साईकिल से मेरा साक्षात्कार पहली बार नानी घर में हुआ। यह साठ के दशक की बात है। तब मैं बहुत छोटा था। मेरा ननिहाल है शेरपुर। पटना से लगभग सौ किलोमीटर पूरब गंगा के किनारे। यह मोकामा पुल से लगभग दो किलोमीटर दक्षिण की ओर बसा है। जन्म से लेकर बचपन के कई वर्ष मैंने नानी घर में ही बिताए।
ननिहाल में मेरी दुनिया बहुत छोटी थी। परिवार के सदस्यों के अलावा घर में एक गाय थी और एक बछड़ा। पक्षियों का भी आना जाना लगा रहता था। सुबह-शाम खासकर ज्यादा। वे सब हमारे घर के सदस्य की तरह थे। उनकी गतिविधियों को देखना, उनसे बातें करना, कभी कभी उनकी आवाज की नकल उतारना मुझे अच्छा लगता था।
पर साईकिल उन सबसे अलग था। सबसे पहले तो वह मेरे पिता, मेरे हीरो, का सहचर था। उनके साथ आता, बस चंद दिनों के लिए। फिर चला जाता उन्हीं के साथ किसी रहस्यमय गंतव्य की ओर, मुझे छोड़कर। उसकी अनुपस्थिति में मैं इंतजार करता रहता, उसके फिर से आने का। हालांकि मुझे यह नहीं पता था कि आदमी, जानवर, पक्षियों वगैरह से बिल्कुल अलग, साईकिल एक निर्जीव वस्तु है। मेरे लिए वह बस एक अजूबा था। उसकी बनावट, उसका आकार, उसके पहियों का घूमना और सबसे ज्यादा ट्रिन, ट्रिन करती उसकी घंटी मुझे आकर्षित करते थे। जब चाहे उसके एक पैडल पर एक पैर को रखकर उसके सीट पर फांदकर बैठकर जाइए। फिर उसके पैडल को घुमाते हुए आगे बढ़ जाइए।
मेरे पिता उस वक्त लक्खीसराय के निकट हलसी नामक प्रखंड में नौकरी करते थे। और महीने में एक-दो बार शेरपुर (ससुराल) आते थे। मेरी मां से और मुझसे मिलने। साईकिल पर सवार होकर, एक लम्बी दूरी तय कर। हलसी से शेरपुर की दूरी करीब 35 किलोमीटर है।
एक बार वे अमावस्या की अंधेरी रात में हलसी से आ रहे थे। शेरपुर से लगभग दो किलोमीटर पहले, बड़हिया के पास, अचानक उनकी साईकिल किसी ठोस चीज से जा टकराई। और वे दूर जा गिरे। उठकर देखा कि काले रंग का एक सांढ़ सड़क के बीचोंबीच पड़ा था। पास गए तो उसने एक लम्बी सांस लेकर किया… फों..। जल्दी से उन्होंने अपनी साईकिल उठाई और शेरपुर की ओर भागे। सौभाग्य से उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा था।

पिता जब भी आते तो वे अपनी साईकिल को कमरे में स्टैंड पर खड़ी कर देते। और वह मुझे अक्सर लुभाया करती थी। मानो वो मुझसे कह रही हो कि आओ तुम मेरे साथ खेलो। मौका मिलते ही मैं उसके चक्कर लगाने लगता। और यह मौका मुझे मिलता सुबह के समय जब मेरी मां और नानी घर के कामों में व्यस्त रहतीं। और मेरे नाना, मामू और पिता तीनों देश-विदेश की खबरों के बारे में बातचीत कर रहे होते। उस दौरान भारत-चीन युद्ध में भारत की हार हुई थी। यह मुझे इसलिए याद है क्योंकि इस पर विवाद बढ़ जाता था। जोर जोर से बातें होने लगती थीं। मेरे मामू और पिता दोनों इस हार के लिए नेहरू की सरकार को दोषी मानते थे। मेरे नाना ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने भाग लिया था। वे गांधी, नेहरू व कांग्रेस के समर्थक रह चुके थे। चीन द्वारा भारत पर किए गए हमले से वे व्यथित जरूर थे। और नेहरू की सरकार से उन्हें अपेक्षाएं भी थीं। पर दबी जुबान से ही सही, पर वे कांग्रेस और नेहरू के पक्ष में बोलते थे।
मेरे लिए यही एक सही मौका होता था जब मैं साईकिल को छू सकता था। उसके साथ खेल सकता था। मै तीन साल का बच्चा था। साईकिल की तुलना में मेरी लम्बाई लगभग आधी थी। मैं कभी उसके पैडल घुमाता कभी पहियों में हाथ डालता। एक बार मैं जब उसे हिलाने की कोशिश करने लगा तो हम दोनों गिर पड़े। साईकिल ऊपर और मैं उसके नीचे। तब से मुझे प्रायः उस साईकिल से दूर रखा जाने लगा। जब कभी भी मैं उसके पास जाने की कोशिश करता, मेरी मां या मेरी नानी मुझे वहां से हटा दिया करतीं। हालांकि इसके बावजूद उस साईकिल के साथ मेरे गिरने की घटना एक दो बार और हुई।

इस तरह शेरपुर में साईकिल से मेरा परिचय हुआ। पर उससे अंतरंगता बढ़ी करीब पांच साल बाद। बिल्कुल एक नये स्थान पर।
सन 1967 में पिता का तबादला सिंहभूम जिले के एक प्रखंड में हुआ। इसी साल बिहार में पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार चुन कर आई थी। उस वक्त झारखंड बिहार का ही एक हिस्सा हुआ करता था। दोनों राज्य अभी अलग नहीं हुए थे।
तब शेरपुर में हमारा रहना कम हो गया था। हम मोकामा में अपने दादा जी के घर में रहने लगे थे। दादाजी का घर इसलिए कि वही उस घर के मुखिया थे। अपने और चेचेरे मिलाकर हमारे पिता दस भाई थे और उनकी पत्नियों एवं बच्चों सबको मिलाकर उस वक्त घर में पचास से भी ज्यादा सदस्य रहते थे। एक बड़ा सा संयुक्त परिवार था। जिस प्रखंड में पिता का स्थानांतरण हुआ उसका नाम था मंझारी। मंझारी काफी दूर था। मोकामा से लगभग 500 किलोमीटर दूर। पिता ने तय किया कि वे हमें (मां, मेरी दो बहनों और मुझे) भी वहां ले जाएंगे।
ढेर सारे सामान के साथ, रेल और बस की लम्बी यात्रा तय कर, हम मंझारी प्रखंड पहुंचे। रहने के लिए हमें एक क्वार्टर मिला। पचास सदस्यों के मोकामा के घर से पांच सदस्यों वाले एक क्वार्टर में हमारे लिए एक नए जीवन की शुरूआत हुई। उस समय मैं आठ वर्ष का था। मोकामा के घर में मेरी उम्र के और कई चचेरे भाई बहन थे। पर एकल परिवार के इस घर में मेरे साथ खेलने के लिए कोई नहीं था। मेरी दोनों बहनें मुझसे बहुत छोटी थीं। यहीं पिता की साईकिल से मेरी दोस्ती की शुरुआत हुई।
प्रखंड के लोग बिहार के अलग-अलग हिस्सों के थे। उनकी भाषाएं अलग थीं। मगही, भोजपुरी, मैथिली इत्यादि। हिन्दी वहां की लिंक भाषा थी। पर एक और भाषा से हमारा परिचय हुआ, जिसका नाम था ‘हो’। इस भाषा को बोलने वाले लोग उस क्षेत्र के मूल निवासी थे। उनकी भाषा, उनकी संस्कृति मेरे मन में उत्सुकता पैदा करती थी। हमारी कॉलोनी में उनकी संख्या बहुत कम थी। पर आसपास के गांवों, कस्बों में प्रायः उसी समुदाय के लोग रहते थे। हम उन्हें आदिवासी के रूप में जानते थे और वे हमें दिकू के रूप में। दिकू शायद इसीलिए क्योंकि हम उनकी जिन्दगी में दखल दिया करते थे, दिक्कत पैदा करते थे।
मेरे घर के सामने मुख्य सड़क थी जिसका एक सिरा भरभरिया होकर उड़ीसा की ओर जाती थी और दूसरा चाईबासा की ओर। उस सड़क पर हमें आदिवासी लोग आते जाते दिखते थे। पैदल अथवा साईकिल पर। बड़े वाहन केवल दो ही थे। प्रखंड की एक सरकारी जीप और चाईबासा से भरभरिया जाने वाली एक बस। नाम था आदिवासी बस, जो दिन में बस एक बार ही आती थी। इन दोनों के अलावा जो सबसे ज्यादा दिखने वाली वाहन थी, वह थी साईकिल। कई बार मुझे आदिवासी युवक और युवतियों के जोड़े साईकिल पर दिख जाते थे। युवक सीट पर बैठकर साईकिल चला रहा होता और युवती उसके आगे डंडे पर बैठी। दोनों एक-दूसरे से बातें करते, प्रेम का इज़हार करते हुए। उनके लिए पुरुष और महिला के बीच प्रेम की ऐसी अभिव्यक्ति बिल्कुल सामान्य था। हालांकि मेरे लिए यह बिल्कुल नया। मुझे काफी आकर्षित करता था।
इस बीच मंझारी में मेरी दोस्ती एक लड़के से हुई। वह हमारे पड़ोस में रहता था। उसका नाम था रामजनम। हम दोनों की उम्र, लम्बाई वगैरह लगभग एक थी। हमारे और उसके क्वार्टर के बीच बस एक दीवार का अंतर था। वह अपने बड़े भाई एवं भाभी के साथ रहता था। उसके भैया प्रखंड में ओवरसीयर के रूप में कार्यरत थे। रामजनम और मैं दोनों एक साथ भरभरिया के मिडिल स्कूल में पढ़ने जाया करते थे।
एक दिन मैंने देखा कि रामजनम ने अपने भैया की साईकिल को निकाला और उसे चलाने की कोशिश करने लगा। अगले दिन उसने साईकिल चलाना सीख लिया। असल में साईकिल के सीट पर बैठकर चला पाना उसके लिए मुश्किल था क्योंकि सीट उसके कंधे उसके कंधे से भी ऊंचा था। पर मेरे देखते देखते उसने कैंची स्टाइल में साईकिल चलाना सीख लिया था। सीट को अपने एक कांख से दबाकर, दोनों हाथो से हैंडल को पकड़कर, फिर पैरों से पेडल घुमाने लगता। साईकिल चलाते वक्त उसका शरीर हवा में रहता। मेरे लिए यह बिल्कुल एक नई तरकीब थी। अगले दिन मैंने भी पिता की साईकिल निकालकर उसे उसी तरह से चलाने की कोशिश करने लगा। मुझे उतनी जल्दी सफलता नहीं मिली। लेकिन कई असफल प्रयासों के बाद मैंने कुछ संतुलन बनाना सीखा।
मेरी मां की सख़्त हिदायत थी कि साईकिल घर के आसपास ही सीखना है। उसे लेकर दूर नहीं जाना है। मैं प्रायः ऐसा ही करता था। पर एक दिन मुझे लगा कि मैं अब बेहतर चलाने लगा हूं। और साईकिल चलाते हुए मैं भरभरिया की ओर निकल पड़ा। मंझारी और भरभरिया के बीच एक नदी थी जिसका नाम था तोरलो। हमारा क्वार्टर प्रखंड के एकदम अंत में पड़ता था। उसके बाद सड़क नदी की ओर मुड़ जाती थी। उस मोड़ से ढलान शुरू हो जाती थी जो नदी के मुहाने तक जाती थी। जैसे ही मैं ढलान पर पहुंचा, बिना पेडल चलाए ही साईकिल तेज हो गई और उस पर मेरा संतुलन भी।

ढलान के दोनों ओर टीले थे और उन टीलों पर घनी झाड़ियां। तोरलो एक पतली, पहाड़ी नदी थी जिसमें प्रायः पानी बहुत कम होता था। उसे पार करना आसान था। लेकिन बरसात के दिनों में ऊपर के पहाड़ों पर पानी के बरसने से उसमें अचानक उफ़ान आ जाता था। नदी में पानी इतना ज़्यादा होता और उसका बहाव इतना तेज कि कोई उसके सामने नहीं टिकता था। ऐसी स्थिति में लोग नदी के दोनों ओर पानी के घटने का इंतजार करते थे। लेकिन बरसात का पानी एक दो घंटे में कम हो जाता था। फिर लोग उसमें आना जाना शुरू कर देते थे। पर पानी कब अचानक बढ़ेगा, उसकी गहराई कितनी होगी या बहाव कितना तेज? ये कुछ अनुभवी लोग, खासकर आदिवासी समुदाय के लोग ही बेहतर जानते थे। नदी में लोगों के डूबने के किस्से भी मैंने सुने थे। उसमें एक किस्सा था प्रखंड के एक मिश्रा जी का। वे भरभरिया से रात में हंडिया पीकर मंझारी लौटकर आ रहे थे। नशे की हालत में उन्हें समझ में नहीं आया, बहाव काफी तेज था। अगले दिन कुछ खोजबीन हुई पर उनका कुछ पता नहीं चला। कुछ लोग मानते थे कि मिश्रा जी की आत्मा नदी के आसपास ही घूमती रहती है।
वैसे जिस तोरलो नदी के बारे में मैं यहां बातें कर रहा हूं और जिसके बारे में मेरे मन में उस समय इतनी सारी आशंकाएं थीं, वह खुद हीअब एक आत्मा बन चुकी है। गूगल सर्च में ढूंढने पर मुश्किल से 1950 या 1960 की किसी किताब में उसका जिक्र मिलता है। वह भी एक या दो वाक्य। हां, आसपास किसी तोरलो डैम का जिक्र जरूर है। लगता है मेरे बचपन की वह रहस्यमयी तोरलो नदी अब भूतकाल का हिस्सा बन गई है। शायद डैम के नजदीक ही उसकी आत्मा मंडरा रही होगी।
खैर, उस दिन साईकिल चलाने की धुन में कब मैं तोरलो नदी को पार कर गया, मुझे पता ही नहीं चला। हालांकि उसके बाद मेरे लिए बड़ी चुनौती थी, भरभरिया की ओर आगे बढ़ने की। सड़क पर चढ़ाई शुरू हो गई थी। मुझे दिक्कत होने लगी। साईकिल का संतुलन बनाए रखने के लिए मुझे पूरी ताकत लगाकर पेडल मारना पड़ रहा था। दोपहर का समय था और मैं बिल्कुल अकेला। आसपास कोई न था। अभी कुछ दूर आगे बढ़ा ही था कि पीछे से एक भोंपू के बजने की जोर की आवाज़ आई। घबरा कर मैंने संतुलन खो दिया और साईकिल के साथ मैं गिर पड़ा। पीछे मुड़कर देखा कि आदिवासी बस मेरे बिल्कुल करीब आ गई थी। मैंने जल्दी से अपनी साईकिल उठाई और किनारे खड़े होकर उसके जाने का इंतजार करने लगा।
बस के जाने के बाद मैं फिर से कैंची स्टाइल में साईकिल चलाते हुए भरभरिया की ओर बढ़ने लगा। मंझारी से भरभरिया की दूरी लगभग एक किलोमीटर है। वहां पहुंचने के ठीक पहले एक मोड़ पर मुझे अपना एक दोस्त दिखाई पड़ गया। नाम था दुम्बी बिरुआ। वह आदिवासी समुदाय का था और उसकी भाषा ‘हो’ थी। उसका घर भरभरिया में ही था। हम दोनों एक साथ भरभरिया के प्राइमरी स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ते थे।
मैंने उसे जोर से आवाज़ दी, “दुम्बी, ओकोन्ते सेन ताना?” (कहां जा रहे हो)।
इस वाक्य के अलावा ‘हो’ भाषा में मुझे बस एक और वाक्य बोलना आता था और वह था, “मांडी जोमियम” (भात खाओगे)। इनके अलावा कुछ एक दो और शब्द। ये सब मैंने दुम्बी से ही सीखा था। कक्षा में अन्य आदिवासी सहपाठियों की अपेक्षा उसकी हिन्दी बेहतर थी। वह सुनकर समझ लेता था और बोल भी लेता था। पढ़ने में वह कक्षा के सभी विद्यार्थियों में अव्वल था।
दुम्बी ने पीछे मुड़कर देखा। फिर मेरे पास वह दौड़ता हुआ आया। वहां से मुझे अब घर लौटना था। मेरे कहने पर वह भी मेरे साथ मंझारी चलने के लिए राजी हो गया। वहां मैंने उसे मां, पिता के अलावा नाना एवं नानी से मिलवाया। कुछ दिन पहले ही नाना एवं नानी हमसे मिलने शेरपुर से आए थे। नाना वहां से हमारे लिए माढ़ा लेकर आए थे जिसे मैं बहुत चाव से खाता था, खासकर दही के साथ। यह नाना के अपने खेत की उपज थी। मां ने दुम्बी को जब माढ़ा खाने के लिए परोसा, तो वह चकित होकर उसे देखने लगा। फिर उसने कहा कि वह उसे अपने घर ले जाना चाहता है। अपने घरवालों को दिखाने के लिए वह उसे भरभरिया लेकर चला गया।
एक साल बाद, 1968 में, हम मंझारी से लौटकर फिर मोकामा चले आए। कुछ वर्षों के लिए वहां साईकिल से मेरा नाता लगभग टूट सा गया। वहां मेरे लिए साईकिल न तो उपलब्ध थी न ही मुझे उसकी जरूरत पड़ी। उसके बाद के वर्षों में साईकिल का मेरे जीवन में आना- जाना लगा रहा। कभी पटना, भटिंडा तो आजकल फिर पटना। पर साईकिल से जुड़ी शेरपुर और मंझारी की वो स्मृतियां मेरे लिए अविस्मरणीय हैं।