पेरिस यात्रा: दूसरा दिन

श्रोत: पौम्पिडू सेंटर

पेरिस में हमारा अगला पड़ाव था पौम्पिडू सेंटर। इस सेंटर के बारे में पहले से मुझे कोई जानकारी नहीं थी। मैंने जानने की कोशिश भी नहीं की थी। 19 अक्टूबर 2023 की शाम हम नई दिल्ली से 12 घंटे की उड़ान के बाद थके मांदे पेरिस पहुंचे थे। अगली सुबह हम एक पार्क गये और शाम में थोड़ी खरीदारी की। इसलिए 21 अक्टूबर को जब हम चार लोग, बन्दना, तन्मय, मेधा और मैं, दोपहर के भोजन के बाद चलने को तैयार हुए तो हमें बस इतना मालूम था कि हम एक म्यूज़ियम देखने जा रहे हैं। इसके अलावा और कुछ नहीं। बल्कि हमारे लिए ये नाम भी नया था। पौम्पिडू। 

बाहर थोड़ी बूंदा-बांदी हो रही थी। तापमान दस के नीचे था। ठंढ़ और पानी दोनों से हमें बचना था। हमने अपना-अपना वाटरप्रूफ जैकेट चढ़ाया और एक छाता लेकर निकल पड़े। हमारा निवास पेरिस के उत्तर पूर्व में बेल्विल नामक डिस्ट्रिक्ट में था। वहां से मेट्रो लेकर हम म्यूज़ियम के नज़दीक वाले स्टेशन पर उतरे। उसका नाम है रौम्बितू।

करीब पांच मिनट चलने के बाद तन्मय ने दाहिनी ओर एक बिल्डिंग की ओर इशारा करके बताया कि यही है पौम्पिडू सेन्टर। बिल्डिंग को अचानक देखकर हम धक से रह गये। मन में सवाल उभरा कि ऐसी भी कोई बिल्डिंग हो सकती है क्या? वो भी एक म्यूज़ियम की। जब मालूम हुआ कि ये पौम्पिडू का पिछला हिस्सा है तो लगा कि आगे इसका रूप जरूर कुछ अलग होगा।

पर नहीं। वहां भी वही। एक नंगी इमारत। जिसमें नालियों के लिए बने सारे स्टील पाइप मुंह बाए खड़े थे। सामान्यतया किसी भी इमारत में ऐसे पाइप की संरचना को अंदर छुपा कर रखा जाता है। लेकिन उस इमारत में उन्हें और भी रंगीन, डिजाइदार बना कर पेश किया गया था। बल्कि वही उसकी खूबी थी। अंदर की पूरी बनावट बाहर।

विडियो क्रेडिट: अरुण जी

बिल्डिंग के सामने वाले हिस्से में एक ट्यूब दिख रहा था जिसमें एस्केलेटर के द्वारा पर्यटक नीचे-ऊपर आ-जा रहे थे। हमने कुछ फोटो वगैरह लिए। फिर एक छोटे विडियो में मैंने इमारत और उसके आस-पास की चीजों को समेटने की कोशिश की। बारिश की बूंदें अभी भी टपक रही थीं। अंदर जाने वाले लोगों की एक लम्बी कतार थी। उसी में हम शामिल हो गए।

फ्रांस के राष्ट्रपति जार्ज पौम्पिडू के नाम पर बने इस सेंटर के भवन के निर्माण का आइडिया और इसके अक्खड़ डिज़ाइन की कहानी विवादास्पद पर दिलचस्प है।

1969 में जार्ज पौम्पिडू जब राष्ट्रपति बने तब द्वितीय विश्व युद्ध की यादें धुंधली पड़ चुकी थी। फ्रांस की जिस पीढ़ी ने युद्ध के दौरान (1940-44) हिटलर की सेनाओं की मनमानियों को झेला था वो अब पुरानी पड़ती जा रही थी। देश में एक नई पीढ़ी का उदय हो रहा था। एक ऐसी पीढ़ी जिसके लिए केवल राष्ट्र की आज़ादी नहीं, बल्कि राष्ट्र के अंदर व्यक्ति की आज़ादी भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी। वैसे तो साठ के दशक में आज़ादी की ये हवा पूरी दुनियां में बह रही थी। अमरीका, यूरोप में लिंग-भेद व नस्लभेद के विरोध में आन्दोलन चल रहे थे। तो एशिया एवं अफ्रीका के देशों में लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए। फ्रांस में इस संघर्ष का रूप था छात्र आंदोलन।

मई 1968 का छात्र आंदोलन फ्रांस के लिए एक ऐतिहासिक घटना थी। उसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। मई के अंतिम सप्ताह में जब ये आंदोलन अपने चरम पर था तब फ्रांस में गृह युद्ध जैसी स्थिति बन गई थी। लग रहा था कि अब सत्ता परिवर्तन अवश्यंभावी है और द्वितीय विश्व युद्ध के नायक राष्ट्रपति चार्ल्स डिगॉल को कुर्सी से हटना पड़ेगा। चार्ल्स डिगॉल तुरंत अपने पद से तो नहीं हटे, पर वे हार चुके थे। नैशनल असेंबली को भंग कर उन्होंने जून 1969 में चुनाव की घोषणा कर दी। चुनाव के बाद उनकी पार्टी बहुमत के साथ फिर सत्ता में आ गई लेकिन चार्ल्स डिगॉल पुनः राष्ट्रपति नहीं बन पाये। उनकी जगह जार्ज पौम्पिडू राष्ट्रपति बने। वही पौम्पिडू जिन्होंने 1968 में आन्दोलनकारियों का सामना किया था। छात्रों की मांगों को सुनने और समझने की कोशिश की थी।

छात्र आन्दोलन के कारण फ्रांस में बहुत सारे बदलाव हुए। विवाह, परिवार, शिक्षा, पेशा, राष्ट्र, धर्म जैसी संस्थाएं अब सवालों के घेरे में थीं। युवा पीढ़ी अब हरेक चीज के बारे में जानना चाहती थी, उन पर सवाल उठाती थी। राष्ट्रपति पौम्पिडू युवाओं की इन भावनाओं से वाक़िफ थे। वे समझ रहे थे कि फ्रांसीसी समाज के अंदर एक मंथन चल रहा है और मई 1968 का आंदोलन इसी मंथन का एक प्रतिबिम्ब था। इन्हीं परिस्थितियों को भांपकर राष्ट्रपति पौम्पिडू ने पेरिस में इस सेंटर के निर्माण का फैसला लिया।

पौम्पिडू को कला और संस्कृति से भी उतना ही लगाव था। उनकी इच्छा थी कि पेरिस में एक ऐसे बहुउद्देशीय इमारत का निर्माण हो जो उस वक्त के बदलते समाज की भावनाओं का प्रतिनिधित्व कर सके। एक ऐसी इमारत जहां पेंटिंग या शिल्पकला के साथ साहित्य, सिनेमा, संगीत इत्यादि जैसी अन्य कलाओं के प्रदर्शन की भी सुविधा हो। जो लूव्र म्यूज़ियम की तरह प्राचीन, शास्त्रीय कला-कृतियों के लिए नहीं, बल्कि आधुनिक एवं समकालीन कलाओं के संग्रह, प्रदर्शन का स्थल बने। साथ ही कला एवं संस्कृति से जुड़ी गतिविधियों का केंद्र बने।

इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात यह थी कि जार्ज पौम्पिडू पेरिस को पूरी दुनियां में कला की राजधानी के रूप में एक बार फिर से स्थापित करना चाहते थे। असल में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कला के क्षेत्र में न्यूयॉर्क आगे निकल रहा था। पेरिस की खोई हुई गरिमा को वह पुनः उसके सुपुर्द करना चाहते थे।

इमारत के सामने कतार में खड़े होकर इसके बनने की कहानी हम तन्मय से सुन रहे थे। बूंदाबांदी अभी भी हो रही थी। सेंटर के बारे में हमारी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। बिल्डिंग के अलग-अलग हिस्सों पर हमारी नज़र जाती तो उसकी विशेषताओं को हम समझने की कोशिश करते। उसके ऊपरी हिस्से पर लगे पोस्टर में एक सुंदर स्त्री का चित्र हमें बार-बार लुभा रहा था। असल में ये स्त्री बीसवीं सदी के महान पेंटर पैबलो पिकासो की प्रेमिका रह चुकी थी। उसी पर बनाए गए चित्र को पिकासो की एक सुंदर रचना के रूप में उस पोस्टर में पेश किया गया था। 

प्रवेशद्वार तक हम अब पहुंचने वाले थे। तन्मय ने आगे बताया कि पौम्पिडू ने पूरी दुनियां में एक खुली प्रतियोगिता की घोषणा की थी। इसमें विभिन्न देशों के 681 आर्किटेक्ट्स ने भाग लिया था। फ्रांस के इतिहास में ये पहली बार किसी इमारत के डिज़ाइन के लिए देश के बाहर के कलाकारों को आमंत्रित किया गया था। अंततः इस वास्तुकला को चुना गया। इसे इटली के रेन्ज़ो पियानो और ब्रिटेन के राबर्ट रॉजर्स ने मिलकर तैयार किया था। पौम्पिडू की जब इसपर नज़र पड़ी तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ‘इस पर तो कुछ विवाद जरूर होगा’।

जुलाई 1971 में इस वास्तुकला के चुने जाने की सार्वजनिक घोषणा हुई। उस दिन मीडियाकर्मियों के सामने एक ओर सूट, पैंट व टाई जैसे औपचारिक लिवास में राष्ट्रपति पौम्पिडू खड़े थे एवं दूसरी ओर बिखरे बाल एवं बिल्कुल अनौपचारिक वस्त्र में दो युवा आर्किटेक्ट्स, पियानो एवं रॉजर्स। वह एक अजीब मिलन था। औपचारिकता का अनौपचारिक से, परम्परा का आधुनिकता से और पुरातन का नूतन से।

जैसा कि पौम्पिडू ने कहा था इस डिज़ाइन की घोषणा के बाद कला की दुनियां में हलचल मच गया। कला के पारम्परिक मानकों में विश्वास रखने वालों ने इसकी घोर आलोचना की। किसी ने इसे ‘लेडी ऑफ द पाइप कहा’ तो किसी ने इसको ‘राक्षस’ तक की उपाधि दे दी।

31 जनवरी 1977 को जब राष्ट्रपति जिरार्ड ने पौम्पिडू सेंटर का लोकार्पण किया तब एक नये भविष्य की शुरुआत हुई। आलोचकों को करारा जवाब मिला। पहले ही वर्ष में यह इतना लोकप्रिय हो गया कि क्षमता से पांच गुना ज्यादा लोग इसके दर्शन के लिए आए। हालांकि जार्ज पौम्पिडू अपने सपने के साकार रूप और उसकी सफलता को देखने से वंचित रह गए थे। 1974 में उनकी मृत्यु हो चुकी थी। पर सेंटर के प्रति उनके महत्वपूर्ण योगदान को ध्यान में रखकर इसका नाम ‘नैशनल जार्ज पौम्पिडू सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर’ रखा गया। पौम्पिडू सेंटर उसी का छोटा नाम है।

इस बीच सेंटर के प्रवेशद्वार से हम दाखिल हो चुके थे। अब कहानी को सुनने से ज्यादा खुली आंखों से इसके अंदर की सुन्दरता को देखने में हमारी रुचि बढ़ गई थी। वैसे भी तन्मय की कहानी खत्म हो चुकी थी।

ट्यूब के अंदर लगे एस्केलेटर पर सवार होकर हम सबसे ऊपर, छठी मंजिल, पर गये। वहां जब हमने चारों ओर नज़र दौड़ाई तो हम ठिठक से गये। पेरिस की सुन्दरता हमें लुभा रही थी। 149 फीट ऊंचे पौम्पिडू सेंटर से शहर की संरचना स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। दक्खिनी छोर पर आइफ़िल टावर बहुत ज्यादा दूर नहीं था। उत्तरी कोने में मोनमार्ट की पहाड़ी पर स्थित सेक्रेकर (चर्च) पेरिस के ताज के रूप में चमक रहा था। लगभग 60 फीट की ऊंचाई वाले दूर-दूर तक फैले हाउसमान भवनों की बात ही कुछ और थी।

फोटो क्रेडिट: अरुण जी

उसके बाद हम उसी मंजिल पर पैबलो पिकासो की कलाकृतियों की एक खास प्रदर्शनी देखने के लिए आगे बढ़े। प्रदर्शनी 18 अक्टूबर 2023 को शुरू हुई थी। थीम था ‘पिकासो: अंतहीन रेखांकन’। हमारा सौभाग्य था कि ठीक तीन दिन बाद, 21अक्टूबर को, हम वहां थे। वह प्रदर्शनी पिकासो की रचनाओं की किसी खास श्रृंखला या पहलू पर केंद्रित नहीं थी। बल्कि उसमें पिकासो की बहुचर्चित कृतियों के अलावा कुछ नई कृतियों को भी शामिल किया गया था। उसका मुख्य उद्देश्य था कि कलाप्रेमी वहां आकर उनका अवलोकन करें। उनकी गहराइयों में उतरें। और उस महान कलाकार की रचनाओं के बहुमुखी आयाम को समझने की कोशिश करें।

फोटो क्रेडिट: अरुण जी

अंदर जाकर हमें पता चला कि इस प्रदर्शनी के लिए बाहर लगे पोस्टर पर जिस सुंदर स्त्री का चित्र था वह पिकासो की एक प्रेमिका थी। नाम था फ्रौंसुआ ज़ीलो। पिकासो और फ्रौंसुआ 1944 में पेरिस में मिले थे। उस वक्त फ्रौंसुआ 23 और पिकासो 63 वर्ष के थे। दोनों ने शादी नहीं की पर दोनों दस वर्ष तक प्रेमी प्रेमिका के रूप में एक साथ रहे। पिकासो ने इस मशहूर चित्र की रचना 1946 में की थी। इस चित्र में फ्रौंसुआ का चेहरा, उसका भाव, उसके काले घने बाल इत्यादि उसकी सुंदरता के कुछ महत्वपूर्ण आयाम हैं।

पैबलो पिकासो की बहुत सारी रचनाओं में स्त्री एक महत्वपूर्ण थीम के रूप में उभरती है। ये अलग बात है कि उनकी निजी जिंदगी में भी अनेक स्त्रियां आईं और गईं। और वास्तविक जीवन में स्त्रियों के प्रति उनका रवैया उतना सुन्दर नहीं था। फ्रौंसुआ ज़ीलो खुद एक पेंटर थीं। उन्होंने अपनी किताब, पिकासो के साथ मेरा जीवन (1964), में पिकासो से अपने संबंधों के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। पिछले साल फ्रौंसुआ का अमरीका में देहांत हुआ। वह 101 वर्ष की थीं।

बीसवीं सदी के सबसे प्रभावशाली कलाकारों में से एक थे पैबलो पिकासो। उनके बारे में जितना कहा जाए कम ही पड़ेगा। गैलरी में उनकी चित्रकलाओं को देखते हुए एक घंटे का समय कैसे निकल गया, पता ही नहीं चला। उस दौरान हमनें एक फिल्म में उन्हें पेंटिंग करते हुए भी देखा। हम थक चुके थे। अब लौटने की बारी थी। बाहर निकलने पर पता चला कि मौसम ज्यों का त्यों था। टिप-टिप पानी अभी भी पड़ रहा था। अचानक याद आया कि हमने छाता ऊपर ही छोड़ दिया। हम ऊपर लौटकर तो जा नहीं सकते थे।

चलते चलते हमने पौम्पिडू के ठीक पास एक आइसक्रीम पार्लर के विशिष्ट फ्लेवर जलाटो का रसास्वादन किया। फिर घर की ओर चल पड़े।

Published by Arun Jee

Arun Jee is a literary translator from Patna, India. He translates poems and short stories from English to Hindi and also from Hindi to English. His translation of a poetry collection entitled Deaf Republic by a leading contemporary Ukrainian-American poet, Ilya Kaminski, was published by Pustaknaama in August 2023. Its title in Hindi is Bahara Gantantra. His other book is on English Grammar titled Basic English Grammar, published in April 2023. It is is an outcome of his experience of teaching English over more than 35 years. Arun Jee has an experience of editing and creating articles on English Wikipedia since 2009. He did his MA in English and PhD in American literature from Patna University. He did an analysis of the novels of a post war American novelist named Mary McCarthy for his PhD

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