मैया की कहानी, मैया की जुबानी 6

1950-60 के आसपास भारत में शिशु मृत्यु दर काफी ज्यादा था। एक साल से कम उम्र के शिशुओं की मृत्यु सबसे ज्यादा होती थी। हमारे पड़ोस में शायद ही कोई ऐसा घर होगा जिसमें किसी एक महिला के बच्चे की मृत्यु न हुई हो। हाल में मैं अपनी बड़ी दीदी के लड़के, बिनोद, से बात कर रही थी तो उसने बताया कि 1960 में शिशु मृत्यु दर लगभग 25 प्रतिशत था। मतलब 100 में 25 बच्चे मर जाते थे। बिनोद डाक्टर है और आजकल बड़हिया के सरकारी अस्पताल का इंचार्ज। स्वास्थ्य सेवाओं की उसे अच्छी जानकारी है।

एक गर्भवती महिला को खान-पान, रहन-सहन पर काफी ध्यान देना चाहिए। पोषक तत्वों का भी ध्यान रखना होता है। अपने मायके, शेरपुर, आने के बाद मैंने अपने खाने-पीने पर उतना ध्यान नहीं दिया। शरीर की जरूरत की बजाय मैं स्वाद के अनुसार आहार लेना ज्यादा पसंद करने लगी। थोड़ी कमजोर तो मैं पहले से थी, ऊपर से गर्भावस्था और पोषक तत्वों की कमी ने हालत और नाजुक कर दी। गांव में प्रसव के पहले जांच करवाने की उतनी सुविधा नहीं थी, न ही जागरूकता।

नौवें महीने में जब मुझे असहनीय प्रसव पीड़ा शुरू हुई तो बाबूजी ने पालकी बुलवाकर मां के साथ मुझे मोकामा के पादरी अस्पताल भेजा। उस पूरे इलाके में वही एकमात्र ऐसा अस्पताल था जहां लोग 50 मील दूर से अपना इलाज करवाने आते थे: बड़हिया, बेगुसराय, लक्खीसराय, बरबीघा जैसे शहर और उनके आसपास के गांवों से। 1948 में एक छोटे पैमाने पर पादरियों के द्वारा खोला गया ये अस्पताल धीरे धीरे लोकप्रिय हो रहा था। नाम तो इसका था नाज़रेथ अस्पताल पर लोगों में ये पादरी अस्पताल के रूप में जाना जाता था।

शेरपुर से मोकामा की दूरी 12 किलोमीटर है। उस लंबी दूरी को प्रसव की असहनीय पीड़ा के साथ पालकी से मैंने कैसे तय किया, ये मेरा ईश्वर जानता है। उस समय मुझपर जो बीती, आज सोचती हूं तो सिहरन होने लगती है। दूसरा कोई साधन भी नहीं था। खैर, किसी तरह मैं अस्पताल तो पहुंच गई। पर मेरा पहला बच्चा, लड़का, पैदा होने के चार दिन बाद गुजर गया।

मेरे लिए ये एक बड़ा झटका था। नौ महीने तक शिशु को अपने गर्भ में पालना, फिर असहनीय पीड़ा के बाद उसे खो देना। बहुत ही कष्टदायक था। और ये शारीरिक कष्ट से अधिक मानसिक और भावनात्मक था।

सिजेरियन ऑपरेशन को उस समय लोग ‘बड़ी आपरेशन’ कहते थे। लेकिन मेरे प्रसव के बाद डाक्टर ने जो आपरेशन किया था, उसका नाम था ‘छोटी आपरेशन’। चिकित्सा के तकनीक का उतना विकास नहीं हुआ था। कहने को ‘छोटी आपरेशन’ था, पर अस्पताल में मुझे नौ दिन तक रहना पड़ा था।

मोकामा ससुराल होने के कारण रोज कोई न कोई मुझसे मिलने आते थे: सरकार जी(सास), ननद, जेठानी, देवर वगैरह। किन्तु उस कठिन समय में सबसे बड़े सम्बल थे मेरे पति। वे रोज शाम को आते अपने दोस्तों को लेकर। पूरी शाम मेरे पास बैठकर अपने अंदाज में हंसी ठहाके के साथ दिल बहलाया करते थे। ऐसा लगता था मानो उन पर इस बात कोई असर ही नहीं है। उनको देखकर अच्छा लगता था। जितनी देर वो साथ बैठते मैं अपना दुख भूल जाती थी।

अस्पताल से छुट्टी मिलने पर मैं शेरपुर चली गई। पति का साथ और बाबूजी, मां के स्नेह के सहारे धीरे धीरे उस दुख को भूलने लगी।

बाबूजी हम तीनों बहनों को बहुत प्यार करते थे। वे हमें ससुराल के लिए तभी विदा करना चाहते थे जब हमारे पतियों की पढ़ाई समाप्त होने के बाद नौकरी लग जाय। बड़ी दीदी को उन्होंने नौ साल शेरपुर में रखा। बड़का मेहमान(बड़की दी के पति) की नौकरी लगने के बाद ही उसका ससुराल में नियमित रूप से रहना शुरू हुआ। मंझली दीदी भी हमारे यहां लगातार बारह साल रही। इस बीच उसके बच्चों का जन्म से लेकर पालन-पोषण सब यहीं हुआ। पर मेरे मामले में ये पूरी तरह से सम्भव नहीं हो पाया।

मेरे पति उस समय मुंगेर के आर डी ऐंड डी जे कालेज में बीए के विद्यार्थी थे। कालेज से जब कभी भी छुट्टी मिलती, वो शेरपुर चले आते थे। एकबार शेरपुर में उन्हें रहने में कुछ दिक्कत हुई तो वे मुझे ससुराल (मोकामा) लेकर चले गए। बाबूजी और मां ने मना करने की कोशिश भी की पर वो एक नहीं माने।

ससुराल पहुंचने पर हाल ये था कि हमारे ससुर के तीनों भाइयों के परिवार को मिलाकर लगभग 50 लोग थे। सभी का खाना एक ही चूल्हे पर, एक साथ बनता था। हम सभी औरतें मिल कर बनाते थे। इसके अलावा भी दिन भर कुछ न कुछ काम होता ही था। करते करते मैं थक जाती थी। इसी बीच मैं फिर गर्भवती हो गई। कमजोरी इतनी हुई कि दस दिन के लिए मुझे नाज़रेथ अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। इसके बाद ससुराल में लोग मेरे स्वास्थ्य के प्रति सचेत हुए।

1956 में मुझे दूसरी संतान की प्राप्ति हुई। इस बार लड़की हुई, जिसे पाकर मैं फूले नहीं समाई। उसका नाम हमने उषा रखा। मेरे जीवन में वो उषा की किरण की तरह आई। सुन्दर और सुडौल। जल्द ही उषा परिवार की लाडली बन गई। पतिदेव के भाई लोग उसे गोद में उठाए रहते थे। जब कभी भी मैं उसे बंगला(दालान) पर भिजवाती तो मेरे भैंसुर लोग गर्व से गोद में लेकर उसे घूमते थे। आज मेरे चार बच्चे हैं। पर अभी भी लोग कहते हैं कि उषा के इतनी सुन्दर कोई नहीं है, बिल्कुल अपने पिता पर गई थी।

उषा के आने के बाद पहले संतान को खोने का ग़म मैं एकदम भूल गयी। मेरे जीवन की वो धूरी बन गई। उसी के चारो ओर मेरा जीवन घूमने लगा। आठ महीने कैसे गुजर गए, पता ही नहीं चला।

देखते देखते नागपंचमी आ गया। वर्षा ऋतु का ये पर्व सावन के पांचवें दिन हमारे क्षेत्र में काफी धूमधाम से मनाया जाता है। नाग देवता की पूजा होती है। बरसात के दिनों में सांपों का प्रकोप गांव देहात में बढ़ जाता है। शायद इसीलिए इस त्योहार को मनाने और उसमें नीम की पत्तियों के प्रयोग की प्रथा शुरू हुई होगी।

सुबह से घर में त्योहार की धूम थी। सभी लोग व्यस्त थे। दिन की शुरुआत हुई नीम की पांच पत्तियों के साथ दही खाने से। कुछ लोग हरेक कमरे के आगे नीम की एक एक टहनी को लगा रहे थे। नाग की पूजा के लिए दूध और धान का लावा परोसा जा रहा था। खाने के व्यंजन जैसे फुटपुर(दलपूरी), तसमय(खीर) इत्यादि बन रहे थे और लोग खा रहे थे। फलों में आम और कटहल का कोवा।

इधर मेरी बेटी उषा को सुबह से ही दस्त होने लगा। मुझे बच्चों की बीमारी के बारे में न कोई जानकारी थी, ना ही कोई अनुभव। मैंने तुरंत ही सरकार जी को इसकी सूचना दी। पतिदेव घर में थे पर इस बारे में वो कोई फैसला नहीं ले सकते थे। वैसे भी वो एक विद्यार्थी थे। अभी नौकरी नहीं लगी थी। खुद भी अपनी पढ़ाई के लिए मालिक के ऊपर निर्भर थे। नियम ये था कि घर का कोई भी सदस्य अगर बीमार पड़े तो उसके इलाज की जिम्मेवारी मालिक की होती थी। मालिक मतलब परिवार का मुखिया। प्रायः ऐसा होता था कि मालिक सबसे पहले वैद्य जी को बुलवाते थे। वैद्य जी की दवा का अगर असर नहीं हुआ, फिर उसे एलोपैथिक डाक्टर के पास या अस्पताल भेजा जाता था।

उषा के मामले भी यही हुआ। वैद्य जी ने दवा दी, कोई असर नहीं हुआ। दोपहर तक शरीर में पानी की कमी होने के कारण उसकी हालत बिगड़ने लगी। जब मैं रोने पीटने लगी तो फिर जल्दी से उसे अस्पताल ले जाने की व्यवस्था की गई। पर तब तक देर हो चुकी थी। अस्पताल के रास्ते में ही मेरी प्यारी बेटी उषा चल बसी।

©arunjee

Photo: Tara Devi, 31 October 2016
Photo credit: Arun Jee

Published by Arun Jee

Arun Jee is a literary translator from Patna, India. He translates poems and short stories from English to Hindi and also from Hindi to English. His translation of a poetry collection entitled Deaf Republic by a leading contemporary Ukrainian-American poet, Ilya Kaminski, was published by Pustaknaama in August 2023. Its title in Hindi is Bahara Gantantra. His other book is on English Grammar titled Basic English Grammar, published in April 2023. It is is an outcome of his experience of teaching English over more than 35 years. Arun Jee has an experience of editing and creating articles on English Wikipedia since 2009. He did his MA in English and PhD in American literature from Patna University. He did an analysis of the novels of a post war American novelist named Mary McCarthy for his PhD

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