आइफ़िल टावर की सैर

पिछले वर्ष अरुण एवं बन्दना की पेरिस यात्रा पर आधारित

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पेरिस पहुंचने के तीन दिन बाद हमारा पड़ाव था आइफ़िल टावर। भारत में उस दिन (22 अक्टूबर) नवरात्रि के त्योहार का नौवां दिन था। सोशल मीडिया पर दुर्गा पूजा के चहल-पहल की खबरें आ रही थीं। पटना के पूजा पंडालों में लोगों की भीड़ उमड़ने वाली थी। उधर पेरिस में हमलोग आइफ़िल टावर के दर्शन को जानेवाले थे।

पेरिस में जिन स्थलों को देखने की हमनें सूची बनाई थी उसमें आइफ़िल का नाम सबसे ऊपर था। बचपन से उसकी छवि हमारे ज़ेहन में थी। उसके चित्र को हमने क़िताबों में, इंटरनेट पर बार-बार देखा था। उसके बारे में बहुत कुछ सुना था। अब हम उसे देखने जा रहे थे।

दोपहर भोजन के बाद हम बेल्विल से निकले। बेल्विल पेरिस नगर निगम का एक डिस्ट्रिक्ट (प्रशासनिक इकाई) है। पेरिस के उत्तर-पूर्वी छोर पर बसा। वहीं हमारा निवास था।

बेल्विल से मेट्रो लेकर हम चार्ल्स डिगॉल स्टेशन पहुँचे। वहाँ गतिमान सीढ़ियों (एस्केलेटर) पर सवार होकर भूमिगत प्लेटफार्म से ऊपर आए। फुटपाथ पर थोड़ा चलकर जैसे ही हम बाईं ओर मुड़े, देखा कि एक आलीशान संरचना हमारे स्वागत में खड़ा था। नाम था आर्क द ट्रायम्फ़।

आइफ़िल टावर से लिया गया चित्र (Wikimedia)

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है आर्क द ट्रायम्फ़ एक युद्ध स्मारक है। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में यह फ्राँसीसी क्रांति एवं नेपोलियन युद्ध में शहीद लोगों की याद में बनवाया गया था। इसके निर्माण का आदेश 1806 में नेपोलियन ने ही दिया था। हालांकि पूर्ण रूप से बनकर ये तैयार हुआ 1836 में। नेपोलियन की मृत्यु के 15 वर्षों बाद।

आर्क द ट्रायम्फ़ हमें दिल्ली के इंडिया गेट की याद दिला रहा था। ठीक वैसा ही था। एक विशाल धनुषाकार संरचना। अंतर केवल इतना कि आर्क द ट्रायम्फ़ 19वीं सदी में बना था। और इंडिया गेट 20वीं में। वैसे दुनियां में इस तरह के कई और भी युद्ध स्मारक हैं। रोम का आर्क द टाइटस इनमें सबसे पुराना है। उसे पहली शताब्दी में तत्कालीन रोम के सम्राट डोमिशन ने अपने बड़े भाई टाइटस की युद्ध में जीत की स्मृति में बनवाया था। उसी की तर्ज़ पर दुनियां के दूसरे सबसे पुराने युद्ध स्मारक आर्क द ट्रायम्फ़ का निर्माण हुआ। 1938 तक यह दुनियां का सबसे ऊंचा (164 फीट) स्मारक था।

आर्क द ट्रायम्फ़ बारह राहों के केंद्र में खड़ा है। अलग-अलग दिशाओं के लिए वहाँ से बारह सड़क फूटते हैं। हम उससे क़रीब पचास मीटर की दूरी पर खड़े थे। उसके चारों ओर मोटरगाड़ियाँ चक्कर लगा रही थीं। हम उसे निहार रहे थे। यातायात की गतिविधियों को देख रहे थे। पास जाकर उसे देखने की प्रक्रियाओं के बारे में हमें मालूम नहीं था। वैसे पास जाने का हमारा कोई इरादा भी नहीं था। हमारा तो लक्ष्य था वहाँ से ढ़ाई किलोमीटर की दूरी पर स्थित आइफ़िल टावर। सेन नदी के उस पार। आर्क द ट्रायम्फ़ के हमने कुछ फोटो लिये और टैक्सी लेकर आइफ़िल टावर की ओर चल पड़े।

स्थानीय भाषा में ‘आयरन लेडी’ (लौह स्त्री) के नाम से विख्यात आइफ़िल टावर के निर्माण की कहानी फ्रांसीसी क्रांति से जुड़ी है। 1889 में फ्रांसीसी क्रांति के 100 वर्ष पूरे होनेवाले थे। उसके उपलक्ष्य में पेरिस में वर्ड ट्रेड फेयर का आयोजन हो रहा था। अमरीका, जापान, भारत, मेक्सिको, ग्रीस, मोरक्को, पर्सिया, अर्जेंटीना, गॉटमाला सहित बहुत सारे देश उसमें भाग ले रहे थे। हालांकि ब्रिटेन, जर्मनी, रूस जैसे कुछ युरोपीय देश ऐसे भी थे जिन्होंने उसमें भाग नहीं लिया। उनके यहाँ राजतंत्र था। और वे फ्रांसीसी क्रांति के किसी उत्सव में शामिल होना नहीं चाहते थे।

ट्रेड फेयर के अवसर पर  यह निर्णय लिया गया कि एक ऐसी संरचना का निर्माण हो जिसे आनेवाले कई वर्षों तक दुनियां देख सके। उसे याद रख सके। फ्रांसीसी क्रांति के सौवें वर्षगांठ के प्रतीक के रूप में।

1884 में दो अभियंताओं ने मिलकर आइफ़िल टावर के डिज़ाइन को तैयार किया। उनके नाम थे मॉरिस कोएच्लिन और एमिली नॉगियर। चार्ल्स सौवेस्त्रे नामक आर्किटेक्ट ने डिज़ाइन में कुछ सुधार किये। फिर गस्ताव आइफ़िल नामक व्यक्ति ने उसे अपनी कम्पनी के नाम पेटेंट करवाकर उसे बनाने का बीड़ा उठाया। और उन्हीं के नाम से 1889 में आइफ़िल टावर बन कर तैयार हुआ। 330 मीटर के इस आइफ़िल टावर की ऊंचाई 81 मंजिली इमारत के बराबर है। 1889 में यह दुनियां की सबसे ऊंची मानव-निर्मित संरचना थी।

1889 में जगमगाते आइफ़िल टावर की पेंटिंग (Wikimedia)

आइफ़िल टावर के निर्माण की एक और कहानी है जो कैरिबियाई देश हैती की बर्बादी से जुड़ी है। 18वीं सदी तक हैती फ्रांस का उपनिवेश था। फ्रांस के लिए वह एक महत्वपूर्ण आय का श्रोत था। वहाँ ईख और कॉफी की सघन खेती होती थी। खेतों में काम करवाने के लिए अफ्रीका के मजदूरों को गुलाम बना कर लाया जाता था। सौ से भी ज्यादा वर्षों से वहाँ के लोग गुलामी और शोषण से पीड़ित थे। 1889 में जब फ्रांस में क्रांति हुई तो उसका प्रभाव वहाँ के लोगों पर भी पड़ा। समानता, आज़ादी जैसे विचारों से वे प्रेरित हुए। और 1891 में हैती दुनियां का पहला देश था जहां गुलामों ने अपने शासकों के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजाया। एक लम्बी लड़ाई के बाद, नेपोलियन बोनापार्ट की सेना को हराकर 1804 में फ्रांस के चंगुल से हैती आज़ाद हुआ।

पर ये आज़ादी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सकी। हैती को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। 1825 में फ्रांसीसी सेना ने उसे चारों ओर से घेर लिया। दबाव डालकर हर्जाने के तौर पर 150 मिलियन फ्रैंक लौटाने के लिए उसे विवश किया। यह एक प्रकार का फिरौती था। कनपटी पर बंदूक रखकर पैसे की मांग करने जैसा। रकम भी इतनी बड़ी कि हैती के लिए चुकाना असम्भव था। तब फ्रांस के ही इंडस्ट्रियल और कॉमर्शियल क्रेडिट (CIC) नामक बैंक ने उसे ऊंचे ब्याज दर पर कर्ज प्रदान दिया। एक तो फिरौती, फिर चुकाने के लिए ऊंचे ब्याज दर पर कर्ज। हैती के ऊपर ये दोहरी मार थी। परिणाम यह हुआ कि हैती के लोग उससे कभी उबर नहीं पाए। वे गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, हिंसा जैसी समस्याओं से ग्रसित हो गये। आज भी हैं। हैती अब एक फेल्ड स्टेट के रूप में जाना जाता है।

आइफ़िल टावर का निर्माण इंडस्ट्रियल और कॉमर्शियल क्रेडिट (CIC) नामक उसी बैंक के पैसे से हुआ जिसने हैती के खून पसीने की कमाई को ब्याज के रूप में वसूल कर धन इकट्ठा किया था। इस प्रकार आइफ़िल टावर का इतिहास हैतीयन लोकतंत्र की हत्या से भी जुड़ा है। केवल फ़्रांसीसी क्रांति के जश्न से ही नहीं।

इस बीच हमारी टैक्सी अपने गंतव्य पर पहुंच चुकी थी। आइफ़िल टावर हमसे लगभग दो सौ मीटर की दूरी पर था। जिस मीनार को हमने अबतक चित्रों में देखा था। जिसकी विशेषताओं की इतनी चर्चा सुनी थी। वह हमारे सामने खड़ा था। कुछ सेकेंड्स के लिए हम स्तब्ध हो गए। फिर पैदल चलकर हम उसकी छाँव में पहुँचे।

टावर के चारो ओर एक ऊंची दीवार है। अंदर जाने के लिए प्रवेश द्वार बने हुए हैं। टिकट की मदद से आप अंदर जा सकते हैं। हम वहाँ समय से दो घंटे पहले पहुँच गए थे। इसलिए हमें आइफ़िल टावर के आस-पास समय काटना था। वैसे समय कैसे कट गया, पता ही नहीं चला।

रविवार का दिन था। चारो ओर चहल-पहल थी। हमारे ठीक पास एक ईरानी कलाकार लोगों का कार्टून बना रहा था। हम पति-पत्नी ने भी वहाँ खड़े होकर अपना कार्टून बनवाया। कलाकार ने उसपर Love in Paris लिख दिया।

अरुण एवं बन्दना का कार्टून

आइफ़िल टावर के बाहरी परिसर से सटी एक चौड़ी सड़क थी जिसके ठीक समानांतर सेन नदी थी। हमलोगों ने सड़क पार की और सेन पर बने एक पुल पर खड़े हो गए। हमारे जैसे सैलानियों की वहाँ भीड़ थी। मेले जैसा माहौल था। भारत के मेले मे जैसे खोमचे वाले, ठेले वाले अपना सामान बेचते हैं, वैसे ही वहाँ भी खिलौने अथवा खाने-पीने की चीजें बिक रही थीं।

अचानक एक चीज पर हमारी नजर पड़ी। वह था भुट्टा। मकई का भुट्टा जिसे एक व्यक्ति आग पर पका कर बेच रहा था। ठीक वैसे ही जैसे भारत या भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों में भुट्टे पकाए जाते हैं। हमने अनुमान लगाया कि जरूर वह भारतीय उपमहाद्वीप के किसी देश से है। सचमुच वह बंग्लादेशी था। हमने दो भुट्टे खरीदे और दानों को छुड़ाकर खाने लगे। इस बीच इंचरा, तन्मय, मेधा अलग-अलग ऐनगिल्स से फोटो खींच रहे थे।

Credit: Inchara

अब टावर पर चढ़ने का हमारा समय हो गया। मैं, अरुण जी और मेधा तीनों अंदर गए। तन्मय और इंचरा को हमारे वापस आने तक वहीं इंतजार करना था। लिफ़्ट से हम पहली मंजिल पहुँचे। वहां से पेरिस की सुन्दरता देखते ही बनती थी। शाम हो चुकी थी। रोशनी से महानगर जगमगा रहा था। सेन नदी में बोटिंग हो रही थी। टावर की रंग-बिरंगी बत्तियां झिलमिला रही थीं। दर्शक उन्हें देखकर और भी प्रसन्न हो रहे थे। प्रेमी-प्रेमिकाओं की कई जोड़ियां आकण्ठ प्रेम में डूबी नजर आईं। एक बुर्जुग पति अपनी पत्नी को व्हीलचेयर पर लेकर आए थे। उन्हें देख कर हमारा मन भीग गया। इतनी भीड़-भाड़ वाली जगह पर इस उम्र में अपनी प्रेमिका को व्हीलचेयर पर बिठाकर लाने के साहस को सलाम।

टावर पर चढ़ने के लिए सीढ़ियां भी बनी थीं। पहली मंजिल के लिए 300 एवं दूसरी के लिए 300 और। पर उम्र के हिसाब से हमारे लिए लिफ्ट ही एक विकल्प था।
हम एक और लिफ्ट लेकर दूसरी मंजिल और फिर वहाँ से टाॅप पर पंहुचे। रोमांच सा हो रहा था, इतनी उंचाई पर अपने-आप को पाकर। नीचे सड़कों पर चलती गाडियाँ या सेन नदी पर तैरते बोट खिलौनों की तरह दिख रहे थे।

हमने पूरे सर्कल का चक्कर लगाया। वहाँ हमें एक छोटा कमरा दिखा जिसे गस्ताव आइफ़िल ने अपने लिए बनवाया था। जहाँ वे अपने समाज के गणमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित किया करते थे। अपने उस कमरे में उन्होंने देश-विदेश के कई पत्रकार, लेखक, वैज्ञानिक को बुलाया था। उनमें कुछ ऐसे भी थे जो शुरू में टावर के निर्माण का विरोध कर रहे थे। किन्तु वहाँ जाने के बाद उनके विचार बदल गये। प्रसिद्ध अमरीकी आविष्कारक एवं व्यापारी टॉमस अल्वा एडीसन आइफ़िल के मित्रों में से एक थे। एडिसन भी उस कमरे में आये थे। उन्होंने गुस्ताव आइफ़िल को भेंट स्वरूप एक फोनोग्राफ दिया था। उस कमरे में आइफ़िल और एडिसन की मूर्तियां बनी हैं। दोनों आमने-सामने बैठे हैं और फोनोग्राफ बीच में टेबल पर रखा है।

Edison & Eiffel on the top floor (Wikimedia)

उस मंजिल पर मेधा ने जमकर तस्वीरें उतारीं। हम वहां फ्रेंच फ्राई खा रहे थे और घूम-घूमकर पेरिस के नज़ारों को अपनी आंखों में क़ैद कर रहे थे। रविवार के कारण भीड़ थोड़ी ज्यादा थी। पर कोई शरीर दूसरे को टच नहीं कर रहा था। पता नहीं पेरिस के लोगों में इतना अनुशासन कहां से आता है!

हमलोग जब लिफ्ट से नीचे आए तब तन्मय ने कैब बुक किया। उसमें सीट आमने-सामने थे। हम पांचों प्रसन्न मुद्रा में बैठकर घर आए। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि हमारी पांचो उंगलयाँ घी में हैं। घर आकर भोजन करते ही बिस्तर की तलब हुई। खुशी की थकान भरपूर हो चुकी थी। पलक झपकते निदियां रानी ने हमें अपने आगोश में ले लिया।

Published by Arun Jee

Arun Jee is a literary translator from Patna, India. He translates poems and short stories from English to Hindi and also from Hindi to English. His translation of a poetry collection entitled Deaf Republic by a leading contemporary Ukrainian-American poet, Ilya Kaminski, was published by Pustaknaama in August 2023. Its title in Hindi is Bahara Gantantra. His other book is on English Grammar titled Basic English Grammar, published in April 2023. It is is an outcome of his experience of teaching English over more than 35 years. Arun Jee has an experience of editing and creating articles on English Wikipedia since 2009. He did his MA in English and PhD in American literature from Patna University. He did an analysis of the novels of a post war American novelist named Mary McCarthy for his PhD

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