पेरिस की हमारी ये पहली शाम थी। हमने तय किया था कि सबसे पहले हम कुछ गर्म कपड़े खरीदेंगे। फिर सेन्न नदी के तट पर घूमेंगे। पुल से वहां के ऐतिहासिक स्थलों, इमारतों और शहर की गतिविधियों का अवलोकन करेंगे। सेन्न नदी पेरिस के ठीक बीच से होकर गुजरती है। यह शहर को दो भागों में बांटती है। इसकी चौड़ाई पटना में गंगा की चौड़ाई से काफी कम है। शायद गंडक के इतनी चौड़ी होगी। इसके ऊपर जगह जगह पर पुल बने हैं, जहां से शाम में शहर की सुन्दरता देखते बनती है।
योजना के मुताबिक शापिंग के बाद हम (बन्दना, इंचरा, तन्मय, मेधा और मैं) सेन्न नदी के ऊपर बने एक सुंदर पुल पर चढ़ गए। यह लूव्र म्यूजियम के लगभग सामने था। आसमान में बादल छाए हुए थे। बीच बीच में हल्की बारिश की बूंदें आ जा रही थीं। शाम ढल रही थी। चारो ओर शहर का नज़ारा अद्भुत था। पुल के दोनों ओर बड़ी बड़ी ऐतिहासिक इमारतें हमें लुभा रही थीं। लूव्र भी उनमें से एक था। पेरिस शहर के भवनों की कुछ खास विशेषताएं हैं। उनके बारे में अलग से किसी दूसरे पोस्ट में बात करेंगे।
पुल के नीचे नदी अपने निर्बाध गति से बह रही थी। पानी की सतह पर सैलानियों को लेकर बढ़ते हुए मोटरबोट सुंदर लग रहे थे। वैसे नदी का पानी साफ नहीं है। सुना है यहां की सरकार ने अगले ओलंपिक खेलों (2024) की शुरुआत होने तक सेन्न की सफाई को पूरा करने का लक्ष्य रखा है।
पुल पर बने फुटपाथ के दोनों ओर हम सभी फोटो खींचने में जुट गए। पर जल्द ही इस काम को इंचरा ने संभाल लिया। उसकी फोटोग्राफी काफी अच्छी है। उसने अलग अलग ऐंगल्स से बहुत सारे फोटो खींचे। सपनों के शहर में अब शाम हो रही थी। नदी के पश्चिमी ओर दूर एक छोर से आइफ़िल टावर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था।
मेधा ने बताया कि फ्रांसीसी क्रांति के दौरान पास ही के एक महल में रानी मेरी ऐन्टोनेट को कैद करके रखा गया था। मेरी ऐन्टोनेट राजा लुई 16 की पत्नी थी। बाद में क्रांतिकारियों ने पूरी जनता के सामने गिलोटीन से रानी का सर धड़ से अलग कर दिया। राजा लुई को मौत की सजा इसके पहले ही मिल चुकी थी। पूरे लुई राजवंश का अंत हो गया।
फ्रांसीसी क्रांति पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल है। इसके बारे में कहा जाता है कि इसी ने लोकतंत्र के आधुनिक स्वरूप की नींव रखी है। पर ये जगह उस क्रांति से जुड़ा है। सोचकर सिहरन होने लगी। सोचने लगा कि आखिर रानी मेरी के ऊपर क्या इल्ज़ाम थे जो उन्हें इतनी बड़ी सजा मिली। मुझे इतना तो मालूम था कि राजा और उसके परिवार को मृत्यु दण्ड मिला था। पर इसकी विस्तृत जानकारी नहीं थी।
अंधेरा अब धीरे धीरे गहरा होने लगा था। पुल के ऊपर लगी बत्तियां जल उठी थीं। घर लौटने के लिए हम मेट्रो की ओर बढ़ने लगे। मेट्रो में मेरे ऊपर पेरिस की पहली शाम का काफी असर था। उन नज़ारों और उनसे जुड़ी कहानियां इतनी हावी थीं कि मैं खो गया। तन्मय, बन्दना, इंचरा और मेधा आगे खड़े थे। और मैं कोने में एक कुर्सी पर बैठा था। अचानक ट्रेन रुकी और वे लोग उतर गए। मैं भी जाने के लिए उठा। पर जब तक मेरी तंद्रा टूटी तब-तक शीशे का दरवाजा बन्द हो चुका था। मैं शीशे के अंदर से सबको बाहर प्लेटफार्म पर खड़ा देख रहा था। वे लोग विस्फारित नेत्रों से ट्रेन के डब्बे में जाते मुझे देखते रह गए। ये सब इतना जल्दी हुआ कि मुझे सोचने का भी मौका नहीं मिला।
आस-पास खड़े यात्रियों में से एक ने मुझे अगले स्टेशन पर उतरने का इशारा किया। तब-तक प्लेटफार्म पर गाड़ी पहुंच चुकी थी। मैं उतर गया। मेरे पास मोबाइल था, पर इंटरनेशनल कॉल की सुविधा नहीं थी। इंटरनेट भी नहीं। मोबाइल पर तन्मय के घर का पता मौजूद था। लेकिन फिर किसको बताएं? किस भाषा में बताएं? हिंदी किसी को आती नहीं, अंग्रेजी भी मुश्किल। फ़्रेंच मुझे नहीं आती। बहुत सारे सवाल मन में आ रहे थे। थोड़ी घबराहट भी होने लगी। पेरिस की ये मेरी पहली शाम थी और सचमुच मैं खो गया था।
बच्चों ने मुझे कैसे ढूंढ़ा? अगले पोस्ट में…