
मछली बनाम रोजगार। चुनाव के इस माहौल में आजकल ये मुद्दा काफी गरम है। और मैं मछली के पक्ष में हूं।
मुझे मटन, मछली, चिकन वगैरह खाना पसंद है। पर मैं इस बात से पूर्णतया सहमत हूं कि इन्हें रोज़ खाना उचित नहीं। सप्ताह में दो दिन हमें नॉनवेज खाने को विराम देना चाहिए। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि उन दो दिनों के बाद आप उसे और भी ज्यादा चाव से खायेंगे। उसपर टूट पड़ेंगे।
सप्ताह के ये दो दिन अगर मंगलवार व शनिवार हों तो और भी बेहतर। रविवार के दिन आपने खूब खाया, थोड़ा सोमवार को भी चख लिया। उसके बाद मंगलवार को एक दिन के लिए आराम। फिर बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार को छककर खाइए। एक दिन मटन, दूसरे दिन मछली, तीसरे दिन चिकन। कुछ और भी ट्राई कर सकते हैं। पर शनिवार को आप दीजिए पूरे एक दिन का विराम। रविवार से फिर चालू हो जाइए।
मैं इस बात का भी पक्षधर हूं कि पूरे साल में कम-से-कम दो बार विराम थोड़ा लम्बा होना ही चाहिए। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने नवरात्र में इसे खाने से मना किया था। या फिर सावन का पूरा एक महीना इसका खाना वर्जित कर दिया गया। लम्बे विराम के बाद इनके खाने का मज़ा ही कुछ और है। जैसे ही मछली का पहला टुकड़ा आपके मुंह में गया नहीं कि आप नैसर्गिक सुख का अनुभव करने लगेंगे (ध्यान रहे कि मछली का कांटा मुंह में नहीं फंसे)। यही कारण है कि सावन या नवरात्र के बाद नॉनवेज की दुकानों पर खरीदारों की भीड़ बढ़ जाती है। मुझे तो नॉनवेज के कुछ व्यंजनों के बारे में सोचकर ही मुंह में पानी आ रहा है। पर राम राम। अभी तो उनके बारे में सोच भी नहीं सकता। नवरात्र चल रहा है।
जहां तक रोज़गार की बात है। मुझे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं। वैसे भी मुझे रोजगार से क्या लेना-देना। जो करना था उसे मैंने पहले ही कर लिया। तीस सालों तक चक्की पीसिंग पीसिंग पीसिंग। अब मुझे जिंदगी के मजे लेने हैं। कभी पटना के चिड़ियाघर में तालाब के निकट पेड़ की डाली पर झूलना। तो कभी साईकिल से गंगा किनारे मरीन ड्राइव जाकर रघुवीर के यहां चाय पीना तो कभी फ्रेंड्स कॉलोनी में Dilgappe का ज़ाइक़ा लेना। ज़िन्दगी में और चाहिए क्या?
अब आप समझ गए होंगे कि क्यों मैं मछली के पक्ष में हूं, रोज़गार के पक्ष में बिल्कुल नहीं।