
हमारे नगर में आजकल कुत्तों का प्रकोप बढ़ रहा है। हर गली में यहां आपको दो-चार मिल जाएंगे। अलग-अलग रंगों के कुत्ते। उजले, काले, लाल, चितकबरे।
वैसे मैं पालतू कुत्तों की बात नहीं कर रहा। अपने मालिक के टुकड़ों पर पलने वाले उन कुत्तों की बात अलग है। प्रकोप तो नगर में उनका भी है। उनके मालिक प्रायः मार्निंग वॉक में सैर करते हुए उन्हें जंजीरों में बांध कर घूमते हैं। इसलिए उनसे खतरा कम है। लेकिन नगरवासियों को उनके मल-मूत्र को झेलना पड़ता है। कुत्तों के मालिक अपने टामी, राकी, टाइगर (जो भी नाम हो) के मल-मूत्र त्याग के लिए नगर के सड़कों का अधिकारपूर्वक प्रयोग करते हैं। यही अगर कोई दूसरा बड़ा शहर होता तो लोग अपने कुत्ते के पॉटी को उठाने के लिए कोई पॉलिथिन बैग वगैरह का इंतजाम रखते। पिछले सप्ताह मैंने बेंगलुरु के एक सोसायटी में देखा कि सुबह-सुबह लोग कुत्तों को सैर कराते हुए आराम से पॉटी उठा रहे थे। डेढ़ वर्ष पहले जब पेरिस में था तो वहां के लोग इसके लिए और भी सजग दिखे। खैर, हम पटना को बेंगलुरु या पेरिस नहीं बना सकते पर सफाई के प्रति अपनी जिम्मेदारी तो बढ़ा ही सकते हैं। कम-से-कम अपनी सोसायटी में तो जरूर।
वैसे पालतू कुत्तों से भी ज्यादा हमें परेशानी है गली के कुत्तों से। हरेक गली में उनका चार-पांच का एक समूह है। उस समूह का प्रमुख एक कुत्ता, बाहुबली टाइप होता है। बाकी के कुत्ते, कुत्तियां उसका अनुसरण करते हैं। प्रायः ये नगर के लोगों को पहचानते हैं। इसलिए उनपर नहीं भौंकते। उन्हें तंग नहीं करते हैं। पर एक गली ऐसी है जिसका बाहुबली नगर के लोगों को भी नहीं बख़्शता। उस गली से गुजरने वाले कुछ नगरवासियों को उसका प्रकोप झेलना पड़ा है। कुछ लोगों को उसने केवल भौंककर डराया ही नहीं, बल्कि काटा भी है।
मेरा भी दो-तीन बार उससे सामना हुआ है। पहली बार तब जब मैं साइकिल से सुबह में चक्कर लगा रहा था। उसने मेरी ओर देखकर भौंकना शुरू कर दिया। अंदर से तो मैं डर गया था। क्योंकि उसके भौंकने और काटने की कहानियां मैंने सुन रखी थी। फिर भी साइकिल रोककर मैं उतर गया। और उसकी ओर देखकर डांटने लगा।
ये क्या बदतमीजी है। मैं तुम्हें कोई बाहरी दिख रहा हूं क्या? ये ग़लत बात है। मैं तुमसे डरने वाला नहीं हूं।
मेरे इस तेवर को देखकर वह चुप होकर पीछे हट गया। शायद उसे जवाब मिल गया था। भौंकने का जवाब भौंकना। अगली सुबह से जब भी मैं उधर से गुजरता तो वह मुझे नजर अंदाज कर देता था। ऐसा लगातार करीब एक महीने तक चलता रहा। पर कुछ समय बाद एक दिन फिर जब मैं साइकिल से जा रहा था तो फिर उसने भौंकना शुरू कर दिया। मेरा तरीका फिर वही था। मैं उतर कर उसे डांटने लगा। और वह चुप। खैर, उसके बाद से शायद वह मुझे पहचान गया है। लेकिन उधर से गुजरते वक्त मैं अभी भी सशंकित रहता हूं। कि पता नहीं कब भौंकना शुरू कर दे या काट ले?
इन घटनाओं के बारे में जब मैं सोचता हूं तो लगता है कि आखिर उस कुत्ते को मुझसे क्या परेशानी हो सकती है? क्या उसे मेरी साइकिल से चिढ़ है? उसे लगता होगा कि नगर के सभी लोगों के पास तो कार है। ये साइकिल वाला कहां से आ गया? जरूर ये कोई बाहरी है? उसे शायद मेरे हेलमेट से भी चिढ़ हो सकती है। लगता होगा कि हेलमेट तो मोटरसाइकिल के लिए होता है। ये साइकिल पर हेलमेट पहनकर कौन बेवकूफ आ गया? भगाओ इसे यहां से।
लगता है कि आदमी की मानसिकता भी तो यही है। नयापन हमें स्वीकार्य नहीं। चाहे वो कोई चीज हो, तरीका, वेश-भूषा या कोई नया व्यक्ति। हमें सबकुछ अपने जैसा चाहिए। अपरिचित, अलग को स्वीकारने में समय लगता है। उन्हें देखकर हम घूरते हैं। भौंकते हैं। या कभी कभी काट खाने को दौड़ते हैं।