प्रभात प्रणीत के उपन्यास ‘वैशालीनामा: लोकतंत्र की जन्मकथा’ पर प्रस्तुत है एक चर्चा।

क़िताबें आपकी आलमारियों की शोभा बढ़ाती हुई अक्सर आपको लुभाती हैं। कहती हैं कि आओ मुझे देखो, मुझे खोलो, मेरी दुनिया में प्रवेश करो। कुछ किताबों को आप खोलते हैं, फिर पन्नों को पलट कर रख देते हैं। कुछ में आप प्रवेश भी करते हैं लेकिन आधे रास्ते ही लौट आते हैं। बहुत कम किताबें ऐसी होती हैं जिसकी गहराई में आप डूबते चले जाते हैं। जिसका अंत कर ही आप दम लेते हैं। ऐसी ही एक पुस्तक है वैशालीनामा। प्रभात प्रणीत का पहला उपन्यास। राजकमल से प्रकाशित।
सितम्बर 2023 में जब वैशालीनामा का लोकार्पण हुआ था तभी मैं उसकी एक प्रति घर लेकर आया था। सोचा था कि आराम से पढूंगा। दिसंबर में पुस्तक मेले के दौरान इस पर हुई चर्चा को सुनकर मेरी रुचि और बढ़ गई। पिछले सप्ताह जब मैंने इसे शुरू किया तो जैसा कि लेखक-आलोचक प्रेम कुमार मणि ने इसके बारे में कहा था कि ‘ये मुझे पढ़वा ले गई’। इसे पढ़ने की मुझे कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में लिखा गया वैशालीनामा मूलतः एक प्रेम कहानी है। इसके माध्यम से प्रभात प्रणीत ने एक आदर्श समाज व राष्ट्र की परिकल्पना पेश की है।
कहानी के शुरू में युवराज नाभाग महर्षि मलय ऋषभ के काशी स्थित आश्रम से अपनी शिक्षा को पूरी कर अपने पिता के पास लौटता है। उसके पिता नाभानेदिष्ट वज्जि के राजा हैं जो जल्द ही नाभाग को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने वाले हैं। इस बीच नाभाग को सुप्रभा से प्रेम हो जाता है। नाभाग और सुप्रभा के प्रेम में वैसे तो सबकुछ सामान्य होना चाहिए था। पर उनके बीच सबसे बड़ी बाधा है जाति व्यवस्था। नाभाग क्षत्रिय है और सुप्रभा वैश्य जाति से आती है।
नाभाग का चचेरा भाई वसुधर ऐसे ही किसी मौके की तलाश में है। वह पहले से ही राज्य की सत्ता हथियाने का उपाय ढूंढ रहा है। वह इस अंतर्जातीय सम्बन्ध को मुद्दा बनाकर एक षड्यंत्र रचता है। इस षड्यंत्र में राजपुरोहित और अन्य लोगों की मदद से सुप्रभा और नाभाग के इस सम्बन्ध के विरोध में सुप्रभा के पिता को खड़ा कर देता है। स्थिति ऐसी बनती है कि नाभाग को अपने प्रेम की खातिर राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह करना पड़ता है। नाभाग और उसके पिता महाराज नाभानेदिष्ट युद्ध के मैदान में एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हो जाते हैं। वसुधर अपनी योजना में सफल हो जाता है। नाभाग को राजधानी से बाहर निकाल दिया जाता है। और राजा नाभानेदिष्ट अपने भतीजे वसुधर को अपनी राजगद्दी सौंप वन में प्रस्थान कर जाते हैं। दूसरी ओर नाभाग अपने क्षत्रिय जाति का त्याग कर वैश्य बन जाता है। फिर सुप्रभा से शादी के बाद अपने ही राज्य में दोनों सामान्य नागरिकों की तरह जीवन बसर करने लगते हैं।
नाभाग और सुप्रभा के इसी प्रेम कहानी को केन्द्र में रखकर प्रभात प्रणीत ने रचा है इस उपन्यास के प्लॉट का ताना-बाना जिसमें उन्होंने मनुष्य, समाज और राज्य के आपसी सम्बन्धों और उनके बीच टकराव को उजागर करने की कोशिश की है।
कहानी में नाभाग और सुप्रभा दोनों वयस्क हैं। शिक्षित हैं। दोनों के बीच प्रेम का होना एक मानवीय, स्वाभाविक घटना है। दोनों को अपने प्रेम और विवाह के बारे में निर्णय लेने की पूरी आज़ादी होनी चाहिए। पर कहानी में मानव-निर्मित जाति-व्यवस्था आरे आती है। नाभाग सुप्रभा से शादी नहीं कर सकता क्योंकि वह क्षत्रिय है और सुप्रभा वैश्य। ये व्यक्ति और समाज के बीच टकराव का एक स्पष्ट उदाहरण है। इसमें समाज द्वारा व्यक्ति के प्रकृति प्रदत्त अधिकार के हनन की कोशिश है। उपन्यास में नाभाग और सुप्रभा अपनी इस आजादी के लिए समाज और राज्य दोनों का मुकाबला करते हैं। उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। दोनों को अपने-अपने पिता एवं परिवार से अलग होना पड़ता है। नाभाग को राजसत्ता से वंचित होना पड़ता है।
व्यक्ति और समाज के इस टकराव के अलावा लेखक ने विभिन्न जातियों के अंतर्विरोध और उनके बीच के टकराव को भली-भांति चित्रित किया है। किस प्रकार जातियों की एक सीढ़ी है जिसमें कोई जाति अगर सत्ता के शीर्ष पर तो कोई उसके नीचे, फिर और नीचे। वर्चस्व की इस लड़ाई में कैसे कुछ जातियां सत्ता पर अपनी पकड़ बना कर रखती हैं। राजनीति के इस खेल में कैसे ये राज्य को भी अपने पक्ष में शामिल करने में सफल हो जाती हैं। प्रभात प्रणीत ने वैशालीनामा में इन सारी बातों को प्रभावी ढंग से पेश किया है।
कहानी के अगले भाग में जब नाभाग और सुप्रभा का पुत्र भलान्दन कुछ वर्षों बाद राजऋषि निपा के हिमवंत आश्रम से अपनी शिक्षा पूरी कर लौटता है तो अपनी बुद्धि और युद्ध कौशल से, वसुधर को युद्ध में हरा देता है। और वैशाली का राजा बन जाता है। हम जानते हैं कि भलान्दन जाति से वैश्य है क्योंकि उसके पिता नाभाग सुप्रभा से शादी के दौरान अपनी जाति परिवर्तन कर क्षत्रिय से वैश्य बन गए थे। इस प्रकार वज्जि राज्य की सत्ता पर अब कोई क्षत्रिय नहीं बल्कि वैश्य जाति का एक व्यक्ति विराजमान हो जाता है।
लेखक ने सत्ता के इस हस्तांतरण के माध्यम से राज्य में जातिगत भेद-भाव की समस्या के समाधान का एक मॉडल प्रस्तुत किया है। एक आदर्श समाज के इस मॉडल में अगर प्राचीन भारतीय इतिहास की परछाई है तो आज के समय की झलक भी। बल्कि मुझे ये आज की सच्चाई के ज्यादा करीब दिखती है। भारत में लोकतंत्र की स्थापना के सत्तर वर्षों के बाद सत्ता अब केवल उन्हीं जातियों तक सीमित नहीं है जो पहले शीर्ष पर हुआ करते थे। जिनका सैकड़ों वर्षों से सत्ता पर एकाधिकार था। बल्कि उन जातियों की भागीदारी बढ़ी है जो बीच के पायदान पर थे। उपन्यास में वैश्य जाति के भलान्दन का सत्ता पर काबिज होना इसी बात का प्रतीक है।
पर सच यह भी है कि अभी भी जो जातियां हमारे यहां वर्षों बरस निचले पायदान पर रही हैं उन्हें समाज में बराबरी का उचित लाभ मिलना बाकी है। समानता स्थापित करने की ओर हम बढ़ जरूर रहे हैं। पर समाज के उस तबके के लिए मंजिल अभी भी दूर है और संघर्ष अभी जारी। लेखक ने वैशालीनामा के अंतिम पृष्ठ पर सत्यरथ और उसके साथियों की हत्या के दर्दनाक दृश्य के द्वारा इस बात को स्पष्ट करने की कोशिश की है। मेरा अनुमान है कि वैशालीनामा का यह अंतिम दृश्य लेखक के अगले उपन्यास की रचना का बीज साबित होगा।
वैशालीनामा की कहानी दिलचस्प एवं प्रभावमान है। इसमें नाभाग, सुप्रभा, आचार्य ब्रह्मदत्त, वसुधर जैसे पात्रों को चुनकर लेखक ने एक प्रभावी प्लॉट गढ़ा है। और इस प्लॉट से उभरता है इस उपन्यास का थीम जो लेखक का सपना प्रतीत होता है। एक आदर्श समाज की स्थापना का सपना। एक ऐसा समाज जिसमें सभी जातियों की भागीदारी समान हो। जहां न कोई ऊंच हो न कोई नीच।
लेखक इस बात को लेकर सजग है कि किसी आदर्श समाज की स्थापना के लिए वहां की शिक्षा व्यवस्था का दुरुस्त होना कितना जरूरी है। इसीलिए हम देखते हैं कि उपन्यास में शिक्षा के जितने भी आश्रम हैं वे सभी समाज और राज्य के बेहतरी के लिए विद्यार्थियों को उचित शिक्षा प्रदान करते हैं। चाहे वो महर्षि मलय ऋषभ का आश्रम हो, ऋषि निपा का या आचार्य ब्रह्मदत्त का। कुछ अंतर भी है। जैसे आचार्य ब्रह्मदत्त के आश्रम में निचले तबके की जातियों की पढ़ाई के लिए विशेष प्रावधान है। ऋषि निपा के आश्रम में युद्ध कला की शिक्षा अनिवार्य है। फिर भी इन सभी आश्रमों के पाठ्यक्रमों में समानता स्पष्ट दिखाई देता है। तभी तो समाज और राजनीति के बारे में नाभाग, सुप्रभा और सत्यरथ के विचार इतने समान हैं।
ये कैसा संयोग है कि जब प्रभात प्रणीत की वैशालीनामा प्रकाशित हुई, लगभग उसी के आसपास अब्दुल्ला ख़ान की अंग्रेजी में ‘अ मैन फ्रम मोतिहारी’ नामक उपन्यास आई। भाषा में अंतर के बावजूद दोनों में कई समानताएं दिखती हैं। दोनों उपन्यास भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान और भविष्य की ओर पाठकों का ध्यान खीचती हैं। एक की चिंता अगर जाति से जुड़ी है तो दूसरे की धर्म से। लोकतंत्र की कहानियां व्यक्त करती इन दोनों उपन्यासों की भूमि भी एक ही है। वही उर्वरक भूमि जहां जार्ज औरवेल पैदा हुए या जहां से गांधी ने अपने सत्याग्रह की शुरुआत की।