मेरे नए मित्र अरुण जी (अरुण कमल नहीं) ने इल्या कमिन्स्की और उनकी कविताओं के बारे में जब पहली बार बात की थी, तभी से मैं इस कवि के बारे में उत्सुक था। ‘मगध’ के दूसरे अंक में अरुण जी का इस कवि पर लिखा गया एक लेख और उनकी कुछ कविताओं के अनुवाद प्रकाशित भी किए थे। अभी हाल में यह देख कर अतीव प्रसन्नता हुई कि अरुण जी द्वारा अनूदित इल्या कमिन्स्की के काव्य-संकलन ‘डेफ रिपब्लिक’ का हिंदी-अनुवाद ‘बहरा लोकतंत्र’ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हो गया है। तीन रोज पहले जब इस किताब के साथ वह आए तब शाम सुहानी हो गई। चाय पर हमलोग देर तक इस कवि और उसकी दुनिया पर बात करते रहे।
इल्या कमिन्स्की अभी युवा हैं। अप्रैल 1977 के जन्मे। यूक्रेन के ओडेसा शहर में उनका जन्म हुआ, जो तब सोवियत समाजवादी रिपब्लिक का हिस्सा था। यहूदी परिवार में जन्म लेने के कारण उन्हें नस्ली भेदभाव और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा और अंततः उनके परिवार ने अमेरिका में बसने का निर्णय लिया। फिलहाल कवि न्यू जर्सी में रहता है और पेशे से अध्यापक है।
कामिन्स्की ने बचपन से मुसीबतें झेलीं हैं। पांच साल की उम्र में ही गलसुए (मंफ) की बीमारी हुई और गलत चिकित्सा के कारण सुनने की शक्ति बहुत कमजोर हो गई। नस्ली भेदभाव की परिस्थितियों ने भी उन्हें काफी परेशान किया। उन्होंने किशोर काल में ही सोवियत संघ के पतन और विघटन को देखा, जो एक बड़े वैचारिक मिथ्याचार का भी विघटन था। इन सब स्थितियों के बीच उनके मानस का निर्माण हुआ। शायद यही कारण है कि सत्ता और राजनीति के पाखण्ड को वह तनिक भिन्न नजरिए से देख पाते हैं। किसी रचनाकार के लिए अपने समय के पाखंड को देखना जरूरी होता है। जो रचनाकार इसे जितनी सूक्ष्मता के साथ अभिव्यक्त करता है, वह उसी अनुपात में महत्वपूर्ण होता है।
कामिन्स्की इसी रूप में हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी एक मुसीबत यह भी है कि उनमें अनेक राष्ट्रीयताएं और जुबानें समाहित या जज्ब हैं। वह यूक्रेनी भी हैं और अमेरिकी भी। थोड़े रूसी भी। वह उस जुबान (अंग्रेजी) में लिखते हैं, जिसे उनके परिवार में कोई भी ठीक से नहीं समझता। पता नहीं यह उनकी पीड़ा है या सुख; लेकिन हकीकत तो है।
कवि के अब तक दो संकलन प्रकाशित हैं। 2004 में पहला संकलन ‘डांसिंग इन ओडेसा’ है, दूसरा 2019 में प्रकाशित ‘डेफ रिपब्लिक’। डेफ रिपब्लिक के प्रकाशन ने उन्हें सुर्ख़ियों में ला दिया। यह ऐसे समय में आया जब दुनिया की राजनीति लगातार अमानवीय और अनुदार हो रही थी। क्या पश्चिम, क्या पूरब, हर तरफ सत्ता अधिक हिंसक और क्रूर होती दिख रही थी। दुनिया भर के सामाजिक दार्शनिकों ने इक्कीसवीं सदी में जिस लोकतान्त्रिक-उत्सव की परिकल्पना की थी, वे झूठे हो रहे थे। पीढ़ियों से अर्जित तमाम दार्शनिक और नैतिक फलसफे उत्तरसत्य के जबड़े के भीतर आ गए थे। लोकतंत्र चालबाजियों का खेल बनता जा रहा था। सत्ता अमानवीय, हिंसक, क्रूर और आक्रामक हो गई थी। ऐसे में कोई कवि यदि इन सबकी खबर नहीं लेता है तब वह कवि नहीं, मुर्दा शब्दों का व्यापारी है। इल्या इसी रूप में कवि हैं कि उन्होंने युग-सत्य का अनुभव किया है और उसे जुबान दी है; और शायद इसीलिए बीबीसी ने उन्हें दुनिया के उन बारह कलाकारों की सूची में रखा है जिन्होंने इस दुनिया में सार्थक बदलाव लाने की कोशिश की है।
‘बहरा गणतंत्र’ की कविताएं अलग-अलग भी अर्थवान हैं, लेकिन अपनी सम्पूर्णता में एक गीतिनाट्य की रचना करती हैं, जो है तो काव्य-रूप, किन्तु अपनी भयावहता से हमें स्तब्ध करती है। दो परिवर्तों में संयोजित इस काव्य-श्रृंखला की महाकाव्यता इस रूप में है कि यह एक मुकम्मल आख्यान भी रचती है, जिसका पहला हिस्सा यदि भयावह है तो दूसरे हिस्से में उम्मीद की किरणें भी हैं।
एक काल्पनिक लोक वैसेन्का है। युद्ध की विभीषिका से उत्पीड़ित स्थितियां। लोग कठपुतलियों के नाच देखने में निमग्न हैं कि एक फौजी जीप आती है और उससे एक अफसर उतर कर लोगों से कहता है कि सब यहाँ से भागो। अजीब-सी प्रतिक्रिया होती है। दर्शकों की भीड़ में एक बालक पेट्या भी है,जो बधिर है। वह अफसर को देख कर हँसता है और अपनी घृणा या प्रतिकार उस पर थूक कर करता है। पेट्या को गोली मार दी जाती है। बधिर बालक पहला शहीद होता है अपने प्रतिकार में। उसकी बहन सौन्या उसके माथे को चूमती है।
“हम चौदह लोग देखते हैं
सौन्या उस के ललाट को चूमती है
उसकी ह्रदय विदारक चीख से
आसमान में सुराख हो जाता है,
पार्क के बेंच, बरामदे की बत्तियां हिलने लगती हैं।
सौन्या के खुले मुंह में हम देखते है
पूरे देश की नग्नता।”
लेकिन यह शहादत जनता को एक सीख भी दे जाती है। जन प्रतिरोध एक शक्ल में सामने आता है। अगली सुबह जब लोग जगते हैं तब उन्होंने फौजियों को सुनने से इंकार कर दिया है। जनता ने अपने को सामूहिक तौर पर बधिर घोषित कर दिया है। ‘हम बहरे हैं’ के पोस्टर हर जगह चिपका दिए गए हैं। बहरापन छुआछूत की बीमारी बन जाती है- यह है जन प्रतिरोध का नया तरीका। गिरफ्तारियां होने लगती हैं, जुल्म ढाए जाते हैं, लेकिन हम आपको नहीं सुनते का आंदोलन चलता रहता है। इसी बीच प्रेम भी होता है, विवाह भी, कोई स्त्री गर्भ भी धारण करती है और फिर उसके नवजात शिशु को सैनिक अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं । जुल्म के नए-नए रूप उभर रहे हैं। और तब आता है दूसरा परिवर्त। मौमा गेल्या का थियेटर प्रतिरोध का एक ढांचा गढ़ता है। कठपुतलियों का डांस कराने वाला यह थियेटर ग्रुप सैनिकों को एक-एक कर आकर्षित करता है और फिर कठपुतलियों को नाचने वाले डोर से गला घोंट कर मार देता है। थियेटर की ये स्त्रियां ऐसी भूमिका निभाती हैं। हमारे देश भारत में स्वतंत्रता संग्राम में तवायफ़ों ने कुछ जगहों पर ऐसी भूमिका निभाई थी।
सब मिला कर इल्या कमिन्स्की का यह संकलन दुनिया का एक परिदृश्य हमारे सामने लाता है। कवि ने अनुभव किया है कि लोकतंत्र और हिंसा साथ-साथ नहीं चल सकते। भारत में आज़ादी की लड़ाई के दौरान गांधी ने ऐसा ही अनुभव किया था। इसलिए उन्होंने एक अहिंसक संघर्ष की रूपरेखा बनाई थी। फ़ौज-फाटे का लोकतंत्र वास्तविक लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। क्योंकि फौजी ताकत की पहली पहचान यही होती है कि वह हमेशा निर्बलों पर आक्रामक होती है। अपने से मजबूत के बरक्श वह या तो आत्मसमर्पण करती है या रक्षात्मक स्थिति में आ जाती है।
इल्या जिस काव्य-लोक को सृजित करते हैं, वह भयावह अवश्य है लेकिन एक उम्मीद भी जगाती है कि जन प्रतिरोध किसी न किसी रूप में होगा।
मेरे मित्र अरुण जी ने हिंदी-भाषियों के बीच इल्या कमिन्स्की को पूरी किताब के साथ प्रस्तुत किया है, इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। हमारे देश का लोकतंत्र भी हिंसा के मुहाने पर खड़ा है। सत्ता अपनी पूरी नग्नता और क्रूरता के साथ हाजिर है, तो प्रतिपक्ष अपनी पूरी मूर्खता के साथ। 1970 दशक के बिहार आंदोलन के दौरान कवि नागार्जुन ने एक रूपक सृजित किया था –
“इधर दुधारू गाय अड़ी थी
उधर सरकसी बक्कर था।”
कुछ वैसा ही परिदृश्य आज भारत में है। राजनीतिक चेतना शून्य है। कोई धर्म-मजहब के त्रिशूल-फरसे के साथ खड़ा है, तो कोई जाति के कटार-चाक़ू के साथ। लेकिन हमारे देश का कोई कवि इल्या की तरह का काव्य-प्रतिरोध क्यों नहीं गढ़ रहा? इस पर हमें सोचना होगा। फिलहाल हम इल्या के इस काव्य -लोक से कुछ सीख तो ले ही सकते हैं। हाँ, काव्य को महज विनोद मानने वाली जमात निराश हो सकती है।
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बहरा गणतंत्र: इल्या कमिन्स्की (English)
अनुवाद: अरुणजी (हिन्दी)
प्रकाशन: पुस्तकनामा (www.pustaknaama.com)