पेरिस का ब्यूट शौमों पार्क

ब्यूटी शौमों पार्क जिसकी सुन्दरता के पीछे छुपी है उसकी कुरूपता और उसका भयावह इतिहास

फोटो क्रेडिट: अरुण जी

19 अक्टूबर को हम पेरिस पहुंचे। शाम को करीब आठ बजे। पेरिस हवाई अड्डे पर हमारे लिए सब कुछ नया था। नयी जगह, नये लोग और नयी भाषा। हिंदी हमसे पहले ही दूर हो चुकी थी। अंग्रेजी का विकल्प अभी भी हमारे लिए मौजूद था। यात्रियों की सुविधा के लिए लिखे गए निर्देश फ़्रेंच के अलावा अंग्रेजी में भी मौजूद थे। इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं हुई।

सबसे पहले मैंने एयरपोर्ट पर उपलब्ध वाय-फ़ाय से फोन को कनेक्ट किया और तन्मय से सम्पर्क किया। उसकी आवाज़ सुनकर थोड़ी जान में जान आई। फिर इमिग्रेशन वगैरह के चक्रव्यूह को पार करते हुए हम निकास द्वार की तरफ बढ़ने लगे। द्वार के बाहर इंतजार कर रहे लोगों में देखा कि तन्मय हमारा विडियो बना रहा था। चरणस्पर्श वगैरह की प्रक्रिया पूरी कर एक काली टैक्सी पर सवार होकर हम घर की ओर चल पड़े।

रास्ते में तन्मय हमें पेरिस के बारे में कुछ-कुछ बातें बता रहा था। जैसे चार्ल्स डी गौल एयरपोर्ट जहां हम उतरे थे वो पेरिस महानगर के उत्तर-पूर्व में स्थित है, मुख्य शहर से बाहर, उपनगरीय इलाके में है। तन्मय का घर भी उत्तरपूर्व में ही है। पर वो शहर का हिस्सा है। रात का समय था। हमारी टैक्सी अंधेरे को चीरती हुई आगे बढ़ रही थी। रास्ते में पेरिस के उपनगरीय क्षेत्र की टिमटिमाती बत्तियां दिख रही थीं। एक जगह तन्मय ने हमें उंगली के इशारे से कहा, यहां से देखिए, पेरिस शहर दिख रहा है। शायद वो कोई ऊंची जगह थी। नीचे शहर रौशनी में नहा रहा था। दूर दूर तक दिख रही थीं रंग-बिरंगी, झिलमिलाती बत्तियां। वहीं मिली हमें पेरिस की पहली झलक। 

पेरिस के जिस इलाके में हमारा निवास था उसका नाम है बेल्विल। शहर के उत्तर-पूर्वी भाग में बसा बेल्विल उन्नीसवीं सदी में मजदूरों का इलाका था। 1860 के आसपास पेरिस के पुनर्निर्माण में कार्यरत ज्यादातर मजदूर बेल्विल से आते थे। 1871 में नेपोलियन III की हार के बाद पेरिस कम्यून ने सत्तर दिनों के लिए जब सत्ता हासिल की तो उसमें भी यहां के मजदूरों की भूमिका अहम थी। उन्होंने सत्ता के खिलाफ हुई क्रांति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।

पोस्टकार्ड पर छपे पेरिस के प्रतीकों से अलग आज बेल्विल की पहचान उसके कलाकारों एवं उसकी बहुआयामी संस्कृति से है। कलाप्रेमियों को यहां के स्ट्रीट आर्ट आकर्षित करते हैं। थियेटर के वर्कशॉप और उससे जुड़ी गतिविधियां भी देखने को मिलती हैं। अफ्रीकी, एशियाई, साउथ अमरीकी मूल के अप्रवासी नागरिकों का ये गढ़ है। बीसवीं सदी की शुरुआत से ही समय-समय पर फ्रांस के पुराने उपनिवेशों एवं अन्य देशों से लोग यहां आए और बस गए। यहां आपको दुनियां की अलग-अलग भाषाओं, उनकी कलाओं, संस्कृतियों के अलग-अलग रंग और रूप दिखेंगे। खाने के लिए चीनी, वियतनामी, थाई, ट्यूनिशियन, मोरक्कन, अलजीरियन इत्यादि अलग-अलग तरह के रेस्तरां और उनके अपने-अपने व्यंजन मिलेंगे। हाल में एक लोकप्रिय वेबसाइट ने बेल्विल को दुनियां के 15 सबसे अच्छे इलाकों में शामिल किया है।

अगली सुबह सैर के लिए हम इसी इलाके में स्थित एक पार्क गए। रास्ते में मैंने गौर किया कि सड़क के किनारे या कहीं भी आस-पास कोई पेड़ या पौधा नहीं था। पूछने पर तन्मय ने बताया कि पेरिस में पेड़ पौधे मूल रूप से पार्क में होते हैं। उसके बाहर उनका स्तित्व अपेक्षाकृत कम है। येल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन मेरिमन बताते हैं कि पेरिस में केवल पांच प्रतिशत ही ग्रीन स्पेस है, जबकि लंदन और बर्लिन में करीब पच्चीस प्रतिशत। सुनकर मुझे थोड़ा धक्का लगा। ये तो पेड़ों को निर्वासित ज़िन्दगी जीने के लिए बाध्य करना हुआ। उन्हें पार्क में बनवास देना। फिर अपने देश के बारे में सोचकर लगा कि हम भी तो विकास की उसी धारा में चल पड़े हैं। अपने शहरों के सुंदरीकरण में जुट गए हैं। सड़कों के चौड़ीकरण, फ्लायरओवर, मेट्रो के निर्माण में। एक अंधी दौड़ में शामिल होकर पेड़-पौधे और प्रकृति के विनाश की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।

फोटो क्रेडिट: तन्मय

पार्क पहुंचने पर पेड़ों के बारे में मेरी चिन्ता थोड़ी कम हो गई। 61 एकड़ में फैले पहाड़ी पर स्थित पेरिस के इस प्रसिद्ध पार्क का नाम है ब्यूट शौमों पार्क। इसकी स्थापना 19वीं शताब्दी में हुई, नेपोलियन III के शासनकाल में। यह पेरिस का पांचवां सबसे बड़ा पार्क है। अलग-अलग किस्म के यहां हजारों पेड़-पौधे हैं। कुछ तो ऐसे भी जो 19 वीं सदी से अब तक बरकरार हैं।

सैर के लिए मौसम अनुकूल था। आसमान साफ था। सुबह की गुनगुनी धूप अंदर से गुदगुदा रही थी। पार्क की सुन्दरता हमें लुभा रही थी। सर्पनुमा रास्तों पर घूमते हुए वहां लगे पेड़, घास के मैदान हमें आकर्षित कर रहे थे। वहां आए लोगों में अधेड़ उम्र के स्त्री और पुरषों की संख्या ज्यादा थी। कुछ तेज चल रहे थे तो कुछ दौड़ भी लगा रहे थे। बीच-बीच में वहां से हमें पेरिस शहर की झलकियां मिल रही थीं। पार्क के ढलानों पर, उसके हरे-भरे मैदानों पर लोग अपने प्यारे कुत्तों के साथ खेल रहे थे। वहां चलते हुए मन में सवाल उभर रहे थे कि इतने बड़े पार्क की सुन्दरता, उसके रखरखाव का क्या इंतज़ाम होगा? कितने लोग यहां काम करते होंगे? तभी दिखी एक बड़ी सी आधुनिक मशीन और मिल गया मुझे अपने सवालों का जवाब। रखरखाव के लिए वहां मानव से ज्यादा मशीन की उपयोगिता थी।

ब्यूट शौमों पार्क जितना सुंदर है उतना ही भयावह है उसका इतिहास। 13वीं से 18वीं शताब्दी के मध्य तक वहां की सबसे ऊंची जगह पर अपराधियों को फांसी देने के बाद उनके मृत शरीर को फंदे में लटका कर छोड़ देने की व्यवस्था थी। उद्देश्य था कि आम जनता के अन्दर अपराध के प्रति दहशत पैदा हो। वहां एक साथ कई अपराधियों को फांसी देने और उनके शव को लटकाने का इंतजाम था। पेरिस या फ्रास के अन्य जगहों से भी दण्डित अपराधियों के शव को भी लटकाने के लिए वहां लाया जाता था। फांसी देने के लिए बने फंदों के इस ढांचे को अंग्रेजी/फ्रेंच में जिबिट (gibbet) कहते हैं। और उस कुख्यात ढांचे का नाम था Gibbet of Montfaucon जिसे हम मौन्टफौंकों के फंदे भी कह सकते हैं।

श्रोत: विकीमिडिया कॉमन्स

पहले मृत्यु दण्ड, फिर उसकी प्रदर्शनी। ये कैसी प्रथा थी? मन में कई सवाल खड़े हो जाते हैं। कि वे जघन्य अपराधी कौन थे जिन्हें मृत्यु दण्ड दिया जाता था? क्या उनमें से कुछ ऐसे भी थे जो पूर्ण रूप से निर्दोष थे? क्योंकि उस समय राजा की नीतियों के ख़िलाफ़ बोलना भी एक जघन्य अपराध था। न्यायिक प्रक्रिया मूल रूप से राजा की सत्ता के इर्द-गिर्द घूमती थी। सोचकर सिहरन होने लगती है। कितनी अमानवीय रही होगी वह प्रथा! खैर, फांसीसी क्रांति के आसपास इस प्रथा का अंत हो गया।

उसके बाद ये जगह कचरों का बड़ा ढेर बन गया। वहां घोड़ों के मृत शरीर को भी फेंका जाने लगा। इसकी बदबू इतनी ज्यादा थी कि हवा तेज होने पर वो पूरे पेरिस शहर में फ़ैल जाती थी। इसीलिए 1860 में जब बेल्विल को पेरिस शहर में शामिल करने का फैसला किया गया तो इस जगह पर एक पार्क बनाने का निर्णय लिया गया। और 1867 में ये कुख्यात एवं कुरूप पहाड़ी एक सुंदर पार्क में बदल गया। पार्क ब्यूट शौमों।

करीब डेढ़ सौ साल पुराने इस पार्क के असुन्दर भूत और सुंदर वर्तमान का चक्कर लगाते हुए जब हम थक गए तो एक कैफ़े में घुसे। काउंटर पर बैठे एक युवक ने ‘बौन्ज़ोर’ (bonjour) कहकर गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया। फ़्रेंच भाषा के नाम पर यही एक शब्द था जिससे मैं परिचित था। उस समय तक फ्रेंच मेरे लिए लैटिन या ग्रीक से ज्यादा कुछ भी नहीं था। जब हम वहां से चलने लगे तो कैफ़े वाले ने मुस्कुराते हुए कहा ‘मेर्सी’ (merci) जिसका अर्थ है धन्यवाद। मेर्सी हमारा दूसरा शब्द था जिसे बोलने का अभ्यास हम आने वाले दिनों में बार-बार करने वाले थे।

फोटो क्रेडिट: तन्मय

पार्क से लौटते हुए रोड के दोनों ओर बने इमारत हमें एक जैसे दिख रहे थे। क्रीम रंग की इन सात मंजिली भवनों की सातवीं मंजिल काले रंग की थी। दूर से देखकर ऐसा लग रहा था कि हरेक इमारत ने अपनी क्रीम कलर की पोशाक के ऊपर काले रंग की टोपी पहन रखी हो। पेरिस की इन खूबसूरत और खास इमारतों के डिज़ाइन और निर्माण का अपना एक इतिहास और अपनी एक कहानी है जिसके बारे में मैं किसी और पोस्ट में बताऊंगा।

फोटो क्रेडिट: अरुण जी

रास्ते में हमें एक बड़ी सी बिल्डिंग से छोटे बच्चों का एक समूह निकलता हुआ दिखाई पड़ा। वह एक स्कूल था। शायद वे कक्षा 3 या 4 के बच्चे थे। सभी एक लाइन से फुटपाथ पर चलने लगे। साथ में उनकी दो शिक्षिकाएं भी थीं। हम उनके सामने वाले फुटपाथ पर चल रहे थे। बिल्डिंग के ऊपर बोर्ड पर स्कूल का नाम फ्रेंच में लिखा था। पूरा नाम तो याद नहीं है। पर स्कूल के लिए फ्रेंच शब्द हमें मिल गया था। लीसे (lycee)। फ़्रेंच के इन्हीं शब्दों के अर्थ और उनके उच्चारण के बारे में बातें करते हुए हम घर पहुंचे।

Published by Arun Jee

Arun Jee is a literary translator from Patna, India. He translates poems and short stories from English to Hindi and also from Hindi to English. His translation of a poetry collection entitled Deaf Republic by a leading contemporary Ukrainian-American poet, Ilya Kaminski, was published by Pustaknaama in August 2023. Its title in Hindi is Bahara Gantantra. His other book is on English Grammar titled Basic English Grammar, published in April 2023. It is is an outcome of his experience of teaching English over more than 35 years. Arun Jee has an experience of editing and creating articles on English Wikipedia since 2009. He did his MA in English and PhD in American literature from Patna University. He did an analysis of the novels of a post war American novelist named Mary McCarthy for his PhD

Leave a comment