बन्दना और बच्चों से अलग होने के बाद पेरिस के जिस मेट्रो स्टेशन पर मैं उतरा था उसका नाम है रिपब्लिक। यह पेरिस के एक महत्वपूर्ण स्मारक के बिल्कुल करीब है और उसका नाम भी रिपब्लिक (monument a la Republique) है। उसका निर्माण फ्रांसीसी क्रांति के 90वें सालगिरह के अवसर पर, 1879 में, हुआ था। लगभग तीन एकड़ के खुले मैदान के बीचो-बीच बने इस स्मारक के केन्द्र में एक महिला की विशाल मूर्ति है जो फ्रांस के गणतंत्र का प्रतीक है। उसके तीनों तरफ गणतंत्र के तीन महत्वपूर्ण स्तंभों, आज़ादी, समानता एवं भाईचारा, को दर्शाती तीन छोटी-छोटी मूर्तियां हैं। रिपब्लिक मेट्रो स्टेशन का नाम इसी स्मारक से जुड़ा है।
पिछले पोस्ट में मैं बता चुका हूं कि रिपब्लिक स्टेशन पर जब मैं उतरा तो पूरी तरह से डिसकनेक्टेड था। मेरे पास सम्पर्क का कोई साधन नहीं था। हालांकि तन्मय की योजना थी कि हमारे पेरिस पहुंचने के साथ ही वह मेरे फ़ोन पर एक लोकल सिम डलवा देगा। महानगर में घूमने के लिए एक दो ऐप भी डाउनलोड करवाना था। पर तब तक ये सब हुआ नहीं था। इसलिए मेरे पास फोन जरूर था पर मैं न तो कॉल कर सकता था न ही मेसेजिंग। वे लोग भी मुझसे सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकते थे। भाषा की एक अलग ही समस्या थी। हां, मेरे फ़ोन में तन्मय के घर का पता जरूर था। और था मेरे पास मेरा फोरेक्स कार्ड। खर्च करने के लिए यूरो करेंसी।
स्टेशन पर मेरे पास पहला विकल्प ये था कि मैं सीढ़ियों से चढ़कर सामने वाले प्लेटफार्म पर उतर जाऊं। फिर मेट्रो पकड़कर एक स्टेशन पीछे जाऊं। वहीं जहां बन्दना, तन्मय, इंचरा और मेधा उतरे थे। हालांकि मेरे जैसे अजनबी के लिए यह भी एक चुनौती थी। क्यों कि रिपब्लिक एक मेट्रो जंक्शन है। यहां पांच अलग-अलग जगहों से आनेवाली लाइनें मिलती हैं। सही रास्ते को चुनकर, सही जगह पहुंचना मेरे लिए कठिन था। ऊपर रास्तों का एक जाल था। और सारे नाम फ्रेंच में लिखे हुए। खैर, अंदाज से किसी तरह मैं दूसरे प्लेटफार्म पर पहुंच गया और जैसे ही एक मेट्रो ट्रेन आई, मैं उस पर सवार हो गया। जो पहला स्टेशन आया उसका नाम था ‘आर्ट्स एंड मीटर्स’ (Arts et Meters)। वहीं उतर गया।
नाम के अनुरूप ही इस स्टेशन के दोनों प्लेटफार्म्स की दीवारों पर तांबे की सुन्दर कलाकृतियां हैं। असल में आर्ट्स एंड मीटर्स फ्रांस के एक सुप्रसिद्ध इंजीनियरिंग संस्थान का नाम है। उस संस्थान की तुलना अमरीका के गिने-चुने आईवी लीग विश्वविद्यालयों, इंग्लैंड के औकसफोर्ड, कैम्ब्रिज वगैरह से की जाती है। उसकी शाखाएं फ्रांस के सभी बड़े बड़े शहरों में हैं। उसमें लगभग 70000 विद्यार्थी पढ़ते हैं। ये मेट्रो स्टेशन उसी नामी संस्थान के नजदीक है। इसीलिए इसका नाम भी आर्ट्स एंड मीटर्स रखा गया है।
प्लेटफार्म पर उतरकर जब मैंने सामने वाले प्लेटफार्म पर नजर दौड़ाई तो तन्मय, बन्दना, इंचरा मेधा किसी का कोई अता-पता नहीं था। मैंने सोचा कि शायद कुछ देर तक इंतजार करने पर उनसे भेंट हो जाएगी। वहां कुछ देर मैं यूं ही इधर उधर टहलता रहा। नज़र गड़ाए रखा कि उनमें से कोई एक भी दिख जाए। दो तीन गाड़ियां गुजर गईं। बहुत सारे यात्री आए और चले गए। पर वे नज़र नहीं आए। बाद में उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने तीन मेट्रो ट्रेन के आने तक मेरा इंतजार किया था। उसके बाद वे मुझे खोजने निकल गए थे।
उन लोगों से अलग हुए अब एक घंटे से ज्यादा हो गया था। प्लेटफार्म पर यात्रियों की संख्या कम होने लगी थी और मेरी बेचैनी बढ़ने लगी थी। पिछली शाम तन्मय और इंचरा ने पेरिस में पाकेटमारी, ठगी और छीना-छपटी के कुछ किस्से सुनाए थे। उन्होंने इस बावत सावधानी बरतने के लिए हमें आगाह भी किया था। आने वाले दिनों में पाकेटमारों से भी हमारा सामना होने वाला था। पर उसकी कहानी किसी और दिन।
प्लेटफार्म पर जैसे जैसे रात गहरी होने लगी, मुझे लगने लगा कि अब मुझे कोई और उपाय ढूंढना होगा। और इसके लिए मेट्रो की गुफाओं से बाहर निकलना जरूरी था। पेरिस में धरती के अंदर मेट्रो नेटवर्क के रास्ते मुझे गुफाओं की तरह ही लगने लगे थे। अनजान, रहस्यमय और डरावने। एक डर यह भी था कि कहीं वहां कुछ समय के लिए अगर बिजली गुल हो जाय तो क्या होगा? इसलिए अब मुझे बाहर निकलने की छटपटाहट होने लगी। पर निकलें अगर तो किस रास्ते?
हिम्मत करके मैंने एक व्यक्ति से वहां से बाहर निकलने का रास्ता पूछा? मेरा ये सौभाग्य था उसने बड़ी विनम्रता और मुस्कुराहट के साथ अंग्रेजी में बताया कि जिस रास्ते के ऊपर Sortie लिखा हो उस रास्ते से आप बाहर निकल सकते हैं। Sortie एक फ्रेंच शब्द है जिसका अंग्रेजी में मतलब है exit और हिंदी में निकास द्वार। उस व्यक्ति का मिलना एक सौभाग्य इसलिए था कि आगे लोगों से मदद मिलने में काफी दिक्कत हुई। पेरिस में अजनबियों से प्रायः लोग परहेज करते हैं।
खैर उस सज्जन की बात को ध्यान में रखते हुए मैं मेट्रो के पाताल लोक से बाहर आ गया। थोड़ी राहत महसूस हो रही थी। खुले आसमान के नीचे खुली हवा में सांस लेकर। सामने एक रेस्तरां था। उसका नाम भी था आर्ट्स एंड मीटर्स। उसके किनारे से होकर मैं एक चौक के पास रुक गया। वहां मैंने कुछ राहगीरों से अंग्रेजी में मदद के लिए अनुरोध किया। मैं चाहता था कि कोई मुझे टैक्सी खोजने में मदद कर दे। पर किसी भी व्यक्ति ने मेरी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा। फिर मैंने रोड पर किसी से मदद मांगने का इरादा छोड़ दिया। अब मैं सोचने लगा कि लौटकर मुझे आर्ट्स एंड मीटर्स नामक उस रेस्तरां में जाना चाहिए और वहीं रेस्तरां वाले से मदद लेनी चाहिए।
अभी मैं रेस्तरां के प्रवेश द्वार पर पहुंचने ही वाला था कि मेरे फ़ोन पर एक अनजान नंबर से फोन आया। मैंने जल्दी से फोन उठाया। उधर से सुकन्या की आवाज़ थी। मेधा की दोस्त। उसने पूछा कि मैं कहां हूं। बेंगलुरु से बात कर रही थी। उसके तुरंत बाद मेधा का, फिर इंचरा का वाट्सअप कॉल आ गया। इसके बाद मैंने उन्हें अपना लोकेशन शेयर कर दिया। आधे घंटे के अंदर तन्मय उस रेस्तरां में आ गया। मैं वहीं उसका इंतजार कर रहा था।
असल में आर्ट्स एंड मीटर्स स्टेशन पर जब मैं इन लोगों से अलग हुआ था तो कुछ देर इंतजार के बाद ये लोग तीन तरफ मुझे खोजने निकल पड़े थे। तन्मय और इंचरा मेट्रो के उसी लाइन पर दो विपरीत दिशाओं की ओर चल पड़े थे। मेधा और बन्दना घर लौट गए थे। रास्ते में मेधा ने बेंगलूर में अपनी दोस्त सुकन्या की मदद से मेरे फ़ोन पर इंटरनेशनल कॉल का रिचार्ज करवा दिया।
घर लौटने के बाद मुझे सभी लोगों से बहुत सारा ज्ञान मिला। मिलने की खुशी में हम डिनर के लिए एक वियतनामी रेस्तरां में गए।
अब जब भी हम बाहर घूमने जाते हैं तो बच्चे हमारे आगे और पीछे चलते हैं और गाते रहते हैं:
“तीतर के दो आगे तीतर
तीतर के दो पीछे तीतर…”
हालांकि अब पेरिस के रंग ढंग से हम धीरे-धीरे अवगत हो रहे हैं।