पिछले सप्ताह मेरे व्हाट्सअप पर एक फोटो आया, जो नीचे संलग्न है। फोटो के नीचे लिखा था: चाय (महाकाव्य) पढ़िये। मेसेज भेजा था हमारे मुहल्ले के Rajiv Ranjan Prasad ने। फोटो को देखकर लगा कि राजीव जी ने अपने यहां मुझे चाय पे बुलाया है।
उसी दिन जब वे शाम को मिले तो उन्होंने ‘चाय (महाकाव्य)’ के बारे में जानकारी दी, जो एक पुस्तक है। उनके पिता डॉ सुरेश प्रसाद की एक रचना। ज्ञान गंगा दिल्ली से छपी है। अगले दिन राजीव जी ने सचमुच मुझे चाय के साथ चाय महाकाव्य की एक प्रति उपहार स्वरूप दिया।
क़िताब को देखकर, पढ़कर मैं अचंभित हूं। इसके ऊपर हिंदी साहित्य की महान विभूतियों की टिप्पणियां/समीक्षाएं हैं।
‘चाय (महाकाव्य)’ के ‘दो शब्द ‘ लिखते हुए सुमित्रानंदन पंत कहते हैं:
“मैं डॉ सुरेश प्रसाद को बधाई देता हूं कि उन्होंने अपनी ललित भावभीनी भाषा की प्याली में चाय रूपी औषधि भरकर लोगों का उपकार किया। सिंधु मंथन के कारण ही अमृत के बदले चाय की ही प्याली निकली होगी। इस काव्य को पढ़कर मुझे रत्तीभर संदेह नहीं रहा।”
गुज़रे ज़माने के उन महान साहित्यकारों, कवियों, लेखकों की एक फेहरिस्त है जिन्होंने अपने शब्दों से इस पुस्तक को सुशोभित किया है। उनमें महादेवी वर्मा से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी, वियोगी हरि, हरिवंशराय बच्चन, राजेन्द्र अवस्थी, अशोक चक्रधर, काका हाथरसी, रामदयाल पांडेय… असल में लिस्ट काफी लंबी है।
महादेवी वर्मा लिखती हैं: “डॉ सुरेश प्रसाद ने महाकाव्य के लिए सर्वथा नवीन विषय चुना है। उससे अनेक व्यक्ति चौंकेंगे और अपने चायपाई आनंद भी प्राप्त करेंगे।” वैसे महादेवी जी के उन अनेक व्यक्तियों में मैं भी एक हूं।
रामदयाल पांडेय द्वारा लिखी गई तीन पृष्ठों की इसकी भूमिका का शीर्षक है ‘असाधारण महाकाव्य’।
पांच सौ से भी अधिक पृष्ठों वाली इस पुस्तक की महिमा अपरम्पार है। इसके बारे में और कहूं तो बस कहता ही चला जाऊं…