
यह है मोकामा में हमारे घर के आगे का हिस्सा, जिसे हम बंगला कहते थे। जैसा कि आप फोटो में देख सकते हैं, हमारा बंगला एल के आकार का है और इसके आगे है खुला मैदान। इस मैदान में हमारे बचपन की कई कहानियाँ दफ्न हैं। यहाँ मैं अपने भाइयों के साथ गुल्ली डंडा, लट्टू, गोली इत्यादि कई खेलों में भाग लिया करता था। खेलने के दौरान आपस में हम हारते, जीतते, झगडते फिर दोस्ती भी करते थे। वैसे शारीरिक दक्षता वाले खेलों मे मैं जीतता कम ही था।
एक बार की बात है। सुबह के समय हमारे कई भाई काँच की गोली से खेल रहे थे और मैं उनसे अलग सड़क के किनारे सीढि़यों पर बैठा था। सड़क पर रोज की तरह कई औरतें और मर्द गंगा स्नान के लिये जा रहे थे। उनमें से दो अधेड़ उम्र की महिलाएँ हमारे घर की ओर देख रहीं थीं और आपस में बातें कर रहीं थीं। मैनें एक महिला को कहते हुए सुना, “ये घर है या धर्मशाला?”।
सुनकर मैं बहुत आहत हुआ। ये सच था कि हमारे घर मे उस समय पचास से भी ज्यादा लोग रहते थे। बंगले पर खासकर सुबह मे बुजूर्ग एवं बच्चों को मिलाकर 15-20 लोग मौजूद होते थे। काफी चहल पहल होती थी। लेकिन वही हमारा प्यारा सा घर था। उसको कोई धर्मशाला कहे, यह हम कतई बर्दाशत नहीं कर सकते थे।
मेरे मन में उसी समय ये बात आई कि मैं उस महिला को बता दूँ:
‘ए मैडम, ये कोई धर्मशाला नहीं, हमारा घर है, सौर्टर साहब का घर’ (मेरे बाबा जिन्होनेे ये घर बनवाया था उनका नाम था राम स्वरूप सिंह, पर हमारे गाँव में वो ‘सौर्टर साहब’ के नाम से जाने जाते थे क्यौकि वो पोस्टल डिपार्टमेन्ट में सौर्टर का काम करते थे)।
पर तबतक वो दोनों काफी दूर निकल चुकी थीं।