजों के अलावा शैलेंद्र के पत्र, उनकी अपनी एक पांडुलिपि की चोरी – सचमुच, रेणु के लिए कितना पीड़ादायक रहा होगा।

नेपाल में प्रजातंत्र की नींव रखने वाले वहां के भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला का एक मार्मिक संस्मरण भी है इस पुस्तक में। श्री कोइराला ने बताया है कि कैसे रेणु से उनकी मुलाकात नाटकीय ढंग से हुई थी एक ट्रेन में। और फिर कैसे ‘नितांत अपरिचित किशोर रेणु कोइराला परिवार का एक अभिन्न सदस्य जैसा हो गया और जीवनपर्यंत रहा।’ रेणु की अचानक मृत्यु की खबर को सुनकर वे काफी मर्माहत हुए थे। संस्मरण के अंत में लिखते हैं:

फोटो: अरुण जी

“… रेणु मर गया, लेकिन रेणु जिन्दा है। अपनी जिंदादिली के लिए, अपने क्रान्तिकारी विचारों के लिए, तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष के लिए, अपनी जिजिविषा के लिए, अपनी सिसृक्षा के लिए…”

अरुण जी, 12.04.22

एक अफगान चींटी

कलाकार: मिलो विन्टर
श्रोत: विकिपीडिया

एक अफगान चींटी: रूसी कविता (1983)
कवि: Yevgeny Yevtushenko
रूसी से अंग्रेजी: Boris Dralyuk
अंग्रेजी से हिंदी: Arun Jee
सोवियत अफगान युद्ध के संदर्भ में लिखी गई कविता

एक अफगान चींटी
एक रूसी जवान अफगान जमीं पर मरा पड़ा था
एक मुस्लिम चींटी उसके खूंटीदार गाल पर चढ़ी—
इतनी मुश्किल चढ़ाई — काफी मेहनत के बाद वो
सैनिक के चेहरे तक पहुंची, उसे धीरे से कहा:

“तुम्हें पता नहीं तुम कहां मारे गए हो
तुम्हें तो बस इतना मालूम है, कि ईरान है पास
हथियार लेकर क्यों आए थे? क्या पाने की लालसा थी?
तुमने तो पहले इस्लाम शब्द सुना भी नहीं होगा
तुम हमारी गरीब, भूखी धरती को क्या दे सकते थे,
जब खुद अपने देश में खाने के लाइन में खड़े रहते हो?
उतने लोग जब वहां मरे थे तो क्या वो काफी नहीं था
बीस मिलियन में कुछ और जोड़ने की जरूरत क्या थी?”

अफगान धरती पर एक जवान मरा पड़ा था
एक मुस्लिम चींटी उसके सिर के ऊपर-नीचे चढ़-उतर रही थी
वो कुछ रूढ़िवादी चींटियों से पूछना चाहती थी
कि कैसे उसे पुनर्जीवित करे, उसकी क्षति पूर्ति करे
पर बहुत ही कम बचे थे समझदार और वफादार
सभी अनाथ, विधवा या निराश हो गए थे

मैया की कहानी, मैया की जुबानी 8

बाबूजी

बाबूजी पक्के गांधीवादी थे। वो स्वतन्त्रता आन्दोलन में काफी सक्रिय रहे थे। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान हमारे घर कई आन्दोलनकारी आते थे। रात के समय उनके लिए खाना बनता था। फिर बंगला(दालान) के भुसघरे(भूसा रखने की जगह) में छुपाकर उन्हें सुला दिया जाता था। उस समय मैं केवल आठ साल की थी। अपने घर में आन्दोलनकारीओं को छुपते हुए देखना मेरे लिए एक रोमांचकारी अनुभव था।

महात्मा गांधी ने जब शराबबंदी का आह्वान किया था तो बाबूजी और कई अन्य लोगों ने मिलकर दरियापुर में शराब की एक दुकान को बंद करवाया था। दरियापुर मोकामा और शेरपुर के बीच में एक गांव है, हथिदह के करीब।

हमारे गांव के लोग बाबूजी की इन्हीं गतिविधियों से डरते थे। उन्हें लगता था कि ये बात अंग्रेजों को अगर मालूम हो गया तो इसकी सजा पूरे गांव को मिलेगी। इस बात की शिकायत कुछ लोगों ने बड़का बाबू (बाबूजी के बड़े भाई) से भी की थी।

बाबूजी का अक्षर ज्ञान धार्मिक ग्रंथों से हुआ। लेकिन देश और दुनिया की जानकारी के लिए वो अखबार नियमित रूप से पढ़ते थे। वो बताते थे कि अंग्रेजों के आने के पहले हमारे देश में राजे-रजवाड़ों, नवाबों, जमींदारों पर आधारित व्यवस्था थी। अंग्रेजों ने उसमें कुछ खास परिवर्तन नहीं किया। बल्कि उसी व्यवस्था का उपयोग उन्होंने अपने हक़ में किया। उनके अपने देश में लोकतंत्र की शुरुआत हो चुकी थी। लेकिन हमारे यहां वो जनता को लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित रखते थे।

स्वतंत्रता आंदोलन अपने आप में एक पूरा पाठ्यक्रम था, हमारे समाज और देश के लिए। बाबूजी और अन्य लोग जो उस आन्दोलन से प्रभावित थे, उनके समझने और सीखने के लिए उसमें आजादी के अलावा और कई विषय थे जैसे समानता, सामाजिक परिवर्तन, समरसता, आर्थिक विकास इत्यादि। उस पाठ्यक्रम के शिक्षक थे गांधी, नेहरू, पटेल, अम्बेडकर, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सुभाषचन्द्र बोस, भगतसिंह जैसी महान विभूतियां। ऐसी बात नहीं है उन सभी विभूतियों के विचार एक ही थे। उनके मत अलग अलग भी थे। पर सभी का उद्देश्य एक था: हिन्दुस्तान को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराना एवं देश में जनतंत्र की स्थापना करना।

मोकामा पुल
मोकामा पुल का उद्घाटन 1959 में नेहरू जी ने किया था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने इस पुल का शिलान्यास किया था। और उस समय के विख्यात इंजीनियर, एम विश्वेश्वरैया, की देखरेख में इसका निर्माण हुआ था। विश्वेश्वरैया की उम्र तब नब्बे से अधिक थी। इस पुल का बनना हमारे क्षेत्र और प्रदेश के लिए एक ऐतिहासिक घटना थी।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के शुरू के वर्षों में गंगा नदी पर बना ये दोमंजिला सेतु आधुनिक तकनीक का एक अनूठा उदाहरण था। ये उत्तर और दक्षिण बिहार को रेल और सड़क मार्ग दोनों से जोड़ता है। देश के उत्तर पूर्वी राज्यों से जोड़ने में भी सहायक सिद्ध हुआ। इसके बनने के पहले हमारे क्षेत्र में आवागमन का मुख्य केन्द्र था मोकामा घाट जहां से माल और यात्री को गंगा नदी के दूसरी ओर पानी के जहाज से पहुंचाया जाता था। मोकामा पुल के बनने के बाद मोकामा घाट बस एक इतिहास बन गया। उसका महत्व खत्म हो गया।

मेरे भाई, चन्द्रमौली, की शादी 1958 में हुई थी। तब पुल का निर्माण पूरा नहीं हुआ था। उसका ससुराल है रहीमपुर, गंगा के उस पार खगड़िया के पास। शादी के लिए शेरपुर से उसकी बारात मोकामा घाट होकर ही जहाज से गंगा के उस पार गई थी। बारात में लगभग एक सौ लोग होंगे।

उसकी शादी के बाद पहली बार होली का पर्व आया, 1959 के मार्च-अप्रैल के महीने में। तब चन्द्रमौली ससुराल गया था। हमारे यहां शादी के शुरू के वर्षों में होली के अवसर पर मेहमान को ससुराल में आमंत्रित करने की प्रथा है। हम दामाद और बहनोई दोनों को मेहमान शब्द से संबोधित करते हैं। मेहमान शब्द का ये खास प्रयोग हमारे इलाके में काफी प्रचलित है।

ससुराल जाने के समय चंद्रमौली मोकामा घाट होकर पानी के जहाज से गंगा पार किया था। ससुराल से एक महीने बाद वो लौटा रेल मार्ग से मोकामा पुल होकर। तब तक पुल का उद्घाटन हो चुका था। वो बताता है कि रात के समय हथिदह स्टेशन पर उतरा तो अचानक उसे समझ में नहीं आया कि वो कहां उतर गया है। क्योंकि एक महीने के अंदर वहां बहुत कुछ बदल चुका था।

15 मई को जिस दिन पुल का उद्घाटन हुआ बाबूजी काफी उत्साहित थे। पुल के निर्माण को लेकर और नेहरू के आने से। नेहरू उनके प्रिय नेता थे। मैया के साथ मुझे भी साथ ले गए थे समारोह को देखने के लिए। मेरा बड़ा लड़का, अरुण, उस समय मेरे गर्भ में सात महीने का था। आंठवा महीना शुरू हो गया था। आज भी जब उस घटना के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि बाबूजी का वो कदम कितना साहसिक था। उस समय महिलाओं के ऊपर कितना प्रतिबंध था। उनके घर से निकलने से लेकर उनकी पढ़ाई, नौकरी हरेक चीज पर। इसके बावजूद वो हमें पैदल लेकर गये थे।

हमारे गांव से हथिदह करीब दो किलोमीटर है। रास्ते में एक मानव सैलाब था। हमारी तरह लोग पुल के उद्घाटन समारोह को देखने दस किलोमीटर, पन्द्रह किलोमीटर दूर गांवों से पैदल चलकर आ रहे थे। आजादी के बाद विकसित तकनीक के एक नायाब नमूने को देखने और अपने प्रिय प्रधानमंत्री नेहरू को सुनने।

पुल पर चढ़ने वाली गाड़ियों के लिए जो रेलवे लाइन बिछाई गई थी, वो जमीन से करीब तीस फीट ऊंची है। उसी ऊंचाई पर, पुल शुरू होने के ठीक पहले, हथिदह रेलवे स्टेशन है। स्टेशन से उत्तर-पूर्व की ओर नीचे खुला मैदान है। गंगा नदी के किनारे तक फैला हुआ। स्टेशन से नीचे आती हुई ढ़लान पर उद्घाटन मंच बनाया गया था, प्रधानमंत्री नेहरू, मुख्यमंत्री श्रीबाबू और अन्य गणमान्य अतिथियों के लिए। मंच लगभग दस फीट ऊंचा होगा। नेहरू जी और श्रीबाबू साथ साथ बैठे थे। नेहरू ने अपने भाषण में क्या कहा, मुझे याद नहीं है। पर इतना याद है कि श्रीबाबू जब बोलने के लिए उठने लगे तो उन्हें उठने में कठिनाई हो रही थी। नेहरू तुरत उनकी मदद के लिए उठ खड़े हुए। श्रीबाबू का शरीर थोड़ा भारी था। इस कहानी को सुनकर मेरा लड़का, अरुण, मजाक में कहता है कि फिर तो तुमने मुझे भी नेहरू जी के दर्शन करवा दिए।

उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए मेरे पतिदेव भी आए थे अपने दोस्तों के साथ। उद्घाटन तिथि की घोषणा के बाद जब वो शेरपुर आए थे तभी हमने तय किया था कि हम दोनों समारोह स्थल पर मिलेंगे। वो आएंगे मोकामा से और हमलोग शेरपुर से। हथिदह मोकामा और शेरपुर दोनों के बीच में स्थित है। भीड़ में मैं तो उन्हें नहीं देख पाई। पर उन्होंने मुझे पहचान लिया मेरी लाल साड़ी को देखकर। वो मंच के पास थोड़ी ऊंचाई पर खड़े थे। समारोह के बाद हमसे मिलने आये थे। उद्घाटन समारोह का वो मंच आज भी इन सारी बातों के गवाह के रूप में वहां मौजूद है।

1967 में हमें मोकामा पुल पर बना एक बहुत ही मधुर गीत सुनने को मिला झारखंड के सुदूर जंगलों में। हमलोग तब मंझारी में थे। मंझारी झारखंड का एक ब्लाक है जो कि चाईबासा से काफी आगे है। उड़ीसा की सीमा से सटा हुआ। पतिदेव ब्लाक में ही कार्यरत थे। हमलोग ब्लाक के क्वार्टर में रहते थे। तब-तक हमारे परिवार में अरुण के अलावा सीमा और शीला भी शामिल हो गयी थी। जब आप अपने गांव, घर से काफी दूर रह रहे हों और वहां कोई ऐसा गीत सुनने को मिले जिसमें आपके गांव का जिक्र हो तो सुनकर अच्छा लगता है। ये हमारे घर का गृहगान बन गया:

जब से हिमालय बाटे
भारत देसवा में
ताहि बीच हहरे गंगा धार
हैरे मोकामा, पुलवा लागेला सुहावन

ऐलै पंचवर्षीय योजनमां
पुलवा के नीव जे परलै
बांधि देलकै गंगा धार
हैरे मोकामा, पुलवा लागेला सुहावन

उतरा के चावल धनमां
दक्खिना के कोयला पानी
ताहि बीच हहरै गंगा धार
हैरे मोकामा, पुलवा लागेला सुहावन

ऊपर ऊपर मोटर गाड़ी
तेकर नीचे रेलगाड़ी
तेकर नीचे छक-छक पनिया जहाज
हैरे मोकामा पुलवा लागेला सुहावन

https://www.youtube.com/watch?v=khvSKBi0vOU

©अरुण जी

फोटो: मोकामा पुल,
Source: Wikimedia comm

मैया की कहानी, मैया की जुबानी 5

शादी के तीन साल बाद मेरा गौना हुआ, 1953 में। अपने वादे के मुताबिक बाबूजी को दहेज का बाकी रकम अपने समधी को चुकाना था। वो चिन्तित रहने लगे। दहेज के लिए उन्होंने किसी तरह पैसा तो जुटा लिया पर उनकी तबियत खराब रहने लगी। उन्हें सर्दी, खांसी और बुखार की शिकायत थी। मेरी विदाई के कुछ दिन पहले उन्होंने पटना जाकर जांच करवाया तो पता चला कि टीबी है।

ये वो समय था जब टीबी एक जानलेवा बीमारी समझी जाती थी। उसके इलाज की दवा 1950 के आसपास निकल गई थी। पर लोग इससे बहुत डरते थे। इलाज में कम से कम एक साल लगता था। नियमित सेवा और देखभाल की जरूरत होती थी। मेरी मां रात दिन बाबूजी की सेवा में लगी रहती।

मेरी विदाई तो तय थी, पर मेरे लिए बाबूजी का स्वास्थ्य ज्यादा महत्वपूर्ण था। मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया कि दहेज का पैसा मैं नहीं लूंगी, आप अपने इलाज में उसका इस्तेमाल कीजिए।

जिन परिस्थितियों में मेरा गौना हुआ था उनके बारे में सोंचकर आज भी आंसू छलक जाते हैं। विदाई के ठीक पहले बड़का बाबू ने मुझे बुलाकर समझाया कि ससुराल जाते वक्त तुम मत रोना, नहीं तो हरिहर का स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। हरिहर मतलब बाबूजी। उनका नाम हरिहर सिंह था।

ससुराल पहुंचने पर दहेज के बारे में लोग कैसी-कैसी बातें करते थे, ये मैं ही जानती हूं। मैं हंस कर रह जाती थी। एक महिला ने जो टिप्पणी की थी वो आज भी मुझे याद है।

उन्होंने कहा था, “बेमारी के बहाना बना के तोहर बाबू सब पैसबा बचा लेलखुन।”

पतिदेव हमेशा मेरा हौसला बढ़ाते रहते थे। सास-ससुर ने भी इस सम्बन्ध में नहीं टोका। मेरे ससुर बाबूजी का काफी सम्मान करते थे। बीमारी के कारण उनको बाबूजी से सहानुभूति हो गई थी।

नैहर(शेरपुर) में हमारा परिवार छोटा था: बाबूजी, मां, मैं और मेरा छोटा भाई, आज के एकाकी परिवार की ही तरह। बाबूजी अपने दोनों भाइयों से पहले ही अलग हो चुके थे। मेरी दोनों बड़ी बहनों की शादियां हो गई थी। घर में भाई मुझसे आठ साल छोटा था। इसलिए घर का सारा हिसाब किताब रखने की जिम्मेवारी बाबूजी ने मुझे ही सौंप रखा था। मैं अपने घर में मालकिन थी।

ससुराल एक ऐसा स्कूल था जिसके नियम बहुत कठोर थे, औरतों के लिए और भी ज्यादा। करीब 50 लोगों का संयुक्त परिवार था। ससुर तीन भाई। सबसे बड़े रामवतार सिंह को पांच लड़के। मझले, मेरे ससुर, रामस्वरूप सिंह के पांच लड़के, एक लड़की और सबसे छोटे, सरयू सिंह, के दो लड़के एवं एक लड़की थी। मेरे पतिदेव से बड़े छह भाइयों की शादी हो चुकी थी। बड़े, बच्चे सब एक ही घर में रहते थे। चूल्हा भी एक था।

घर के मुखिया मेरे ससुर थे। घर की बहुएं उन्हें मालिक के रूप में जानती थीं। हम उनसे बात नहीं कर सकते थे। ससुर और भैंसुर (पति के बड़े भाई) के सामने हम हमेशा घूंघट में ही रहते थे। जब भी कोई ससुर या भैंसुर घर के अंदर घुसते तो कुछ जोर से बोलते हुए या जानबूझकर खांसते हुए हमें सावधान किया करते थे जिससे कि हम अगर आसपास हों तो घोघा(घूंघट) तान लें। घोघा के बिना हम घर की ड्योढ़ी के बाहर कदम भी नहीं रख सकते थे। रिश्तों में जो मर्द हमसे बड़े थे उनका नाम लेना पाप था। नई पीढ़ी की लड़कियों को यह सुनकर अजीब लगेगा कि पति का भी नाम हमारी डिक्शनरी में नहीं था।

घर में सारी चीजों को जुटाने की जिम्मेवारी मालिक की होती थी। खाने से लेकर कपड़ा-लत्ता और हमारा नैहर आना जाना, सब वही तय करते थे। हमें अगर किसी चीज की जरूरत हो तो हम अपनी सास को बताते थे। वो हमारी बात को मालिक, जो उनके पति भी थे, तक पहुंचाते थे, एक सेक्रेटरी की तरह। सास को हमलोग सरकार जी कह कर सम्बोधित करते थे। छोटे ससुर की पत्नी को छोटकी सरकार। सरकार शब्द का ये प्रयोग हमारे इलाके में काफी प्रचलित था। संयुक्त परिवार के विघटन के साथ-साथ सरकार राज भी अब लुप्त हो रहा है।

ससुराल का घर एक छोटी मोटी फैक्ट्री थी, जिसमें तरह तरह के काम होते थे। रसोई में खाना बनाने के अलावा अनाज को धोना, सुखाना, चालना, फटकना, कूटना, पीसना वगैरह सब औरतों को करना पड़ता था। उस समय तक मिल में अनाज पिसवाने की व्यवस्था नहीं हुई थी। सुबह उठने के साथ ही हम औरतें अपने-अपने काम में लग जाते थे। कोई चक्की चला रही है, तो कहीं ऊखल चल रहा है। साथ-साथ खाना भी बनता था। हम औरतों के अनुशासन की जिम्मेवारी सरकार जी की थी, पर नियम टूटते भी थे। आपस में झगड़े भी होते थे।

अदौरी, भुऔरी, तिलौरी सब घर में ही बनता था। आम के समय में अमावट या महुआ के मौसम में लट्टा। वैसे लट्टा अब लुप्त हो चला है। इसे बनाने के लिए महुआ और तीसी(अलसी) दोनों को कूटा जाता है। फिर उसे लड्डू का शक्ल दिया जाता है। तीसी में ओमेगा थ्री जैसे दुर्लभ पोषक तत्व हैं। आजकल शहरों में काफी लोकप्रिय हो रहा है। बरसात के दिनों में सुबह के नाश्ते में कई बार हम एक दो लट्टा खा लेते थे।

लगभग एक साल के बाद जब मैं मायके लौटी तो गर्भवती थी। थोड़ी कमजोर हो गई थी। गठिया से पीड़ित थी। ससुराल में दुल्हन बनकर लगातार चुक्कू-मुक्कू बैठे रहने के कारण घुटनों में दर्द होता था। पर नैहर लौटने की खुशी ही कुछ और थी। कुछ दिनों बाद गठिया अपने आप ठीक हो गया। बाबूजी भी अब पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गये थे।

©arunjee

Photo: Tara Devi
Photo credit: Prashant Gyan

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टुकड़ों में बटी जिन्दगी: समीक्षा


श्रीकांत को मूल रूप से मैं एक ख्यातिलब्ध पत्रकार के रूप में जानता था। उनकी किताबें, ‘मैं बिहार हूं ‘ या ‘चिट्ठियों की राजनीति ‘ को मैंने हाल ही में पढ़ा था। पर मुझे ये नहीं मालूम था कि वे आधुनिक कहानी के एक दिग्गज शिल्पकार भी हैं। उनके व्यक्तित्व के इस आयाम से मेरा परिचय हुआ बस कुछ दिनों पहले, जब मैंने उनकी कहानी संग्रह, टुकड़ों में बटी जिंदगी, को पढ़ा। व्यक्ति, परिवार एवं समाज के आन्तरिक संबंधों और सन्दर्भों को छूती हुई इस संग्रह की हरेक कहानी बेहद रोचक एवं विचारोत्तेजक है। पात्रों को रचने और कहानियों को गढ़ने में श्रीकांत काफी सुघड़ हैं, संवेदनशील भी।

सत्तर और अस्सी के दशक में लिखी गई ये कहानियां उस वक्त के देश और समाज का एक आईना है, आज भी उतना ही प्रासंगिक। समाज के आर्थिक-राजनीतिक ढांचे में व्यक्ति की विवशता एवं छटपटाहट, संयुक्त परिवार की कड़वी सच्चाईयां तथा प्रशासन की बिगड़ती स्थिति इन कहानियों के कुछ खास विषय हैं। और इन विषयों को आधुनिक कहानी के ताने-बाने में बुनकर पाठकों को परोसने में वो माहिर हैं।

टुकड़ों में बटी जिंदगी इस कहानी संग्रह की पहली कहानी है और वही इस पुस्तक का शीर्षक भी। इस कहानी का मुख्य पात्र एक सरकारी सस्ते गल्ले का दुकानदार है जिसे एक भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनना पड़ता है, अपनी इच्छाओं के विपरीत। इस कारण उसके अन्दर एक तरह की कसमसाहट है। वो हमेशा एक अपराध बोध से ग्रसित रहता है।

जहर, बूढ़े पेंटर की कहानी, सही रास्ता इत्यादि भी कुछ इसी तरह की व्यक्ति परक कहानियां हैं जिनमें लेखक ने मुख्यपात्र की वेदना एवं मनोदशा को उजागर करने की कोशिश की है।

संयुक्त परिवार की कठोर सच्चाइयों को बयां करने वाली कहानियां हैं, लाल और सफेद खून का फर्क, लावारिस और पितृ-ऋण। इन तीनों में लाल और सफेद खून का फर्क और लावारिस दिल को छूने वाली कहानियां हैं। पढ़कर आंखें नम हो जाती हैं। लाल और सफेद खून का फर्क के मंझले भैया को श्रीकांत ने बखूबी तराशा है। मेरी राय में इसका शीर्षक मंझले भैया होना चाहिए। कहानी को खत्म करने के बाद भी मंझले भैया का पात्र पाठक के दिलो-दिमाग पर छाया रहता है। कमोबेश यही बात लावारिस की माधुरी दी के साथ भी लागू होती है। वैसे तो श्रीकांत अपनी कई कहानियों में जीवन और समाज की सच्चाई को तटस्थ होकर उजागर करते हैं और समस्याओं का हल देने से बचते हैं। शायद उनका उद्देश्य होता है पाठक के सामने बस यथास्थिति को रखना और फिर उनके विवेक पर छोड़ देना, सोचने के लिए, समझने के लिए। पर परिवार-केन्द्रित इन दो कहानियों के अन्त को उन्होंने सकारात्मक मोड़ देने की कोशिश की है। मजेदार बात ये है कि इन कहानियों की रचना उस समय हो रही थी जब भारतीय समाज में संयुक्त परिवार अपने विघटन के कगार पर था। उस मायने में ये कहानियां उस बदलते समाज का एक महत्वपूर्ण डोक्युमेंट भी हैं।

इस कहानी संग्रह की एक और खास बात है कि इसमें कहानियों की विविधता है। कई ऐसी कहानियां हैं जिन्हें आप किसी भी श्रेणी में नहीं रख सकते। वो अपने आप में अनूठी हैं। अंतिम कहानी, कुत्ते , प्रशासनिक व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य है। यह काफी लोकप्रिय भी रही है। इप्टा ने पूरे देश में इसका मंचन हजारों बार किया है। यह एक उच्च अधिकारी की बेटी के कुत्ते के खो जाने की कहानी है, जिसमें सारा पुलिस महकमा रातभर परेशान रहता है। वो कई दूसरे कुत्तों को बांधकर थाने ले आते हैं। सुबह जाकर उन्हें पता चलता है कि खोया हुआ कुत्ता रात में ही मिल गया था। पर थाने में खबर पहुंचने में देर हो जाती है। इस पूरे प्रकरण का हर्जाना थाने में लाए गये कुत्तों के मालिकों को भरना परता है।

टुकड़ों में बटी जिंदगी आपको आजादी के बीस-पच्चीस वर्ष बाद वाले भारत की सैर कराता है। अपने इस सैर में आप मिल सकते हैं उस समय के पात्रों से, उनके घरों में या बाहर की दुनिया में भी। देख सकते हैं उनकी स्थिति, उनका संघर्ष। समझ सकते हैं, महसूस कर सकते हैं कि आजादी के बाद जो वादे किए गए थे उनमें कितने पूरे हुए और कितने रह गए बस कागज पर, अधूरे।

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©अरुण जी, 01.08.21

महात्मा गांधी और मैं: समीक्षा

स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी ने कई महत्वपूर्ण आन्दोलनों का नेतृत्व किया था और उनकी चर्चा बार-बार होती है। पर 1928 के आसपास बिहार में पर्दा प्रथा के खिलाफ उन्होंने जो आन्दोलन चलाया था, उसके बारे में शायद कम लोग जानते होंगे। मैं भी इससे वाकिफ नहीं था।

पिछले सप्ताह मुझे Jagjivan Ram Parliamentary Studies and Parliamentary Research Institute से प्रकाशित, ‘महात्मा गांधी और मैं’ पढ़ने को मिला। जाने माने स्वतन्त्रता सेनानी, रामनन्दन मिश्र रचित एक पुस्तक। इस पुस्तक में लेखक ने गांधी से अपने सम्बन्धों के अलावा उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डाला है।

अपने शुरुआती जीवन में रामनन्दन मिश्र कांग्रेस में सक्रिय थे। बाद में वो कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट हो गए। भारतीय सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य भी थे। कई वर्षों तक जेल में रहे। आजादी के पहले भी और आजादी के बाद भी, कांग्रेस सरकार की नीतियों के विरोध में। पर गांधी जी से उनके स्नेह और सम्बन्ध में कोई कमी नहीं आई।

उनकी पुस्तक, ‘महात्मा गांधी और मैं’, का प्रकाशन पहली बार उनके जीवन काल में ही हुआ था। उस समय इसका शीर्षक था ‘गांधी जी के संस्मरण’। 1989 में उनका स्वर्गवास हो गया। उसके बाद ये किताब इतिहास के पन्नों में खो सी गई थी। जगजीवन राम इन्स्टीट्यूट ऑफ पार्लियामेंट्री अफेयर्स और पोलिटिकल रिसर्च ने 2020 में इसे पुनः प्रकाशित कर एक नया जीवन दिया है।

1926 में गांधी जी के आह्वान पर रामनन्दन मिश्र ने अपनी पत्नी, राजकिशोरी देवी, को पर्दे से बाहर निकाल कर उन्हें शिक्षित करने का बीड़ा उठाया, जिसके लिए उन्हें अपने परिवार और समाज के बहिष्कार का सामना करना पड़ा। इस मुहिम के हरेक पड़ाव पर गांधी ने उनकी मदद की। राजकिशोरी देवी की पढ़ाई के लिए उन्होंने खासकर दो स्वयंसेविकाओं को साबरमती आश्रम, अहमदाबाद से बिहार के एक गांव में भेजा। इसी क्रम में गांधी के सबसे चहेते स्वयंसेवक, मगनलाल गांधी, की 1928 में पटना में मृत्यु हो गई। तब राजकिशोरी देवी को गांधी ने साबरमती आश्रम बुलवा लिया और आन्दोलन की बागडोर, गांधी के शब्दों में, ‘बिहार के तपे हुए सिपाही ब्रजकिशोर प्रसाद’ के हाथों में दे दिया।

पर्दा विरोधी आन्दोलन रामनन्दन मिश्र के लिए एक व्यक्तिगत लड़ाई में तब्दील हो गयी थी। गांधी के लिए ये व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक सब कुछ था। रामनन्दन जी के पिता को एक पत्र में साबरमती से गांधी ने 25 जनवरी 1927 को लिखा था:

“भाई राजेन्द्र प्रसाद जी मिश्र,

आपका सुपुत्र मेरे पास आया है और कहता है कि यद्यपि वह और उसकी धर्मपत्नी पर्दा छोड़ना चाहते हैं; आप उसका विरोध करते हैं। …………… मेरी तो सलाह है कि आप दम्पत्ति को अपने इच्छानुसार चलने दें। इस युग में पर्दा निभ नहीं सकता है, न आवश्यक है। प्राचीन समय में पर्दा की बुरी प्रथा न थी।

आपका
मोहनदास गांधी”

साठ के दशक से लेकर आज तक हुए बदलाव पर जब दृष्टि डालता हूं तो पाता हूं कि गांधी जी कितने सही थे। पर्दे की ये कुप्रथा, अब ‘निभ नहीं सकती’।

©अरुण जी, 01.11.20

मैया की कहानी, मैया की जुबानी 7

उषा की मृत्यु मेरे जीवन की सबसे दुखद घटना थी। उस दिन मुझे इतना याद है कि मैं जार-बजार रोये जा रही थी और सरकार जी(सास), मेरी गोतनी (जेठानी) सभी मुझे ढाढस बंधाने की कोशिश कर रहीं थीं। मैं बार-बार रोती थी और अपने आप को कोसती थी कि मेरे साथ क्यों ऐसा क्यों हो रहा है? भगवान मुझे किस गलती की सजा दे रहे हैं? दो साल के अंतराल में एक के बाद एक लगातार दो संतानों की मौत। मेरे लिए जीवन जैसे ठहर गया था। खबर मिलते ही बाबूजी आये और मुझे शेरपुर लेकर चले गए।

बाद में पतिदेव ने बताया कि ससुराल परिवार में भी मातम का माहौल था। हमारे ससुराल की एक खास बात है कि परिवार में चाहे कितना भी बड़ा दुख पड़ जाए, मर्द लोगों की आंखों से आंसू नहीं निकलते हैं। अपने पति की आंखों में मैंने कभी भी आंसू नहीं देखा है। पर उनके एक बड़े भाई, जिन्हें बच्चे गोरू बाबू (उनका रंग गोरा था) के नाम से पुकारते थे, खूब रोये थे। उषा की मृत्यु से सभी दुखी थे। आज भी लोग उसे अफसोस के साथ याद करते हैं।

शेरपुर पहुंचने के बाद धीरे-धीरे मेरा रोना बन्द होने लगा पर मैं एकदम चुप चुप रहने लगी। किसी काम में मन नहीं लगता था। कई दिनों तक मैंने नहाया भी नहीं। बार-बार मन में यही आता कि आखिर ये मेरे साथ ही क्यों हुआ? मेरी क्या गलती है? मेरी हालत को देखकर मां और बाबूजी चिन्तित रहने लगे।

दोनों बच्चों का गुजरना मेरे ऊपर एक बड़ा भावनात्मक, मानसिक आघात था। मेरे लिए वो व्यक्तिगत तो था ही पर सामाजिक भी था। उन दिनों भारत में शिशु मृत्यु दर वैसे भी काफी ज्यादा था। जैसा कि पहले भी मैंने बताया कि चार में से एक शिशु की मौत हो जाती थी। और उसका मूल कारण था स्वास्थ्य सेवाओं में कमी। पर इसका खामियाजा भुगतना पड़ता था औरतों को।

जिन औरतौं के शिशु मरते थे उन्हें हमारे यहां मरौंछ कहा करते थे। और घर में उन्हें शादी, छट्ठी (शिशु के जन्म के बाद का छठा दिन) जैसे शुभ कार्यक्रमों से दूर रखा जाता था। इस परिपाटी का महत्व मुझे आज तक समझ में नहीं आया। ऐसी परिस्थिति में एक तो औरत खुद पीड़ा में होती है। पर वो अगर उस पीड़ा को भूलने की कोशिश भी करे तो समाज उसे भूलने नहीं देता था। पुरुष इस सामाजिक तिरस्कार से बिल्कुल अछूता रहता था। शायद यही कारण है कि मेरे दिल में आज भी उन बातों की टीस मौजूद है।

हमारे गांव में उन दिनों एक संन्यासी आते थे। मेरे बाबूजी के हमउम्र और दोस्त थे। उनका नाम था हरिनंदन शर्मा। नवादा जिले के लाल विघा नामक गांव के रहने वाले थे। संस्कृत और हिन्दी के विद्वान थे। उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में भी भाग लिया था। आध्यात्म की ओर झुकाव बढ़ने के कारण गृहस्थ जीवन को छोड़ वो संन्यासी बन गए थे।

हमारे गांव शेरपुर में ही उन्होंने गंगा किनारे 1947 में अपने गुरु से औपचारिक दीक्षा ली, संन्यासी का वस्त्र और नाम धारण किया था।और यही वजह है कि शेरपुर को वो अपनी जन्मस्थली मानने लगे। संन्यासी बनने के बाद वो स्वामी विज्ञानानंद के नाम से जाने जाने लगे। गांव के लोग उन्हें जोगी जी कहकर पुकारते थे।

जोगी जी गांव गांव में घूमकर गीता और रामायण पर प्रवचन दिया करते थे। उनकी विद्वता का Gita press, Gorakhpur वाले Hanuman Prasad Poddar, जसदयाल गोयनका, एवं संतश्री रामसुखदास जी भी सम्मान करते थे। यही वजह है कि जोगी जी को गीता भवन ऋषिकेश में प्रत्येक वर्ष गीता पर प्रवचन देने के लिए आमंत्रित किया जाता था।

शेरपुर से उन्हें खास लगाव था। प्रत्येक वर्ष वो अपने सहयोगी स्वामी आनंदानन्द के साथ शेरपुर आकर एक महीना गंगा सेवन करते थे। गंगा किनारे, आम के बगीचों के बीच मंदिर के समीप बनी एक कुटिया में उनका निवास होता था। रोज शाम को उनका एक घंटे का कार्यक्रम होता था जिसमें गीता, रामायण से जुड़ी कहानियां, दृष्टांत या विवरण होता था। प्रवचन का समापन वो एक भजन से करते थे जिसकी पहली पंक्ति कुछ इस प्रकार है:

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव।

उनकी इस पंक्ति को उन्हीं के अंदाज में गाने की कोशिश मेरा लड़का आज भी करता है। जब वह छोटा था तो उसे मैं प्रवचन सुनने साथ में ले जाती थी। वो बताता है कि वो हमेशा प्रवचन के अन्त में जोगी जी के गायन का इंतजार करता था और फिर उसके बाद प्रसाद के रूप में मिश्री का।

उषा के गुजरने के बाद अवसाद की अवस्था में जब मैं शेरपुर में रह रही थी, उन्हीं दिनों जोगी जी वहां आये हुए थे। बाबूजी मुझे उनसे मिलाने ले गए। उन्होंने गौर से मेरी बातों को सुना। फिर समझाया कि सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दुख के बाद सुख और सुख के बाद दुख का आना निश्चित है। इसलिए हमें न तो दुख में कभी घबराना, न ही सुख में कभी इतराना चाहिए। जोगी जी की बातों को सुनकर मुझे थोड़ी राहत मिली।

इसके बाद रोज शाम को मैं उनका प्रवचन सुनने जाने लगी। उनके हरेक प्रवचन में कोई न कोई नया श्लोक, नया संदेश होता था। और मैं घर आकर धार्मिक ग्रंथों जैसे गीता, रामायण में उन्हें खोजती और फिर उनका अर्थ लिखती थी। धीरे धीरे मेरे अंदर नयी चीजों को जानने, सीखने की इच्छा होने लगी और मैं खुश रहने लगी।

इस बीच पतिदेव की नौकरी लग गई, राज्य सरकार के सहकारिता विभाग में। उसी साल(1958) मेरे भाई, चन्द्रमौली, की शादी भी हुई। शादी में शामिल होने के लिए मेरे पति रांची से आए थे। रांची में उस समय उनकी ट्रेनिंग चल रही थी।

©arunjee

Photo: तारा देवी एवं राम बहादुर सिंह,
2 June 1986

मैया की कहानी, मैया की जुबानी 6

1950-60 के आसपास भारत में शिशु मृत्यु दर काफी ज्यादा था। एक साल से कम उम्र के शिशुओं की मृत्यु सबसे ज्यादा होती थी। हमारे पड़ोस में शायद ही कोई ऐसा घर होगा जिसमें किसी एक महिला के बच्चे की मृत्यु न हुई हो। हाल में मैं अपनी बड़ी दीदी के लड़के, बिनोद, से बात कर रही थी तो उसने बताया कि 1960 में शिशु मृत्यु दर लगभग 25 प्रतिशत था। मतलब 100 में 25 बच्चे मर जाते थे। बिनोद डाक्टर है और आजकल बड़हिया के सरकारी अस्पताल का इंचार्ज। स्वास्थ्य सेवाओं की उसे अच्छी जानकारी है।

एक गर्भवती महिला को खान-पान, रहन-सहन पर काफी ध्यान देना चाहिए। पोषक तत्वों का भी ध्यान रखना होता है। अपने मायके, शेरपुर, आने के बाद मैंने अपने खाने-पीने पर उतना ध्यान नहीं दिया। शरीर की जरूरत की बजाय मैं स्वाद के अनुसार आहार लेना ज्यादा पसंद करने लगी। थोड़ी कमजोर तो मैं पहले से थी, ऊपर से गर्भावस्था और पोषक तत्वों की कमी ने हालत और नाजुक कर दी। गांव में प्रसव के पहले जांच करवाने की उतनी सुविधा नहीं थी, न ही जागरूकता।

नौवें महीने में जब मुझे असहनीय प्रसव पीड़ा शुरू हुई तो बाबूजी ने पालकी बुलवाकर मां के साथ मुझे मोकामा के पादरी अस्पताल भेजा। उस पूरे इलाके में वही एकमात्र ऐसा अस्पताल था जहां लोग 50 मील दूर से अपना इलाज करवाने आते थे: बड़हिया, बेगुसराय, लक्खीसराय, बरबीघा जैसे शहर और उनके आसपास के गांवों से। 1948 में एक छोटे पैमाने पर पादरियों के द्वारा खोला गया ये अस्पताल धीरे धीरे लोकप्रिय हो रहा था। नाम तो इसका था नाज़रेथ अस्पताल पर लोगों में ये पादरी अस्पताल के रूप में जाना जाता था।

शेरपुर से मोकामा की दूरी 12 किलोमीटर है। उस लंबी दूरी को प्रसव की असहनीय पीड़ा के साथ पालकी से मैंने कैसे तय किया, ये मेरा ईश्वर जानता है। उस समय मुझपर जो बीती, आज सोचती हूं तो सिहरन होने लगती है। दूसरा कोई साधन भी नहीं था। खैर, किसी तरह मैं अस्पताल तो पहुंच गई। पर मेरा पहला बच्चा, लड़का, पैदा होने के चार दिन बाद गुजर गया।

मेरे लिए ये एक बड़ा झटका था। नौ महीने तक शिशु को अपने गर्भ में पालना, फिर असहनीय पीड़ा के बाद उसे खो देना। बहुत ही कष्टदायक था। और ये शारीरिक कष्ट से अधिक मानसिक और भावनात्मक था।

सिजेरियन ऑपरेशन को उस समय लोग ‘बड़ी आपरेशन’ कहते थे। लेकिन मेरे प्रसव के बाद डाक्टर ने जो आपरेशन किया था, उसका नाम था ‘छोटी आपरेशन’। चिकित्सा के तकनीक का उतना विकास नहीं हुआ था। कहने को ‘छोटी आपरेशन’ था, पर अस्पताल में मुझे नौ दिन तक रहना पड़ा था।

मोकामा ससुराल होने के कारण रोज कोई न कोई मुझसे मिलने आते थे: सरकार जी(सास), ननद, जेठानी, देवर वगैरह। किन्तु उस कठिन समय में सबसे बड़े सम्बल थे मेरे पति। वे रोज शाम को आते अपने दोस्तों को लेकर। पूरी शाम मेरे पास बैठकर अपने अंदाज में हंसी ठहाके के साथ दिल बहलाया करते थे। ऐसा लगता था मानो उन पर इस बात कोई असर ही नहीं है। उनको देखकर अच्छा लगता था। जितनी देर वो साथ बैठते मैं अपना दुख भूल जाती थी।

अस्पताल से छुट्टी मिलने पर मैं शेरपुर चली गई। पति का साथ और बाबूजी, मां के स्नेह के सहारे धीरे धीरे उस दुख को भूलने लगी।

बाबूजी हम तीनों बहनों को बहुत प्यार करते थे। वे हमें ससुराल के लिए तभी विदा करना चाहते थे जब हमारे पतियों की पढ़ाई समाप्त होने के बाद नौकरी लग जाय। बड़ी दीदी को उन्होंने नौ साल शेरपुर में रखा। बड़का मेहमान(बड़की दी के पति) की नौकरी लगने के बाद ही उसका ससुराल में नियमित रूप से रहना शुरू हुआ। मंझली दीदी भी हमारे यहां लगातार बारह साल रही। इस बीच उसके बच्चों का जन्म से लेकर पालन-पोषण सब यहीं हुआ। पर मेरे मामले में ये पूरी तरह से सम्भव नहीं हो पाया।

मेरे पति उस समय मुंगेर के आर डी ऐंड डी जे कालेज में बीए के विद्यार्थी थे। कालेज से जब कभी भी छुट्टी मिलती, वो शेरपुर चले आते थे। एकबार शेरपुर में उन्हें रहने में कुछ दिक्कत हुई तो वे मुझे ससुराल (मोकामा) लेकर चले गए। बाबूजी और मां ने मना करने की कोशिश भी की पर वो एक नहीं माने।

ससुराल पहुंचने पर हाल ये था कि हमारे ससुर के तीनों भाइयों के परिवार को मिलाकर लगभग 50 लोग थे। सभी का खाना एक ही चूल्हे पर, एक साथ बनता था। हम सभी औरतें मिल कर बनाते थे। इसके अलावा भी दिन भर कुछ न कुछ काम होता ही था। करते करते मैं थक जाती थी। इसी बीच मैं फिर गर्भवती हो गई। कमजोरी इतनी हुई कि दस दिन के लिए मुझे नाज़रेथ अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। इसके बाद ससुराल में लोग मेरे स्वास्थ्य के प्रति सचेत हुए।

1956 में मुझे दूसरी संतान की प्राप्ति हुई। इस बार लड़की हुई, जिसे पाकर मैं फूले नहीं समाई। उसका नाम हमने उषा रखा। मेरे जीवन में वो उषा की किरण की तरह आई। सुन्दर और सुडौल। जल्द ही उषा परिवार की लाडली बन गई। पतिदेव के भाई लोग उसे गोद में उठाए रहते थे। जब कभी भी मैं उसे बंगला(दालान) पर भिजवाती तो मेरे भैंसुर लोग गर्व से गोद में लेकर उसे घूमते थे। आज मेरे चार बच्चे हैं। पर अभी भी लोग कहते हैं कि उषा के इतनी सुन्दर कोई नहीं है, बिल्कुल अपने पिता पर गई थी।

उषा के आने के बाद पहले संतान को खोने का ग़म मैं एकदम भूल गयी। मेरे जीवन की वो धूरी बन गई। उसी के चारो ओर मेरा जीवन घूमने लगा। आठ महीने कैसे गुजर गए, पता ही नहीं चला।

देखते देखते नागपंचमी आ गया। वर्षा ऋतु का ये पर्व सावन के पांचवें दिन हमारे क्षेत्र में काफी धूमधाम से मनाया जाता है। नाग देवता की पूजा होती है। बरसात के दिनों में सांपों का प्रकोप गांव देहात में बढ़ जाता है। शायद इसीलिए इस त्योहार को मनाने और उसमें नीम की पत्तियों के प्रयोग की प्रथा शुरू हुई होगी।

सुबह से घर में त्योहार की धूम थी। सभी लोग व्यस्त थे। दिन की शुरुआत हुई नीम की पांच पत्तियों के साथ दही खाने से। कुछ लोग हरेक कमरे के आगे नीम की एक एक टहनी को लगा रहे थे। नाग की पूजा के लिए दूध और धान का लावा परोसा जा रहा था। खाने के व्यंजन जैसे फुटपुर(दलपूरी), तसमय(खीर) इत्यादि बन रहे थे और लोग खा रहे थे। फलों में आम और कटहल का कोवा।

इधर मेरी बेटी उषा को सुबह से ही दस्त होने लगा। मुझे बच्चों की बीमारी के बारे में न कोई जानकारी थी, ना ही कोई अनुभव। मैंने तुरंत ही सरकार जी को इसकी सूचना दी। पतिदेव घर में थे पर इस बारे में वो कोई फैसला नहीं ले सकते थे। वैसे भी वो एक विद्यार्थी थे। अभी नौकरी नहीं लगी थी। खुद भी अपनी पढ़ाई के लिए मालिक के ऊपर निर्भर थे। नियम ये था कि घर का कोई भी सदस्य अगर बीमार पड़े तो उसके इलाज की जिम्मेवारी मालिक की होती थी। मालिक मतलब परिवार का मुखिया। प्रायः ऐसा होता था कि मालिक सबसे पहले वैद्य जी को बुलवाते थे। वैद्य जी की दवा का अगर असर नहीं हुआ, फिर उसे एलोपैथिक डाक्टर के पास या अस्पताल भेजा जाता था।

उषा के मामले भी यही हुआ। वैद्य जी ने दवा दी, कोई असर नहीं हुआ। दोपहर तक शरीर में पानी की कमी होने के कारण उसकी हालत बिगड़ने लगी। जब मैं रोने पीटने लगी तो फिर जल्दी से उसे अस्पताल ले जाने की व्यवस्था की गई। पर तब तक देर हो चुकी थी। अस्पताल के रास्ते में ही मेरी प्यारी बेटी उषा चल बसी।

©arunjee

Photo: Tara Devi, 31 October 2016
Photo credit: Arun Jee

मैया की कहानी, मैया की जुबानी 4

शेरपुर में हमारा घर मिट्टी का था, उपर खपरैल। हमारे गांव में उस समय शायद सारे घर कच्ची दीवारों के ही थे। एक बार हमारे पड़ोस में चोरी हुई थी। चोर रात में घर के पीछे वाली दीवार में सेंध मारकर अंदर दाखिल हो गया। कच्ची दीवारों में सेंध मारना आसान होता है। सुबह उठकर लोगों ने देखा कि उनके घर के सारे पेटी बक्से, जिनमें कीमती कपड़े एवं जेवर थे, गायब थे।

इस तरह की चोरियां हमारे यहां आए दिन होती थीं। हमारे घर में भी एक दो बार हुई थी। एक बार तो मेरे भाई, चंद्रमौली, ने रात में ही चोर को पकड़ लिया था। वो भी एक अलग कहानी है। बहरहाल मिट्टी के हमारे घर उतने सुरक्षित नहीं थे।

मेरी शादी की तैयारी के सिलसिले में बाबूजी कई बार मोकामा मेरे ससुराल जाया करते थे। वहां से लौटने के बाद मां को बहुत सारी बातें बताया करते थे: घर-बार, लडका, उसके परिवार इत्यादि के बारे में। उस बातचीत में मैं शामिल नहीं होती थी, पर उन बातों को मैं छुप-छुप कर सुना करती थी। वो बताते थे कि पक्का का बहुत बड़ा मकान है। सुनकर काफी गर्व महसूस होता था।

मोकामा का घर गांव के पारंपरिक वास्तुकला का एक नमूना था। रोड के सामने ऊंची दीवार थी जिसके बीचो-बीच उपर चढ़ने के लिए कई सीढ़ियां। सीढ़ियों पे चढ़कर आपको एक मैदान मिलेगा, इतना बड़ा कि उसपर बच्चे गुल्ली-डंडा खेलते थे। मैदान के दांई ओर एक बड़ा चबूतरा और फिर सामने और बाईं ओर एल के आकार का खपरैल का दालान था जिसे हम बंगला भी कहते थे। सामने वाले दालान पर चढ़ने के लिए चार पांच और सीढ़ियां। फिर ठीक उसके बीचो-बीच एक विशाल दरवाजा था जिससे होकर हम घर के अंदर दाखिल होते थे। घर आयताकार था जिसके चारो ओर ग्यारह कमरे बने थे और बीच में आंगन था। घर से बाहर, पर उससे बिल्कुल सटा हुआ रसोईघर था और उसी के निकट औरतों के लिए शौचालय। छत पर जाने की सीढ़ियां अंदर ही थीं। एक कुआं भी था।

जीवन के इस नए मोड़ पर कच्चे घर से पक्के घर में मेरा प्रवेश हुआ। पर इसके अलावा और भी कई बदलाव हुए जो कम महत्वपूर्ण नहीं थे। दुल्हन के रुप में जब मैं उतरी तो पूर्ण रूप से घूंघट से ढ़की हुई। कहने को मुझे एक अलग कमरा मिला था पर शुरू के कुछ दिनों में ज्यादा समय अपने दोनों पांवों को मोड़कर, चुक्कू-मुक्कू, बैठी रहती थी। घर की औरतें, लड़कियां दिन भर मुझे घेरे रहती थीं।

नई-नवेली दुल्हन के आने पर एक रस्म होता था जिसका नाम था मुंहदिखाई। रस्म तो आज भी है लेकिन नियमों में काफी बदलाव आ गया है। मुंहदिखाई के लिए घर के या फिर पास-पड़ोस के पुरुष एवं औरत जब आते थे तो उन्हें दुल्हन का चेहरा घूंघट हटा कर दिखाया जाता था। दुल्हन की आंखें एकदम बंद होती थी और चेहरा भावहीन। अगर गलती से भी किसी की आंखें खुल गईं तो लोग शिकायत करते थे। मुंह देखने के बाद हरेक व्यक्ति कुछ पैसा दुल्हन को देता था। कुल मिलाकर उस समय मुझे 15 रुपये मिले होंगे। देखने के बाद लोग अपना-अपना मत भी प्रकट करते थे कि लड़की कैसी है या जोड़ी कैसी है।

मेरी एक ही ननद हैं, उम्र में मुझसे छोटी। उनका नाम है मालती। उन्होंने कई सालों बाद मुझे बताया कि उनकी एक सखी ने जब हमारी जोड़ी के बारे में कहा कि “राम नैया डगमग, सीता मैया चौगुना”, तो उसको उन्होंने खूब बुरा भला कहा था। असल में मेरे पति उस समय एकदम दुबले-पतले थे। उनके अनुपात में मेरा वजन थोड़ा ज्यादा था।

शादी के बाद मैं तीन महीने ससुराल में रही और मेरी पहचान ही बदल गई। मेरा नाम तारा था पर मुझे लोग दुल्हन के नाम से पुकारते थे और तब तक पुकारते रहे जब-तक दूसरी दुल्हन घर में नहीं आ गई। मैं व्यक्ति वाचक से जाति वाचक संज्ञा बन गई थी। बाद में मैं अपने गांव के नाम से जानी जाती थी। मैं तारा नहीं, शेरपुर वाली बन गई। ज़िन्दगी का पूरा व्याकरण बदल गया था।

नैहर में मैं एक चुलबुली लड़की थी, रोज गंगा नहाने जाती थी। लेकिन ससुराल में अपने घूंघट में सिमटकर रह गई थी। कमरे से मुझे केवल शौच के लिए बाहर निकाला जाता था, वो भी पूरी तरह से ढ़ककर। नहीं तो खाना-पीना, नहाना उसी कमरे में होता था। नैहर के हमारे परिवार में इतनी सख्ती नहीं थी। ससुराल में हंसना भी मना था।

एक जेठानी और एक चचेरी ननद दोनों मेरी हमउम्र थीं। एक का नाम था स्वर्णलता और दूसरी थी गोदावरी। उन दोनों की शादियां हो गई थी। इसलिए जब कभी भी मौका मिलता था तो हम एक दूसरे से अपनी अपनी शादी के अनुभवों को साझा करते थे और हंसते भी थे। एक बार ऐसा हुआ कि जब हमारी हंसी की आवाज बाहर चली गई तो बाहर से एक बुजुर्ग महिला आईं और कहने लगीं कि दुल्हन को इतनी जोर से नहीं हंसना चाहिए।

©arunjee

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Photo 1: Tara Devi, 2015
Photo 2: Her in-law’s house, 2006
Photo credit: Arun Jee