आइफ़िल टावर की सैर

पिछले वर्ष अरुण एवं बन्दना की पेरिस यात्रा पर आधारित

Source: Wikimedia

पेरिस पहुंचने के तीन दिन बाद हमारा पड़ाव था आइफ़िल टावर। भारत में उस दिन (22 अक्टूबर) नवरात्रि के त्योहार का नौवां दिन था। सोशल मीडिया पर दुर्गा पूजा के चहल-पहल की खबरें आ रही थीं। पटना के पूजा पंडालों में लोगों की भीड़ उमड़ने वाली थी। उधर पेरिस में हमलोग आइफ़िल टावर के दर्शन को जानेवाले थे।

पेरिस में जिन स्थलों को देखने की हमनें सूची बनाई थी उसमें आइफ़िल का नाम सबसे ऊपर था। बचपन से उसकी छवि हमारे ज़ेहन में थी। उसके चित्र को हमने क़िताबों में, इंटरनेट पर बार-बार देखा था। उसके बारे में बहुत कुछ सुना था। अब हम उसे देखने जा रहे थे।

दोपहर भोजन के बाद हम बेल्विल से निकले। बेल्विल पेरिस नगर निगम का एक डिस्ट्रिक्ट (प्रशासनिक इकाई) है। पेरिस के उत्तर-पूर्वी छोर पर बसा। वहीं हमारा निवास था।

बेल्विल से मेट्रो लेकर हम चार्ल्स डिगॉल स्टेशन पहुँचे। वहाँ गतिमान सीढ़ियों (एस्केलेटर) पर सवार होकर भूमिगत प्लेटफार्म से ऊपर आए। फुटपाथ पर थोड़ा चलकर जैसे ही हम बाईं ओर मुड़े, देखा कि एक आलीशान संरचना हमारे स्वागत में खड़ा था। नाम था आर्क द ट्रायम्फ़।

आइफ़िल टावर से लिया गया चित्र (Wikimedia)

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है आर्क द ट्रायम्फ़ एक युद्ध स्मारक है। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में यह फ्राँसीसी क्रांति एवं नेपोलियन युद्ध में शहीद लोगों की याद में बनवाया गया था। इसके निर्माण का आदेश 1806 में नेपोलियन ने ही दिया था। हालांकि पूर्ण रूप से बनकर ये तैयार हुआ 1836 में। नेपोलियन की मृत्यु के 15 वर्षों बाद।

आर्क द ट्रायम्फ़ हमें दिल्ली के इंडिया गेट की याद दिला रहा था। ठीक वैसा ही था। एक विशाल धनुषाकार संरचना। अंतर केवल इतना कि आर्क द ट्रायम्फ़ 19वीं सदी में बना था। और इंडिया गेट 20वीं में। वैसे दुनियां में इस तरह के कई और भी युद्ध स्मारक हैं। रोम का आर्क द टाइटस इनमें सबसे पुराना है। उसे पहली शताब्दी में तत्कालीन रोम के सम्राट डोमिशन ने अपने बड़े भाई टाइटस की युद्ध में जीत की स्मृति में बनवाया था। उसी की तर्ज़ पर दुनियां के दूसरे सबसे पुराने युद्ध स्मारक आर्क द ट्रायम्फ़ का निर्माण हुआ। 1938 तक यह दुनियां का सबसे ऊंचा (164 फीट) स्मारक था।

आर्क द ट्रायम्फ़ बारह राहों के केंद्र में खड़ा है। अलग-अलग दिशाओं के लिए वहाँ से बारह सड़क फूटते हैं। हम उससे क़रीब पचास मीटर की दूरी पर खड़े थे। उसके चारों ओर मोटरगाड़ियाँ चक्कर लगा रही थीं। हम उसे निहार रहे थे। यातायात की गतिविधियों को देख रहे थे। पास जाकर उसे देखने की प्रक्रियाओं के बारे में हमें मालूम नहीं था। वैसे पास जाने का हमारा कोई इरादा भी नहीं था। हमारा तो लक्ष्य था वहाँ से ढ़ाई किलोमीटर की दूरी पर स्थित आइफ़िल टावर। सेन नदी के उस पार। आर्क द ट्रायम्फ़ के हमने कुछ फोटो लिये और टैक्सी लेकर आइफ़िल टावर की ओर चल पड़े।

स्थानीय भाषा में ‘आयरन लेडी’ (लौह स्त्री) के नाम से विख्यात आइफ़िल टावर के निर्माण की कहानी फ्रांसीसी क्रांति से जुड़ी है। 1889 में फ्रांसीसी क्रांति के 100 वर्ष पूरे होनेवाले थे। उसके उपलक्ष्य में पेरिस में वर्ड ट्रेड फेयर का आयोजन हो रहा था। अमरीका, जापान, भारत, मेक्सिको, ग्रीस, मोरक्को, पर्सिया, अर्जेंटीना, गॉटमाला सहित बहुत सारे देश उसमें भाग ले रहे थे। हालांकि ब्रिटेन, जर्मनी, रूस जैसे कुछ युरोपीय देश ऐसे भी थे जिन्होंने उसमें भाग नहीं लिया। उनके यहाँ राजतंत्र था। और वे फ्रांसीसी क्रांति के किसी उत्सव में शामिल होना नहीं चाहते थे।

ट्रेड फेयर के अवसर पर  यह निर्णय लिया गया कि एक ऐसी संरचना का निर्माण हो जिसे आनेवाले कई वर्षों तक दुनियां देख सके। उसे याद रख सके। फ्रांसीसी क्रांति के सौवें वर्षगांठ के प्रतीक के रूप में।

1884 में दो अभियंताओं ने मिलकर आइफ़िल टावर के डिज़ाइन को तैयार किया। उनके नाम थे मॉरिस कोएच्लिन और एमिली नॉगियर। चार्ल्स सौवेस्त्रे नामक आर्किटेक्ट ने डिज़ाइन में कुछ सुधार किये। फिर गस्ताव आइफ़िल नामक व्यक्ति ने उसे अपनी कम्पनी के नाम पेटेंट करवाकर उसे बनाने का बीड़ा उठाया। और उन्हीं के नाम से 1889 में आइफ़िल टावर बन कर तैयार हुआ। 330 मीटर के इस आइफ़िल टावर की ऊंचाई 81 मंजिली इमारत के बराबर है। 1889 में यह दुनियां की सबसे ऊंची मानव-निर्मित संरचना थी।

1889 में जगमगाते आइफ़िल टावर की पेंटिंग (Wikimedia)

आइफ़िल टावर के निर्माण की एक और कहानी है जो कैरिबियाई देश हैती की बर्बादी से जुड़ी है। 18वीं सदी तक हैती फ्रांस का उपनिवेश था। फ्रांस के लिए वह एक महत्वपूर्ण आय का श्रोत था। वहाँ ईख और कॉफी की सघन खेती होती थी। खेतों में काम करवाने के लिए अफ्रीका के मजदूरों को गुलाम बना कर लाया जाता था। सौ से भी ज्यादा वर्षों से वहाँ के लोग गुलामी और शोषण से पीड़ित थे। 1889 में जब फ्रांस में क्रांति हुई तो उसका प्रभाव वहाँ के लोगों पर भी पड़ा। समानता, आज़ादी जैसे विचारों से वे प्रेरित हुए। और 1891 में हैती दुनियां का पहला देश था जहां गुलामों ने अपने शासकों के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजाया। एक लम्बी लड़ाई के बाद, नेपोलियन बोनापार्ट की सेना को हराकर 1804 में फ्रांस के चंगुल से हैती आज़ाद हुआ।

पर ये आज़ादी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सकी। हैती को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। 1825 में फ्रांसीसी सेना ने उसे चारों ओर से घेर लिया। दबाव डालकर हर्जाने के तौर पर 150 मिलियन फ्रैंक लौटाने के लिए उसे विवश किया। यह एक प्रकार का फिरौती था। कनपटी पर बंदूक रखकर पैसे की मांग करने जैसा। रकम भी इतनी बड़ी कि हैती के लिए चुकाना असम्भव था। तब फ्रांस के ही इंडस्ट्रियल और कॉमर्शियल क्रेडिट (CIC) नामक बैंक ने उसे ऊंचे ब्याज दर पर कर्ज प्रदान दिया। एक तो फिरौती, फिर चुकाने के लिए ऊंचे ब्याज दर पर कर्ज। हैती के ऊपर ये दोहरी मार थी। परिणाम यह हुआ कि हैती के लोग उससे कभी उबर नहीं पाए। वे गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, हिंसा जैसी समस्याओं से ग्रसित हो गये। आज भी हैं। हैती अब एक फेल्ड स्टेट के रूप में जाना जाता है।

आइफ़िल टावर का निर्माण इंडस्ट्रियल और कॉमर्शियल क्रेडिट (CIC) नामक उसी बैंक के पैसे से हुआ जिसने हैती के खून पसीने की कमाई को ब्याज के रूप में वसूल कर धन इकट्ठा किया था। इस प्रकार आइफ़िल टावर का इतिहास हैतीयन लोकतंत्र की हत्या से भी जुड़ा है। केवल फ़्रांसीसी क्रांति के जश्न से ही नहीं।

इस बीच हमारी टैक्सी अपने गंतव्य पर पहुंच चुकी थी। आइफ़िल टावर हमसे लगभग दो सौ मीटर की दूरी पर था। जिस मीनार को हमने अबतक चित्रों में देखा था। जिसकी विशेषताओं की इतनी चर्चा सुनी थी। वह हमारे सामने खड़ा था। कुछ सेकेंड्स के लिए हम स्तब्ध हो गए। फिर पैदल चलकर हम उसकी छाँव में पहुँचे।

टावर के चारो ओर एक ऊंची दीवार है। अंदर जाने के लिए प्रवेश द्वार बने हुए हैं। टिकट की मदद से आप अंदर जा सकते हैं। हम वहाँ समय से दो घंटे पहले पहुँच गए थे। इसलिए हमें आइफ़िल टावर के आस-पास समय काटना था। वैसे समय कैसे कट गया, पता ही नहीं चला।

रविवार का दिन था। चारो ओर चहल-पहल थी। हमारे ठीक पास एक ईरानी कलाकार लोगों का कार्टून बना रहा था। हम पति-पत्नी ने भी वहाँ खड़े होकर अपना कार्टून बनवाया। कलाकार ने उसपर Love in Paris लिख दिया।

अरुण एवं बन्दना का कार्टून

आइफ़िल टावर के बाहरी परिसर से सटी एक चौड़ी सड़क थी जिसके ठीक समानांतर सेन नदी थी। हमलोगों ने सड़क पार की और सेन पर बने एक पुल पर खड़े हो गए। हमारे जैसे सैलानियों की वहाँ भीड़ थी। मेले जैसा माहौल था। भारत के मेले मे जैसे खोमचे वाले, ठेले वाले अपना सामान बेचते हैं, वैसे ही वहाँ भी खिलौने अथवा खाने-पीने की चीजें बिक रही थीं।

अचानक एक चीज पर हमारी नजर पड़ी। वह था भुट्टा। मकई का भुट्टा जिसे एक व्यक्ति आग पर पका कर बेच रहा था। ठीक वैसे ही जैसे भारत या भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों में भुट्टे पकाए जाते हैं। हमने अनुमान लगाया कि जरूर वह भारतीय उपमहाद्वीप के किसी देश से है। सचमुच वह बंग्लादेशी था। हमने दो भुट्टे खरीदे और दानों को छुड़ाकर खाने लगे। इस बीच इंचरा, तन्मय, मेधा अलग-अलग ऐनगिल्स से फोटो खींच रहे थे।

Credit: Inchara

अब टावर पर चढ़ने का हमारा समय हो गया। मैं, अरुण जी और मेधा तीनों अंदर गए। तन्मय और इंचरा को हमारे वापस आने तक वहीं इंतजार करना था। लिफ़्ट से हम पहली मंजिल पहुँचे। वहां से पेरिस की सुन्दरता देखते ही बनती थी। शाम हो चुकी थी। रोशनी से महानगर जगमगा रहा था। सेन नदी में बोटिंग हो रही थी। टावर की रंग-बिरंगी बत्तियां झिलमिला रही थीं। दर्शक उन्हें देखकर और भी प्रसन्न हो रहे थे। प्रेमी-प्रेमिकाओं की कई जोड़ियां आकण्ठ प्रेम में डूबी नजर आईं। एक बुर्जुग पति अपनी पत्नी को व्हीलचेयर पर लेकर आए थे। उन्हें देख कर हमारा मन भीग गया। इतनी भीड़-भाड़ वाली जगह पर इस उम्र में अपनी प्रेमिका को व्हीलचेयर पर बिठाकर लाने के साहस को सलाम।

टावर पर चढ़ने के लिए सीढ़ियां भी बनी थीं। पहली मंजिल के लिए 300 एवं दूसरी के लिए 300 और। पर उम्र के हिसाब से हमारे लिए लिफ्ट ही एक विकल्प था।
हम एक और लिफ्ट लेकर दूसरी मंजिल और फिर वहाँ से टाॅप पर पंहुचे। रोमांच सा हो रहा था, इतनी उंचाई पर अपने-आप को पाकर। नीचे सड़कों पर चलती गाडियाँ या सेन नदी पर तैरते बोट खिलौनों की तरह दिख रहे थे।

हमने पूरे सर्कल का चक्कर लगाया। वहाँ हमें एक छोटा कमरा दिखा जिसे गस्ताव आइफ़िल ने अपने लिए बनवाया था। जहाँ वे अपने समाज के गणमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित किया करते थे। अपने उस कमरे में उन्होंने देश-विदेश के कई पत्रकार, लेखक, वैज्ञानिक को बुलाया था। उनमें कुछ ऐसे भी थे जो शुरू में टावर के निर्माण का विरोध कर रहे थे। किन्तु वहाँ जाने के बाद उनके विचार बदल गये। प्रसिद्ध अमरीकी आविष्कारक एवं व्यापारी टॉमस अल्वा एडीसन आइफ़िल के मित्रों में से एक थे। एडिसन भी उस कमरे में आये थे। उन्होंने गुस्ताव आइफ़िल को भेंट स्वरूप एक फोनोग्राफ दिया था। उस कमरे में आइफ़िल और एडिसन की मूर्तियां बनी हैं। दोनों आमने-सामने बैठे हैं और फोनोग्राफ बीच में टेबल पर रखा है।

Edison & Eiffel on the top floor (Wikimedia)

उस मंजिल पर मेधा ने जमकर तस्वीरें उतारीं। हम वहां फ्रेंच फ्राई खा रहे थे और घूम-घूमकर पेरिस के नज़ारों को अपनी आंखों में क़ैद कर रहे थे। रविवार के कारण भीड़ थोड़ी ज्यादा थी। पर कोई शरीर दूसरे को टच नहीं कर रहा था। पता नहीं पेरिस के लोगों में इतना अनुशासन कहां से आता है!

हमलोग जब लिफ्ट से नीचे आए तब तन्मय ने कैब बुक किया। उसमें सीट आमने-सामने थे। हम पांचों प्रसन्न मुद्रा में बैठकर घर आए। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि हमारी पांचो उंगलयाँ घी में हैं। घर आकर भोजन करते ही बिस्तर की तलब हुई। खुशी की थकान भरपूर हो चुकी थी। पलक झपकते निदियां रानी ने हमें अपने आगोश में ले लिया।

अल्बैर कामू का उपन्यास अजनबी

फ्रांसीसी लेखक अल्बैर कामू का बहुचर्चित उपन्यास द स्ट्रेंजर 1942 में प्रकाशित हुआ। इसके हिंदी रुपांतरण ‘अजनबी’ के अनुवादक हैं राजेन्द्र यादव। राजकमल से प्रकाशित हुई है। ‘अजनबी’ पर अपने विचार प्रस्तुत कर रही हैं बन्दना।

अल्बैर कामू का उपन्यास अजनबी विश्व साहित्य के श्रेष्ठतम उपन्यासों में से एक माना जाता है। कहानी, किरदार, थीम, टेक्नीक, भाषा हरेक दृष्टिकोण से अप्रतिम। एक बार जब आप इसके लोक में प्रवेश करते हैं, तो खत्म करने के बाद ही रुकते हैं। कहानी का असर आपके ऊपर उसके बाद भी कई दिनों तक रहता है।

मैंने इसे पिछले सप्ताह खत्म किया। मेरे ऊपर इसका असर आज भी है। हमारे परिवार में अजनबी इतना लोकप्रिय हुआ कि इसी महीने तीन सदस्यों ने इसे तीन अलग-अलग भाषाओं में पढ़ डाला। मैंने हिंदी में, मेरे पति ने अंग्रेजी और बेटे ने मूल फ्रेंच में। फ़्रेंच में लिखे इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद राजेन्द्र यादव ने किया है। राजकमल ने इसे प्रकाशित किया है। अंग्रेजी में इसका शीर्षक है द स्ट्रेंजर।

कहानी शुरू होती है उपन्यास के नायक मर्सो की मां की मृत्यु से। गांव के आश्रम से उसके लिए संदेश है:

“मां मर गई। आज। या शायद कल। मुझे पता नहीं।       गांव से एक टेलिग्राम आया था। लिखा था: ‘मां मर गई। कल अंत्येष्टि है। आपका विश्वासी।’ कुछ स्पष्ट नहीं है। मृत्यु शायद कल हुई।”

मर्सो अल्जीरिया की राजधानी अल्जीयर्स में रहता है। वहां एक कम्पनी के आफिस में क्लर्क है। उपन्यास उसी के जीवन की कहानी है। वही उपन्यास का कथावाचक भी है। मृत्यु की खबर मिलने पर वह अंत्येष्टि में शामिल होने गांव जाता है। वापस लौटने पर उसकी मुलाकात आफिस की भूतपूर्व सहकर्मी मेरी कार्डोना से होती है। दोनों एक-दूसरे के क़रीब आ जाते हैं। प्रेम पाश में बंध जाते हैं। सप्ताहांत में दोनों एक-दूसरे के साथ समय बिताने लगते हैं। फिर मर्सो की दोस्ती अपनी बिल्डिंग में रहने वाले रेमंड सिन्ते नामक व्यक्ति से होती है। उसके साथ मर्सो और उसकी प्रेमिका मेरी एक दिन समन्दर के तट पर जाते हैं। वहां मर्सो के हाथों एक व्यक्ति की हत्या हो जाती है। 

उसके बाद मर्सो की गिरफ़्तारी, उससे पूछताछ एवं जांच-पड़ताल का सिलसिला शुरू होता है। कोर्ट की लम्बी सुनवाई के बाद उसे जो सजा सुनाई जाती है, वह एकदम से चौंकाने वाला है: बीच चौराहे पर उसका सर क़लम कर दिया जाय।

यह सच है कि मर्सो ने गोली चलाई थी। इस बात को वह ख़ुद स्वीकार करता है। ऐसा उसने अपने बचाव में किया था। पर इतनी बड़ी सजा? बीच चौराहे पर सर क़लम किये जाने की? अपराध के अनुपात में इतना बड़ा दंड जज ने आखिर किन तथ्यों के आधार पर दिया? हमारे मन में ये प्रश्न स्वतः उभरने लगते हैं।

केस की सुनवाई के दौरान मर्सो के खिलाफ पेश किए गए तथ्य इस प्रकार थे: कि अपनी मां की अंत्येष्टि के दौरान मर्सो की आंखों में आंसू नहीं थे। मृत मां के चेहरे को देखने से उसने इंकार कर दिया था। शोक की बेला में उसने दूध वाली कॉफी पी थी। उसे ब्लैक कॉफी पीना चाहिए था। अंत्येष्टि के दो दिन बाद वह अपनी प्रेमिका के साथ कॉमेडी फिल्म देखने गया। और यह भी कि उसे ईश्वर में विश्वास नहीं है। इन्हीं बातों को आधार मानकर कोर्ट ने मर्सो को एक क्रूर अपराधी घोषित कर दिया। और उसे कठोरतम दंड दिया। मृत्युदंड।

कहानी के माध्यम से कामू ने दिखाने की कोशिश की है कि समाज के आगे व्यक्ति कितना विवश है। अपने अस्तित्व, अपनी खुशी की खातिर कैसे उसे समाज की परम्पराओं, उसकी धारणाओं के अनुरूप ढलना पड़ता है। अपने विवेक व विचारों से समझौता करना पड़ता है। और ऐसा नहीं करने पर उसकी दुर्गति हो सकती है। वैसे ही जैसे मर्सो की हुई।

मर्सो को मां से उतना ही लगाव था जितना किसी और बच्चे को होता है। कई मौकों पर उसे मां की याद आती है। पर क्या मां की मृत्यु पर आंसू बहाने, ब्लैक कॉफी पीने या ईश्वर में विश्वास जैसी मान्यताओं का अनुसरण करना उसके लिए जरूरी था? और क्या इन मान्यताओं के अनुसरण को उसके अपराध से जोड़ना उचित था? ये प्रश्न हमारे मन में बार-बार आते हैं। ये शायद आज के समाज के लिए भी उतने ही प्रासंगिक हैं।

कानून व्यवस्था की तो कामू ने कलई खोल कर रख दी है। उसने दर्शाया है कि समाज के पूर्वाग्रहों का न्यायिक व्यवस्था पर कितना गहरा असर है। मर्सो जैसा सच्चा व विवेकशील इंसान समाज के पाखंड के आगे कितना मजबूर है। वैसे तो द्वितीय विश्व युद्ध के समय लिखे गए इस काल्पनिक कहानी को अल्जीरिया या फ्रांस के संदर्भ में लिखा गया था। पर इसकी सच्चाई की गूंज हम आज के भारत में भी सुन सकते हैं।

दो खंडों में विभक्त अजनबी की कहानी को कामू ने बहुत ही बारीकी से बुना है। उपन्यास का पहला वाक्य है: ‘मां मर गई’ पाठक को यकायक कहानी से जोड़ लेता है। बाद की घटनाएं जैसे मर्सो का मेरी से प्रेम, ऑफिस में उसकी गतिविधियां, या फिर रेमंड से उसकी दोस्ती एक-के-बाद-एक आती रहती हैं। कहानी की गति इतनी तेज कि हम जल्द ही पहले खंड के अंत तक पहुंच जाते हैं। हालांकि अंत आते-आते अचानक हम चौंक पड़ते हैं। हत्या की एक घटना से। जो सनसनीखेज है पर काव्यात्मक भी। अंतिम पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैं:

“…घोड़ा दब गया। मैंने रिवाल्वर के मुलायम हत्थे के कम्पन को महसूस किया ….. मुझे मालूम था कि मैंने सागर तट की उस व्यापक शान्ति को भंग किया था। वही शान्ति जिसमें मैं खुश था … उसके बाद उस निर्जीव शरीर पर मैंने चार गोलियां और चलाई। सुख के दरवाजे पर लगातार चार कर्णभेदी दस्तक की तरह।”

दूसरे खंड में हमारी उत्सुकता बढ़ जाती है। और कहानी तेज गति से बढ़ती रहती है। मैजिस्ट्रेट से मर्सो की बातचीत, जेल में उसके अनुभव या कोर्ट की सुनवाई। कोई भी भाग ऐसा नहीं है जो अनावश्यक लगता है। सब-कुछ नपा तुला। अंतिम अध्याय में पादरी के ऊपर मर्सो के ग़ुस्से का अचानक फूट पड़ना उपन्यास का चरमोत्कर्ष है। यह हमें झकझोर कर रख देता है। इसके बाद नायक के अपराध और उसकी सजा से जुड़े विचार हमारे मन को कचोटते हैं। व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों व जीवन के अर्थ जैसे विषयों के बारे में सोचने को मजबूर करते हैं।

फिर उपन्यास के शीर्षक का महत्व भी समझ में आने लगता है। स्पष्ट हो जाता है कि लीक से हटकर चलने वाला उपन्यास का नायक मर्सो सचमुच एक अजनबी था। उसकी कहानी समाज और उसकी स्थापित व्यवस्था पर एक करारा प्रहार है।

लोकतंत्र के भूत, वर्तमान और भविष्य की कहानी: अरुण जी

प्रभात प्रणीत के उपन्यास ‘वैशालीनामा: लोकतंत्र की जन्मकथा’ पर प्रस्तुत है एक चर्चा।

क़िताबें आपकी आलमारियों की शोभा बढ़ाती हुई अक्सर आपको लुभाती हैं। कहती हैं कि आओ मुझे देखो, मुझे खोलो, मेरी दुनिया में प्रवेश करो। कुछ किताबों को आप खोलते हैं, फिर पन्नों को पलट कर रख देते हैं। कुछ में आप प्रवेश भी करते हैं लेकिन आधे रास्ते ही लौट आते हैं। बहुत कम किताबें ऐसी होती हैं जिसकी गहराई में आप डूबते चले जाते हैं। जिसका अंत कर ही आप दम लेते हैं। ऐसी ही एक पुस्तक है वैशालीनामा। प्रभात प्रणीत का पहला उपन्यास। राजकमल से प्रकाशित।

सितम्बर 2023 में जब वैशालीनामा का लोकार्पण हुआ था तभी मैं उसकी एक प्रति घर लेकर आया था। सोचा था कि आराम से पढूंगा। दिसंबर में पुस्तक मेले के दौरान इस पर हुई चर्चा को सुनकर मेरी रुचि और बढ़ गई। पिछले सप्ताह जब मैंने इसे शुरू किया तो जैसा कि लेखक-आलोचक प्रेम कुमार मणि ने इसके बारे में कहा था कि ‘ये मुझे पढ़वा ले गई’। इसे पढ़ने की मुझे कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में लिखा गया वैशालीनामा मूलतः एक प्रेम कहानी है। इसके माध्यम से प्रभात प्रणीत ने एक आदर्श समाज व राष्ट्र की परिकल्पना पेश की है। 

कहानी के शुरू में युवराज नाभाग महर्षि मलय ऋषभ के काशी स्थित आश्रम से अपनी शिक्षा को पूरी कर अपने पिता के पास लौटता है। उसके पिता नाभानेदिष्ट वज्जि के राजा हैं जो जल्द ही नाभाग को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने वाले हैं। इस बीच नाभाग को सुप्रभा से प्रेम हो जाता है। नाभाग और सुप्रभा के प्रेम में वैसे तो सबकुछ सामान्य होना चाहिए था। पर उनके बीच सबसे बड़ी बाधा है जाति व्यवस्था। नाभाग क्षत्रिय है और सुप्रभा वैश्य जाति से आती है।

नाभाग का चचेरा भाई वसुधर ऐसे ही किसी मौके की तलाश में है। वह पहले से ही राज्य की सत्ता हथियाने का उपाय ढूंढ रहा है। वह इस अंतर्जातीय सम्बन्ध को मुद्दा बनाकर एक षड्यंत्र रचता है। इस षड्यंत्र में राजपुरोहित और अन्य लोगों की मदद से सुप्रभा और नाभाग के इस सम्बन्ध के विरोध में सुप्रभा के पिता को खड़ा कर देता है। स्थिति ऐसी बनती है कि नाभाग को अपने प्रेम की खातिर राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह करना पड़ता है। नाभाग और उसके पिता महाराज नाभानेदिष्ट युद्ध के मैदान में एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हो जाते हैं। वसुधर अपनी योजना में सफल हो जाता है। नाभाग को राजधानी से बाहर निकाल दिया जाता है। और राजा नाभानेदिष्ट अपने भतीजे वसुधर को अपनी राजगद्दी सौंप वन में प्रस्थान कर जाते हैं। दूसरी ओर नाभाग अपने क्षत्रिय जाति का त्याग कर वैश्य बन जाता है। फिर सुप्रभा से शादी के बाद अपने ही राज्य में दोनों सामान्य नागरिकों की तरह जीवन बसर करने लगते हैं।

नाभाग और सुप्रभा के इसी प्रेम कहानी को केन्द्र में रखकर प्रभात प्रणीत ने रचा है इस उपन्यास के प्लॉट का ताना-बाना जिसमें उन्होंने मनुष्य, समाज और राज्य के आपसी सम्बन्धों और उनके बीच टकराव को उजागर करने की कोशिश की है। 

कहानी में नाभाग और सुप्रभा दोनों वयस्क हैं। शिक्षित हैं। दोनों के बीच प्रेम का होना एक मानवीय, स्वाभाविक घटना है। दोनों को अपने प्रेम और विवाह के बारे में निर्णय लेने की पूरी आज़ादी होनी चाहिए। पर कहानी में मानव-निर्मित जाति-व्यवस्था आरे आती है। नाभाग सुप्रभा से शादी नहीं कर सकता क्योंकि वह क्षत्रिय है और सुप्रभा वैश्य। ये व्यक्ति और समाज के बीच टकराव का एक स्पष्ट उदाहरण है। इसमें समाज द्वारा व्यक्ति के प्रकृति प्रदत्त अधिकार के हनन की कोशिश है। उपन्यास में नाभाग और सुप्रभा अपनी इस आजादी के लिए समाज और राज्य दोनों का मुकाबला करते हैं। उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। दोनों को अपने-अपने पिता एवं परिवार से अलग होना पड़ता है। नाभाग को राजसत्ता से वंचित होना पड़ता है।

व्यक्ति और समाज के इस टकराव के अलावा लेखक ने विभिन्न जातियों के अंतर्विरोध और उनके बीच के टकराव को भली-भांति चित्रित किया है। किस प्रकार जातियों की एक सीढ़ी है जिसमें कोई जाति अगर सत्ता के शीर्ष पर तो कोई उसके नीचे, फिर और नीचे। वर्चस्व की इस लड़ाई में कैसे कुछ जातियां सत्ता पर अपनी पकड़ बना कर रखती हैं। राजनीति के इस खेल में कैसे ये राज्य को भी अपने पक्ष में शामिल करने में सफल हो जाती हैं। प्रभात प्रणीत ने वैशालीनामा में इन सारी बातों को प्रभावी ढंग से पेश किया है।

कहानी के अगले भाग में जब नाभाग और सुप्रभा का पुत्र भलान्दन कुछ वर्षों बाद राजऋषि निपा के हिमवंत आश्रम से अपनी शिक्षा पूरी कर लौटता है तो अपनी बुद्धि और युद्ध कौशल से, वसुधर को युद्ध में हरा देता है। और वैशाली का राजा बन जाता है। हम जानते हैं कि भलान्दन जाति से वैश्य है क्योंकि उसके पिता नाभाग सुप्रभा से शादी के दौरान अपनी जाति परिवर्तन कर क्षत्रिय से वैश्य बन गए थे। इस प्रकार वज्जि राज्य की सत्ता पर अब कोई क्षत्रिय नहीं बल्कि वैश्य जाति का एक व्यक्ति विराजमान हो जाता है। 

लेखक ने सत्ता के इस हस्तांतरण के माध्यम से राज्य में जातिगत भेद-भाव की समस्या के समाधान का एक मॉडल प्रस्तुत किया है। एक आदर्श समाज के इस मॉडल में अगर प्राचीन भारतीय इतिहास की परछाई है तो आज के समय की झलक भी। बल्कि मुझे ये आज की सच्चाई के ज्यादा करीब दिखती है। भारत में लोकतंत्र की स्थापना के सत्तर वर्षों के बाद सत्ता अब केवल उन्हीं जातियों तक सीमित नहीं है जो पहले शीर्ष पर हुआ करते थे। जिनका सैकड़ों वर्षों से सत्ता पर एकाधिकार था। बल्कि उन जातियों की भागीदारी बढ़ी है जो बीच के पायदान पर थे। उपन्यास में वैश्य जाति के भलान्दन का सत्ता पर काबिज होना इसी बात का प्रतीक है। 

पर सच यह भी है कि अभी भी जो जातियां हमारे यहां वर्षों बरस निचले पायदान पर रही हैं उन्हें समाज में बराबरी का उचित लाभ मिलना बाकी है। समानता स्थापित करने की ओर हम बढ़ जरूर रहे हैं। पर समाज के उस तबके के लिए मंजिल अभी भी दूर है और संघर्ष अभी जारी। लेखक ने वैशालीनामा के अंतिम पृष्ठ पर सत्यरथ और उसके साथियों की हत्या के दर्दनाक दृश्य के द्वारा इस बात को स्पष्ट करने की कोशिश की है। मेरा अनुमान है कि वैशालीनामा का यह अंतिम दृश्य लेखक के अगले उपन्यास की रचना का बीज साबित होगा। 

वैशालीनामा की कहानी दिलचस्प एवं प्रभावमान है। इसमें नाभाग, सुप्रभा, आचार्य ब्रह्मदत्त, वसुधर जैसे पात्रों को चुनकर लेखक ने एक प्रभावी प्लॉट गढ़ा है। और इस प्लॉट से उभरता है इस उपन्यास का थीम जो लेखक का सपना प्रतीत होता है। एक आदर्श समाज की स्थापना का सपना। एक ऐसा समाज जिसमें सभी जातियों की भागीदारी समान हो। जहां न कोई ऊंच हो न कोई नीच।

लेखक इस बात को लेकर सजग है कि किसी आदर्श समाज की स्थापना के लिए वहां की शिक्षा व्यवस्था का दुरुस्त होना कितना जरूरी है। इसीलिए हम देखते हैं कि उपन्यास में शिक्षा के जितने भी आश्रम हैं वे सभी समाज और राज्य के बेहतरी के लिए विद्यार्थियों को उचित शिक्षा प्रदान करते हैं। चाहे वो महर्षि मलय ऋषभ का आश्रम हो, ऋषि निपा का या आचार्य ब्रह्मदत्त का। कुछ अंतर भी है। जैसे आचार्य ब्रह्मदत्त के आश्रम में निचले तबके की जातियों की पढ़ाई के लिए विशेष प्रावधान है। ऋषि निपा के आश्रम में युद्ध कला की शिक्षा अनिवार्य है। फिर भी इन सभी आश्रमों के पाठ्यक्रमों में समानता स्पष्ट दिखाई देता है। तभी तो समाज और राजनीति के बारे में नाभाग, सुप्रभा और सत्यरथ के विचार इतने समान हैं।

ये कैसा संयोग है कि जब प्रभात प्रणीत की वैशालीनामा प्रकाशित हुई, लगभग उसी के आसपास अब्दुल्ला ख़ान की अंग्रेजी में ‘अ मैन फ्रम मोतिहारी’ नामक उपन्यास आई। भाषा में अंतर के बावजूद दोनों में कई समानताएं दिखती हैं। दोनों उपन्यास भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान और भविष्य की ओर पाठकों का ध्यान खीचती हैं। एक की चिंता अगर जाति से जुड़ी है तो दूसरे की धर्म से। लोकतंत्र की कहानियां व्यक्त करती इन दोनों उपन्यासों की भूमि भी एक ही है। वही उर्वरक भूमि जहां जार्ज औरवेल पैदा हुए या जहां से गांधी ने अपने सत्याग्रह की शुरुआत की।

मछली बनाम रोज़गार

Photo credit: Meta AI

मछली बनाम रोजगार। चुनाव के इस माहौल में आजकल ये मुद्दा काफी गरम है। और मैं मछली के पक्ष में हूं।

मुझे मटन, मछली, चिकन वगैरह खाना पसंद है। पर मैं इस बात से पूर्णतया सहमत हूं कि इन्हें रोज़ खाना उचित नहीं। सप्ताह में दो दिन हमें नॉनवेज खाने को विराम देना चाहिए। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि उन दो दिनों के बाद आप उसे और भी ज्यादा चाव से खायेंगे। उसपर टूट पड़ेंगे।

सप्ताह के ये दो दिन अगर मंगलवार व शनिवार हों तो और भी बेहतर। रविवार के दिन आपने खूब खाया, थोड़ा सोमवार को भी चख लिया। उसके बाद मंगलवार को एक दिन के लिए आराम। फिर बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार को छककर खाइए। एक दिन मटन, दूसरे दिन मछली, तीसरे दिन चिकन। कुछ और भी ट्राई कर सकते हैं। पर शनिवार को आप दीजिए पूरे एक दिन का विराम। रविवार से फिर चालू हो जाइए।

मैं इस बात का भी पक्षधर हूं कि पूरे साल में कम-से-कम दो बार विराम थोड़ा लम्बा होना ही चाहिए। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने नवरात्र में इसे खाने से मना किया था। या फिर सावन का पूरा एक महीना इसका खाना वर्जित कर दिया गया। लम्बे विराम के बाद इनके खाने का मज़ा ही कुछ और है। जैसे ही मछली का पहला टुकड़ा आपके मुंह में गया नहीं कि आप नैसर्गिक सुख का अनुभव करने लगेंगे (ध्यान रहे कि मछली का कांटा मुंह में नहीं फंसे)। यही कारण है कि सावन या नवरात्र के बाद नॉनवेज की दुकानों पर खरीदारों की भीड़ बढ़ जाती है। मुझे तो नॉनवेज के कुछ व्यंजनों के बारे में सोचकर ही मुंह में पानी आ रहा है। पर राम राम। अभी तो उनके बारे में सोच भी नहीं सकता। नवरात्र चल रहा है।

जहां तक रोज़गार की बात है। मुझे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं।  वैसे भी मुझे रोजगार से क्या लेना-देना। जो करना था उसे मैंने पहले ही कर लिया। तीस सालों तक चक्की पीसिंग पीसिंग पीसिंग। अब मुझे जिंदगी के मजे लेने हैं। कभी पटना के चिड़ियाघर में तालाब के निकट पेड़ की डाली पर झूलना। तो कभी साईकिल से गंगा किनारे मरीन ड्राइव जाकर रघुवीर के यहां चाय पीना तो कभी फ्रेंड्स कॉलोनी में Dilgappe का ज़ाइक़ा लेना। ज़िन्दगी में और चाहिए क्या?

अब आप समझ गए होंगे कि क्यों मैं मछली के पक्ष में हूं, रोज़गार के पक्ष में बिल्कुल नहीं।

अल्बर्ट कैमू के उपन्यास द स्ट्रेंजर को पढ़ते हुए

फोटो क्रेडिट: अरुण जी

‘मां मर गई। आज। या शायद कल। मुझे पता नहीं। गांव से मेरे लिए एक टेलिग्राम आया था। लिखा था:
“मां मर गई। कल अंत्येष्टि है। आपका विश्वासी।” कुछ स्पष्ट नहीं है। मृत्यु शायद कल हुई।”

उपरोक्त पंक्तियां हैं विश्व प्रसिद्ध उपन्यासकार एलबर्ट कैमू के बहुचर्चित उपन्यास द स्ट्रेंजर की। इन्हीं पंक्तियों से उपन्यास की शुरुआत होती है। और इन्हीं से हमारा परिचय होता है इसके मुख्य किरदार मर्सो से। उसकी मां की मृत्यु की सूचना मिलती है। द स्ट्रेंजर मर्सो की ही कहानी है। इसका वाचक भी वही है।

इन शब्दों को प्रस्तुत करने के लहजे से झलकती है मर्सो के अंदर की उदासीनता, जो केवल मां तक ही सीमित नहीं है। उदासीनता उसके व्यक्तित्व का अंग है। जो बार-बार कहानी में उभरती है। समझ में नहीं आता कि आखिर कौन-सी ऐसी चीज है जो जीवन में उसे अपनी ओर खींचती है। लगता है कि जीवन को बस वह ढ़ो रहा है।

अपने प्रेम, शादी, कैरियर, दोस्ती सबके प्रति उसका रवैया समान है। गर्लफ्रेंड के समय वह समय बिताता है पर शादी के प्रस्ताव पर उसे मना कर देता है। ऐसा नहीं है कि शादी के लिए उसके पास कोई बेहतर प्रस्ताव है या उसके लिए वह प्रयासरत है। उसी तरह जब बॉस उसे ऑफिस के काम से अल्ज़ियर से पेरिस भेजना चाहता है तो वह मना कर देता है।

जीवन के थपेड़ो से बचने की कोई कोशिश भी नहीं है। बिना समझे बूझे अपने पड़ोसी के निजी झगड़ों में उलझ जाता है और एक व्यक्ति की हत्या का गुनाहगार बन जाता है।

दो खंडों में विभक्त इस काव्यात्मक उपन्यास के दूसरे खंड में पता चलेगा कि आगे उसकी जिंदगी में क्या होनेवाला है? पढ़कर बताऊंगा…

साईकिल, सांढ़ और तोरलो नदी

Photo credit: Yadvendra

साईकिल से मेरा साक्षात्कार पहली बार नानी घर में हुआ। यह साठ के दशक की बात है। तब मैं बहुत छोटा था। मेरा ननिहाल है शेरपुर। पटना से लगभग सौ किलोमीटर पूरब गंगा के किनारे। यह मोकामा पुल से लगभग दो किलोमीटर दक्षिण की ओर बसा है। जन्म से लेकर बचपन के कई वर्ष मैंने नानी घर में ही बिताए।

ननिहाल में मेरी दुनिया बहुत छोटी थी। परिवार के सदस्यों के अलावा घर में एक गाय थी और एक बछड़ा। पक्षियों का भी आना जाना लगा रहता था। सुबह-शाम खासकर ज्यादा। वे सब हमारे घर के सदस्य की तरह थे। उनकी गतिविधियों को देखना, उनसे बातें करना, कभी कभी उनकी आवाज की नकल उतारना मुझे अच्छा लगता था।

पर साईकिल उन सबसे अलग था। सबसे पहले तो वह मेरे पिता, मेरे हीरो, का सहचर था। उनके साथ आता, बस चंद दिनों के लिए। फिर चला जाता उन्हीं के साथ किसी रहस्यमय गंतव्य की ओर, मुझे छोड़कर। उसकी अनुपस्थिति में मैं इंतजार करता रहता, उसके फिर से आने का। हालांकि मुझे यह नहीं पता था कि आदमी, जानवर, पक्षियों वगैरह से बिल्कुल अलग, साईकिल एक निर्जीव वस्तु है। मेरे लिए वह बस एक अजूबा था। उसकी बनावट, उसका आकार, उसके पहियों का घूमना और सबसे ज्यादा ट्रिन, ट्रिन करती उसकी घंटी मुझे आकर्षित करते थे। जब चाहे उसके एक पैडल पर एक पैर को रखकर उसके सीट पर फांदकर बैठकर जाइए। फिर उसके पैडल को घुमाते हुए आगे बढ़ जाइए।

मेरे पिता उस वक्त लक्खीसराय के निकट हलसी नामक प्रखंड में नौकरी करते थे। और महीने में एक-दो बार शेरपुर (ससुराल) आते थे। मेरी मां से और मुझसे मिलने। साईकिल पर सवार होकर, एक लम्बी दूरी तय कर। हलसी से शेरपुर की दूरी करीब 35 किलोमीटर है।

एक बार वे अमावस्या की अंधेरी रात में हलसी से आ रहे थे। शेरपुर से लगभग दो किलोमीटर पहले, बड़हिया के पास, अचानक उनकी साईकिल किसी ठोस चीज से जा टकराई। और वे दूर जा गिरे। उठकर देखा कि काले रंग का एक सांढ़ सड़क के बीचोंबीच पड़ा था। पास गए तो उसने एक लम्बी सांस लेकर किया… फों..। जल्दी से उन्होंने अपनी साईकिल उठाई और शेरपुर की ओर भागे। सौभाग्य से उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा था।

Photo credit: Meta AI

पिता जब भी आते तो वे अपनी साईकिल को कमरे में स्टैंड पर खड़ी कर देते। और वह मुझे अक्सर लुभाया करती थी। मानो वो मुझसे कह रही हो कि आओ तुम मेरे साथ खेलो। मौका मिलते ही मैं उसके चक्कर लगाने लगता। और यह मौका मुझे मिलता सुबह के समय जब मेरी मां और नानी घर के कामों में व्यस्त रहतीं। और मेरे नाना, मामू और पिता तीनों देश-विदेश की खबरों के बारे में बातचीत कर रहे होते। उस दौरान भारत-चीन युद्ध में भारत की हार हुई थी। यह मुझे इसलिए याद है क्योंकि इस पर विवाद बढ़ जाता था। जोर जोर से बातें होने लगती थीं। मेरे मामू और पिता दोनों इस हार के लिए नेहरू की सरकार को दोषी मानते थे। मेरे नाना ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने भाग लिया था। वे गांधी, नेहरू व कांग्रेस के समर्थक रह चुके थे। चीन द्वारा भारत पर किए गए हमले से वे व्यथित जरूर थे। और नेहरू की सरकार से उन्हें अपेक्षाएं भी थीं। पर दबी जुबान से ही सही, पर वे कांग्रेस और नेहरू के पक्ष में बोलते थे।

मेरे लिए यही एक सही मौका होता था जब मैं साईकिल को छू सकता था। उसके साथ खेल सकता था। मै तीन साल का बच्चा था। साईकिल की तुलना में मेरी लम्बाई लगभग आधी थी। मैं कभी उसके पैडल घुमाता कभी पहियों में हाथ डालता। एक बार मैं जब उसे हिलाने की कोशिश करने लगा तो हम दोनों गिर पड़े। साईकिल ऊपर और मैं उसके नीचे। तब से मुझे प्रायः उस साईकिल से दूर रखा जाने लगा। जब कभी भी मैं उसके पास जाने की कोशिश करता, मेरी मां या मेरी नानी मुझे वहां से हटा दिया करतीं। हालांकि इसके बावजूद उस साईकिल के साथ मेरे गिरने की घटना एक दो बार और हुई।

Photo credit: Meta AI

इस तरह शेरपुर में साईकिल से मेरा परिचय हुआ। पर उससे अंतरंगता बढ़ी करीब पांच साल बाद। बिल्कुल एक नये स्थान पर।

सन 1967 में पिता का तबादला सिंहभूम जिले के एक प्रखंड में हुआ। इसी साल बिहार में पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार चुन कर आई थी। उस वक्त झारखंड बिहार का ही एक हिस्सा हुआ करता था। दोनों राज्य अभी अलग नहीं हुए थे।

तब शेरपुर में हमारा रहना कम हो गया था। हम मोकामा में अपने दादा जी के घर में रहने लगे थे। दादाजी का घर इसलिए कि वही उस घर के मुखिया थे। अपने और चेचेरे मिलाकर हमारे पिता दस भाई थे और उनकी पत्नियों एवं बच्चों सबको मिलाकर उस वक्त घर में पचास से भी ज्यादा सदस्य रहते थे। एक बड़ा सा संयुक्त परिवार था। जिस प्रखंड में पिता का स्थानांतरण हुआ उसका नाम था मंझारी। मंझारी काफी दूर था। मोकामा से लगभग 500 किलोमीटर दूर। पिता ने तय किया कि वे हमें (मां, मेरी दो बहनों और मुझे) भी वहां ले जाएंगे। 

ढेर सारे सामान के साथ, रेल और बस की लम्बी यात्रा तय कर, हम मंझारी प्रखंड पहुंचे। रहने के लिए हमें एक क्वार्टर मिला। पचास सदस्यों के मोकामा के घर से पांच सदस्यों वाले एक क्वार्टर में हमारे लिए एक नए जीवन की शुरूआत हुई। उस समय मैं आठ वर्ष का था। मोकामा के घर में मेरी उम्र के और कई चचेरे भाई बहन थे। पर एकल परिवार के इस घर में मेरे साथ खेलने के लिए कोई नहीं था। मेरी दोनों बहनें मुझसे बहुत छोटी थीं। यहीं पिता की साईकिल से मेरी दोस्ती की शुरुआत हुई।

प्रखंड के लोग बिहार के अलग-अलग हिस्सों के थे। उनकी भाषाएं अलग थीं। मगही, भोजपुरी, मैथिली इत्यादि। हिन्दी वहां की लिंक भाषा थी। पर एक और भाषा से हमारा परिचय हुआ, जिसका नाम था ‘हो’। इस भाषा को बोलने वाले लोग उस क्षेत्र के मूल निवासी थे। उनकी भाषा, उनकी संस्कृति मेरे मन में उत्सुकता पैदा करती थी। हमारी कॉलोनी में उनकी संख्या बहुत कम थी। पर आसपास के गांवों, कस्बों में प्रायः उसी समुदाय के लोग रहते थे। हम उन्हें आदिवासी के रूप में जानते थे और वे हमें दिकू के रूप में। दिकू शायद इसीलिए क्योंकि हम उनकी जिन्दगी में दखल दिया करते थे, दिक्कत पैदा करते थे।

मेरे घर के सामने मुख्य सड़क थी जिसका एक सिरा भरभरिया होकर उड़ीसा की ओर जाती थी और दूसरा चाईबासा की ओर। उस सड़क पर हमें आदिवासी लोग आते जाते दिखते थे। पैदल अथवा साईकिल पर। बड़े वाहन केवल दो ही थे। प्रखंड की एक सरकारी जीप और चाईबासा से भरभरिया जाने वाली एक बस। नाम था आदिवासी बस, जो दिन में बस एक बार ही आती थी। इन दोनों के अलावा जो सबसे ज्यादा दिखने वाली वाहन थी, वह थी साईकिल। कई बार मुझे आदिवासी युवक और युवतियों के जोड़े साईकिल पर दिख जाते थे। युवक सीट पर बैठकर साईकिल चला रहा होता और युवती उसके आगे डंडे पर बैठी। दोनों एक-दूसरे से बातें करते, प्रेम का इज़हार करते हुए। उनके लिए पुरुष और महिला के बीच प्रेम की ऐसी अभिव्यक्ति बिल्कुल सामान्य था। हालांकि मेरे लिए यह बिल्कुल नया। मुझे काफी आकर्षित करता था।

इस बीच मंझारी में मेरी दोस्ती एक लड़के से हुई। वह हमारे पड़ोस में रहता था। उसका नाम था रामजनम। हम दोनों की उम्र, लम्बाई वगैरह लगभग एक थी। हमारे और उसके क्वार्टर के बीच बस एक दीवार का अंतर था। वह अपने बड़े भाई एवं भाभी के साथ रहता था। उसके भैया प्रखंड में ओवरसीयर के रूप में कार्यरत थे। रामजनम और मैं दोनों एक साथ भरभरिया के मिडिल स्कूल में पढ़ने जाया करते थे।

एक दिन मैंने देखा कि रामजनम ने अपने भैया की साईकिल को निकाला और उसे चलाने की कोशिश करने लगा। अगले दिन उसने साईकिल चलाना सीख लिया। असल में साईकिल के सीट पर बैठकर चला पाना उसके लिए मुश्किल था क्योंकि सीट उसके कंधे उसके कंधे से भी ऊंचा था। पर मेरे देखते देखते उसने कैंची स्टाइल में साईकिल चलाना सीख लिया था। सीट को अपने एक कांख से दबाकर, दोनों हाथो से हैंडल को पकड़कर, फिर पैरों से पेडल घुमाने लगता। साईकिल चलाते वक्त उसका शरीर हवा में रहता। मेरे लिए यह बिल्कुल एक नई तरकीब थी। अगले दिन मैंने भी पिता की साईकिल निकालकर उसे उसी तरह से चलाने की कोशिश करने लगा। मुझे उतनी जल्दी सफलता नहीं मिली। लेकिन कई असफल प्रयासों के बाद मैंने कुछ संतुलन बनाना सीखा। 

मेरी मां की सख़्त हिदायत थी कि साईकिल घर के आसपास ही सीखना है। उसे लेकर दूर नहीं जाना है। मैं प्रायः ऐसा ही करता था। पर एक दिन मुझे लगा कि मैं अब बेहतर चलाने लगा हूं। और साईकिल चलाते हुए मैं भरभरिया की ओर निकल पड़ा। मंझारी और भरभरिया के बीच एक नदी थी जिसका नाम था तोरलो। हमारा क्वार्टर प्रखंड के एकदम अंत में पड़ता था। उसके बाद सड़क नदी की ओर मुड़ जाती थी। उस मोड़ से ढलान शुरू हो जाती थी जो नदी के मुहाने तक जाती थी। जैसे ही मैं ढलान पर पहुंचा, बिना पेडल चलाए ही साईकिल तेज हो गई और उस पर मेरा संतुलन भी।

Photo credit: Meta AI

ढलान के दोनों ओर टीले थे और उन टीलों पर घनी झाड़ियां। तोरलो एक पतली, पहाड़ी नदी थी जिसमें प्रायः पानी बहुत कम होता था। उसे पार करना आसान था। लेकिन बरसात के दिनों में ऊपर के पहाड़ों पर पानी के बरसने से उसमें अचानक उफ़ान आ जाता था। नदी में पानी इतना ज़्यादा होता और उसका बहाव इतना तेज कि कोई उसके सामने नहीं टिकता था। ऐसी स्थिति में लोग नदी के दोनों ओर पानी के घटने का इंतजार करते थे। लेकिन बरसात का पानी एक दो घंटे में कम हो जाता था। फिर लोग उसमें आना जाना शुरू कर देते थे। पर पानी कब अचानक बढ़ेगा, उसकी गहराई कितनी होगी या बहाव कितना तेज? ये कुछ अनुभवी लोग, खासकर आदिवासी समुदाय के लोग ही बेहतर जानते थे। नदी में लोगों के डूबने के किस्से भी मैंने सुने थे। उसमें एक किस्सा था प्रखंड के एक मिश्रा जी का। वे भरभरिया से रात में हंडिया पीकर मंझारी लौटकर आ रहे थे। नशे की हालत में उन्हें समझ में नहीं आया, बहाव काफी तेज था। अगले दिन कुछ खोजबीन हुई पर उनका कुछ पता नहीं चला। कुछ लोग मानते थे कि मिश्रा जी की आत्मा नदी के आसपास ही घूमती रहती है।

वैसे जिस तोरलो नदी के बारे में मैं यहां बातें कर रहा हूं और जिसके बारे में मेरे मन में उस समय इतनी सारी आशंकाएं थीं, वह खुद हीअब एक आत्मा बन चुकी है। गूगल सर्च में ढूंढने पर मुश्किल से 1950 या 1960 की किसी किताब में उसका जिक्र मिलता है। वह भी एक या दो वाक्य। हां, आसपास किसी तोरलो डैम का जिक्र जरूर है। लगता है मेरे बचपन की वह रहस्यमयी तोरलो नदी अब भूतकाल का हिस्सा बन गई है। शायद डैम के नजदीक ही उसकी आत्मा मंडरा रही होगी।

खैर, उस दिन साईकिल चलाने की धुन में कब मैं तोरलो नदी को पार कर गया, मुझे पता ही नहीं चला। हालांकि उसके बाद मेरे लिए बड़ी चुनौती थी, भरभरिया की ओर आगे बढ़ने की। सड़क पर चढ़ाई शुरू हो गई थी। मुझे दिक्कत होने लगी। साईकिल का संतुलन बनाए रखने के लिए मुझे पूरी ताकत लगाकर पेडल मारना पड़ रहा था। दोपहर का समय था और मैं बिल्कुल अकेला। आसपास कोई न था। अभी कुछ दूर आगे बढ़ा ही था कि पीछे से एक भोंपू के बजने की जोर की आवाज़ आई। घबरा कर मैंने संतुलन खो दिया और साईकिल के साथ मैं गिर पड़ा। पीछे मुड़कर देखा कि आदिवासी बस मेरे बिल्कुल करीब आ गई थी। मैंने जल्दी से अपनी साईकिल उठाई और किनारे खड़े होकर उसके जाने का इंतजार करने लगा।

बस के जाने के बाद मैं फिर से कैंची स्टाइल में साईकिल चलाते हुए भरभरिया की ओर बढ़ने लगा। मंझारी से भरभरिया की दूरी लगभग एक किलोमीटर है। वहां पहुंचने के ठीक पहले एक मोड़ पर मुझे अपना एक दोस्त दिखाई पड़ गया। नाम था दुम्बी बिरुआ। वह आदिवासी समुदाय का था और उसकी भाषा ‘हो’ थी। उसका घर भरभरिया में ही था। हम दोनों एक साथ भरभरिया के प्राइमरी स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ते थे।

मैंने उसे जोर से आवाज़ दी, “दुम्बी, ओकोन्ते सेन ताना?” (कहां जा रहे हो)।

इस वाक्य के अलावा ‘हो’ भाषा में मुझे बस एक और वाक्य बोलना आता था और वह था, “मांडी जोमियम” (भात खाओगे)। इनके अलावा कुछ एक दो और शब्द। ये सब मैंने दुम्बी से ही सीखा था। कक्षा में अन्य आदिवासी सहपाठियों की अपेक्षा उसकी हिन्दी बेहतर थी। वह सुनकर समझ लेता था और बोल भी लेता था। पढ़ने में वह कक्षा के सभी विद्यार्थियों में अव्वल था।

दुम्बी ने पीछे मुड़कर देखा। फिर मेरे पास वह दौड़ता हुआ आया। वहां से मुझे अब घर लौटना था। मेरे कहने पर वह भी मेरे साथ मंझारी चलने के लिए राजी हो गया। वहां मैंने उसे मां, पिता के अलावा नाना एवं नानी से मिलवाया। कुछ दिन पहले ही नाना एवं नानी हमसे मिलने शेरपुर से आए थे। नाना वहां से हमारे लिए माढ़ा लेकर आए थे जिसे मैं बहुत चाव से खाता था, खासकर दही के साथ। यह नाना के अपने खेत की उपज थी। मां ने दुम्बी को जब माढ़ा खाने के लिए परोसा, तो वह चकित होकर उसे देखने लगा। फिर उसने कहा कि वह उसे अपने घर ले जाना चाहता है। अपने घरवालों को दिखाने के लिए वह उसे भरभरिया लेकर चला गया।

एक साल बाद, 1968 में, हम मंझारी से लौटकर फिर मोकामा चले आए। कुछ वर्षों के लिए वहां साईकिल से मेरा नाता लगभग टूट सा गया। वहां मेरे लिए साईकिल न तो उपलब्ध थी न ही मुझे उसकी जरूरत पड़ी। उसके बाद के वर्षों में साईकिल का मेरे जीवन में आना- जाना लगा रहा। कभी पटना, भटिंडा तो आजकल फिर पटना। पर साईकिल से जुड़ी शेरपुर और मंझारी की वो स्मृतियां मेरे लिए अविस्मरणीय हैं।

The Grammar of my Body: a view

Photo credit: Arun Jee (book cover)

I finished reading ‘The Grammar of my Body’ by Abhishek Anicca last week. And the hangover persists. The hangover of living with him in his world. It’s not the world of a book. But that of a life. The author’s life.

The author calls the book ‘The Grammar of my Body’. But I should call it The Grammar of my Being. Of course he explores his body, its challenges and vulnerabilities. But the ultimate aim is to discover newer ways to serve the self.

     Photo credit: Arun Jee (inside back cover)

Abhishek is a living example of how one can create an excellent path for oneself despite the restrictions put by the physical body and the society. In the book he reveals the desires, dreams and dilemmas of his life in a simple and lucid style.

I am enamored by the craft of Abhishek’s writing. It’s not just what he says. But also by the way he expresses himself in several short and engaging sentences. It reminds me of a book of the same name. ‘Several short sentences about writing’ by Verlyn Klinenvorg. Abhishek’s writing is gripping. It has a flair and flow that always keep you afloat.

I strongly recommend that one of the stories from this book should become a part of the curriculum for the students in Indian schools.

पेरिस का ब्यूट शौमों पार्क

ब्यूटी शौमों पार्क जिसकी सुन्दरता के पीछे छुपी है उसकी कुरूपता और उसका भयावह इतिहास

फोटो क्रेडिट: अरुण जी

19 अक्टूबर को हम पेरिस पहुंचे। शाम को करीब आठ बजे। पेरिस हवाई अड्डे पर हमारे लिए सब कुछ नया था। नयी जगह, नये लोग और नयी भाषा। हिंदी हमसे पहले ही दूर हो चुकी थी। अंग्रेजी का विकल्प अभी भी हमारे लिए मौजूद था। यात्रियों की सुविधा के लिए लिखे गए निर्देश फ़्रेंच के अलावा अंग्रेजी में भी मौजूद थे। इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं हुई।

सबसे पहले मैंने एयरपोर्ट पर उपलब्ध वाय-फ़ाय से फोन को कनेक्ट किया और तन्मय से सम्पर्क किया। उसकी आवाज़ सुनकर थोड़ी जान में जान आई। फिर इमिग्रेशन वगैरह के चक्रव्यूह को पार करते हुए हम निकास द्वार की तरफ बढ़ने लगे। द्वार के बाहर इंतजार कर रहे लोगों में देखा कि तन्मय हमारा विडियो बना रहा था। चरणस्पर्श वगैरह की प्रक्रिया पूरी कर एक काली टैक्सी पर सवार होकर हम घर की ओर चल पड़े।

रास्ते में तन्मय हमें पेरिस के बारे में कुछ-कुछ बातें बता रहा था। जैसे चार्ल्स डी गौल एयरपोर्ट जहां हम उतरे थे वो पेरिस महानगर के उत्तर-पूर्व में स्थित है, मुख्य शहर से बाहर, उपनगरीय इलाके में है। तन्मय का घर भी उत्तरपूर्व में ही है। पर वो शहर का हिस्सा है। रात का समय था। हमारी टैक्सी अंधेरे को चीरती हुई आगे बढ़ रही थी। रास्ते में पेरिस के उपनगरीय क्षेत्र की टिमटिमाती बत्तियां दिख रही थीं। एक जगह तन्मय ने हमें उंगली के इशारे से कहा, यहां से देखिए, पेरिस शहर दिख रहा है। शायद वो कोई ऊंची जगह थी। नीचे शहर रौशनी में नहा रहा था। दूर दूर तक दिख रही थीं रंग-बिरंगी, झिलमिलाती बत्तियां। वहीं मिली हमें पेरिस की पहली झलक। 

पेरिस के जिस इलाके में हमारा निवास था उसका नाम है बेल्विल। शहर के उत्तर-पूर्वी भाग में बसा बेल्विल उन्नीसवीं सदी में मजदूरों का इलाका था। 1860 के आसपास पेरिस के पुनर्निर्माण में कार्यरत ज्यादातर मजदूर बेल्विल से आते थे। 1871 में नेपोलियन III की हार के बाद पेरिस कम्यून ने सत्तर दिनों के लिए जब सत्ता हासिल की तो उसमें भी यहां के मजदूरों की भूमिका अहम थी। उन्होंने सत्ता के खिलाफ हुई क्रांति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।

पोस्टकार्ड पर छपे पेरिस के प्रतीकों से अलग आज बेल्विल की पहचान उसके कलाकारों एवं उसकी बहुआयामी संस्कृति से है। कलाप्रेमियों को यहां के स्ट्रीट आर्ट आकर्षित करते हैं। थियेटर के वर्कशॉप और उससे जुड़ी गतिविधियां भी देखने को मिलती हैं। अफ्रीकी, एशियाई, साउथ अमरीकी मूल के अप्रवासी नागरिकों का ये गढ़ है। बीसवीं सदी की शुरुआत से ही समय-समय पर फ्रांस के पुराने उपनिवेशों एवं अन्य देशों से लोग यहां आए और बस गए। यहां आपको दुनियां की अलग-अलग भाषाओं, उनकी कलाओं, संस्कृतियों के अलग-अलग रंग और रूप दिखेंगे। खाने के लिए चीनी, वियतनामी, थाई, ट्यूनिशियन, मोरक्कन, अलजीरियन इत्यादि अलग-अलग तरह के रेस्तरां और उनके अपने-अपने व्यंजन मिलेंगे। हाल में एक लोकप्रिय वेबसाइट ने बेल्विल को दुनियां के 15 सबसे अच्छे इलाकों में शामिल किया है।

अगली सुबह सैर के लिए हम इसी इलाके में स्थित एक पार्क गए। रास्ते में मैंने गौर किया कि सड़क के किनारे या कहीं भी आस-पास कोई पेड़ या पौधा नहीं था। पूछने पर तन्मय ने बताया कि पेरिस में पेड़ पौधे मूल रूप से पार्क में होते हैं। उसके बाहर उनका स्तित्व अपेक्षाकृत कम है। येल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन मेरिमन बताते हैं कि पेरिस में केवल पांच प्रतिशत ही ग्रीन स्पेस है, जबकि लंदन और बर्लिन में करीब पच्चीस प्रतिशत। सुनकर मुझे थोड़ा धक्का लगा। ये तो पेड़ों को निर्वासित ज़िन्दगी जीने के लिए बाध्य करना हुआ। उन्हें पार्क में बनवास देना। फिर अपने देश के बारे में सोचकर लगा कि हम भी तो विकास की उसी धारा में चल पड़े हैं। अपने शहरों के सुंदरीकरण में जुट गए हैं। सड़कों के चौड़ीकरण, फ्लायरओवर, मेट्रो के निर्माण में। एक अंधी दौड़ में शामिल होकर पेड़-पौधे और प्रकृति के विनाश की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।

फोटो क्रेडिट: तन्मय

पार्क पहुंचने पर पेड़ों के बारे में मेरी चिन्ता थोड़ी कम हो गई। 61 एकड़ में फैले पहाड़ी पर स्थित पेरिस के इस प्रसिद्ध पार्क का नाम है ब्यूट शौमों पार्क। इसकी स्थापना 19वीं शताब्दी में हुई, नेपोलियन III के शासनकाल में। यह पेरिस का पांचवां सबसे बड़ा पार्क है। अलग-अलग किस्म के यहां हजारों पेड़-पौधे हैं। कुछ तो ऐसे भी जो 19 वीं सदी से अब तक बरकरार हैं।

सैर के लिए मौसम अनुकूल था। आसमान साफ था। सुबह की गुनगुनी धूप अंदर से गुदगुदा रही थी। पार्क की सुन्दरता हमें लुभा रही थी। सर्पनुमा रास्तों पर घूमते हुए वहां लगे पेड़, घास के मैदान हमें आकर्षित कर रहे थे। वहां आए लोगों में अधेड़ उम्र के स्त्री और पुरषों की संख्या ज्यादा थी। कुछ तेज चल रहे थे तो कुछ दौड़ भी लगा रहे थे। बीच-बीच में वहां से हमें पेरिस शहर की झलकियां मिल रही थीं। पार्क के ढलानों पर, उसके हरे-भरे मैदानों पर लोग अपने प्यारे कुत्तों के साथ खेल रहे थे। वहां चलते हुए मन में सवाल उभर रहे थे कि इतने बड़े पार्क की सुन्दरता, उसके रखरखाव का क्या इंतज़ाम होगा? कितने लोग यहां काम करते होंगे? तभी दिखी एक बड़ी सी आधुनिक मशीन और मिल गया मुझे अपने सवालों का जवाब। रखरखाव के लिए वहां मानव से ज्यादा मशीन की उपयोगिता थी।

ब्यूट शौमों पार्क जितना सुंदर है उतना ही भयावह है उसका इतिहास। 13वीं से 18वीं शताब्दी के मध्य तक वहां की सबसे ऊंची जगह पर अपराधियों को फांसी देने के बाद उनके मृत शरीर को फंदे में लटका कर छोड़ देने की व्यवस्था थी। उद्देश्य था कि आम जनता के अन्दर अपराध के प्रति दहशत पैदा हो। वहां एक साथ कई अपराधियों को फांसी देने और उनके शव को लटकाने का इंतजाम था। पेरिस या फ्रास के अन्य जगहों से भी दण्डित अपराधियों के शव को भी लटकाने के लिए वहां लाया जाता था। फांसी देने के लिए बने फंदों के इस ढांचे को अंग्रेजी/फ्रेंच में जिबिट (gibbet) कहते हैं। और उस कुख्यात ढांचे का नाम था Gibbet of Montfaucon जिसे हम मौन्टफौंकों के फंदे भी कह सकते हैं।

श्रोत: विकीमिडिया कॉमन्स

पहले मृत्यु दण्ड, फिर उसकी प्रदर्शनी। ये कैसी प्रथा थी? मन में कई सवाल खड़े हो जाते हैं। कि वे जघन्य अपराधी कौन थे जिन्हें मृत्यु दण्ड दिया जाता था? क्या उनमें से कुछ ऐसे भी थे जो पूर्ण रूप से निर्दोष थे? क्योंकि उस समय राजा की नीतियों के ख़िलाफ़ बोलना भी एक जघन्य अपराध था। न्यायिक प्रक्रिया मूल रूप से राजा की सत्ता के इर्द-गिर्द घूमती थी। सोचकर सिहरन होने लगती है। कितनी अमानवीय रही होगी वह प्रथा! खैर, फांसीसी क्रांति के आसपास इस प्रथा का अंत हो गया।

उसके बाद ये जगह कचरों का बड़ा ढेर बन गया। वहां घोड़ों के मृत शरीर को भी फेंका जाने लगा। इसकी बदबू इतनी ज्यादा थी कि हवा तेज होने पर वो पूरे पेरिस शहर में फ़ैल जाती थी। इसीलिए 1860 में जब बेल्विल को पेरिस शहर में शामिल करने का फैसला किया गया तो इस जगह पर एक पार्क बनाने का निर्णय लिया गया। और 1867 में ये कुख्यात एवं कुरूप पहाड़ी एक सुंदर पार्क में बदल गया। पार्क ब्यूट शौमों।

करीब डेढ़ सौ साल पुराने इस पार्क के असुन्दर भूत और सुंदर वर्तमान का चक्कर लगाते हुए जब हम थक गए तो एक कैफ़े में घुसे। काउंटर पर बैठे एक युवक ने ‘बौन्ज़ोर’ (bonjour) कहकर गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया। फ़्रेंच भाषा के नाम पर यही एक शब्द था जिससे मैं परिचित था। उस समय तक फ्रेंच मेरे लिए लैटिन या ग्रीक से ज्यादा कुछ भी नहीं था। जब हम वहां से चलने लगे तो कैफ़े वाले ने मुस्कुराते हुए कहा ‘मेर्सी’ (merci) जिसका अर्थ है धन्यवाद। मेर्सी हमारा दूसरा शब्द था जिसे बोलने का अभ्यास हम आने वाले दिनों में बार-बार करने वाले थे।

फोटो क्रेडिट: तन्मय

पार्क से लौटते हुए रोड के दोनों ओर बने इमारत हमें एक जैसे दिख रहे थे। क्रीम रंग की इन सात मंजिली भवनों की सातवीं मंजिल काले रंग की थी। दूर से देखकर ऐसा लग रहा था कि हरेक इमारत ने अपनी क्रीम कलर की पोशाक के ऊपर काले रंग की टोपी पहन रखी हो। पेरिस की इन खूबसूरत और खास इमारतों के डिज़ाइन और निर्माण का अपना एक इतिहास और अपनी एक कहानी है जिसके बारे में मैं किसी और पोस्ट में बताऊंगा।

फोटो क्रेडिट: अरुण जी

रास्ते में हमें एक बड़ी सी बिल्डिंग से छोटे बच्चों का एक समूह निकलता हुआ दिखाई पड़ा। वह एक स्कूल था। शायद वे कक्षा 3 या 4 के बच्चे थे। सभी एक लाइन से फुटपाथ पर चलने लगे। साथ में उनकी दो शिक्षिकाएं भी थीं। हम उनके सामने वाले फुटपाथ पर चल रहे थे। बिल्डिंग के ऊपर बोर्ड पर स्कूल का नाम फ्रेंच में लिखा था। पूरा नाम तो याद नहीं है। पर स्कूल के लिए फ्रेंच शब्द हमें मिल गया था। लीसे (lycee)। फ़्रेंच के इन्हीं शब्दों के अर्थ और उनके उच्चारण के बारे में बातें करते हुए हम घर पहुंचे।

पेरिस यात्रा: दूसरा दिन

श्रोत: पौम्पिडू सेंटर

पेरिस में हमारा अगला पड़ाव था पौम्पिडू सेंटर। इस सेंटर के बारे में पहले से मुझे कोई जानकारी नहीं थी। मैंने जानने की कोशिश भी नहीं की थी। 19 अक्टूबर 2023 की शाम हम नई दिल्ली से 12 घंटे की उड़ान के बाद थके मांदे पेरिस पहुंचे थे। अगली सुबह हम एक पार्क गये और शाम में थोड़ी खरीदारी की। इसलिए 21 अक्टूबर को जब हम चार लोग, बन्दना, तन्मय, मेधा और मैं, दोपहर के भोजन के बाद चलने को तैयार हुए तो हमें बस इतना मालूम था कि हम एक म्यूज़ियम देखने जा रहे हैं। इसके अलावा और कुछ नहीं। बल्कि हमारे लिए ये नाम भी नया था। पौम्पिडू। 

बाहर थोड़ी बूंदा-बांदी हो रही थी। तापमान दस के नीचे था। ठंढ़ और पानी दोनों से हमें बचना था। हमने अपना-अपना वाटरप्रूफ जैकेट चढ़ाया और एक छाता लेकर निकल पड़े। हमारा निवास पेरिस के उत्तर पूर्व में बेल्विल नामक डिस्ट्रिक्ट में था। वहां से मेट्रो लेकर हम म्यूज़ियम के नज़दीक वाले स्टेशन पर उतरे। उसका नाम है रौम्बितू।

करीब पांच मिनट चलने के बाद तन्मय ने दाहिनी ओर एक बिल्डिंग की ओर इशारा करके बताया कि यही है पौम्पिडू सेन्टर। बिल्डिंग को अचानक देखकर हम धक से रह गये। मन में सवाल उभरा कि ऐसी भी कोई बिल्डिंग हो सकती है क्या? वो भी एक म्यूज़ियम की। जब मालूम हुआ कि ये पौम्पिडू का पिछला हिस्सा है तो लगा कि आगे इसका रूप जरूर कुछ अलग होगा।

पर नहीं। वहां भी वही। एक नंगी इमारत। जिसमें नालियों के लिए बने सारे स्टील पाइप मुंह बाए खड़े थे। सामान्यतया किसी भी इमारत में ऐसे पाइप की संरचना को अंदर छुपा कर रखा जाता है। लेकिन उस इमारत में उन्हें और भी रंगीन, डिजाइदार बना कर पेश किया गया था। बल्कि वही उसकी खूबी थी। अंदर की पूरी बनावट बाहर।

विडियो क्रेडिट: अरुण जी

बिल्डिंग के सामने वाले हिस्से में एक ट्यूब दिख रहा था जिसमें एस्केलेटर के द्वारा पर्यटक नीचे-ऊपर आ-जा रहे थे। हमने कुछ फोटो वगैरह लिए। फिर एक छोटे विडियो में मैंने इमारत और उसके आस-पास की चीजों को समेटने की कोशिश की। बारिश की बूंदें अभी भी टपक रही थीं। अंदर जाने वाले लोगों की एक लम्बी कतार थी। उसी में हम शामिल हो गए।

फ्रांस के राष्ट्रपति जार्ज पौम्पिडू के नाम पर बने इस सेंटर के भवन के निर्माण का आइडिया और इसके अक्खड़ डिज़ाइन की कहानी विवादास्पद पर दिलचस्प है।

1969 में जार्ज पौम्पिडू जब राष्ट्रपति बने तब द्वितीय विश्व युद्ध की यादें धुंधली पड़ चुकी थी। फ्रांस की जिस पीढ़ी ने युद्ध के दौरान (1940-44) हिटलर की सेनाओं की मनमानियों को झेला था वो अब पुरानी पड़ती जा रही थी। देश में एक नई पीढ़ी का उदय हो रहा था। एक ऐसी पीढ़ी जिसके लिए केवल राष्ट्र की आज़ादी नहीं, बल्कि राष्ट्र के अंदर व्यक्ति की आज़ादी भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी। वैसे तो साठ के दशक में आज़ादी की ये हवा पूरी दुनियां में बह रही थी। अमरीका, यूरोप में लिंग-भेद व नस्लभेद के विरोध में आन्दोलन चल रहे थे। तो एशिया एवं अफ्रीका के देशों में लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए। फ्रांस में इस संघर्ष का रूप था छात्र आंदोलन।

मई 1968 का छात्र आंदोलन फ्रांस के लिए एक ऐतिहासिक घटना थी। उसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। मई के अंतिम सप्ताह में जब ये आंदोलन अपने चरम पर था तब फ्रांस में गृह युद्ध जैसी स्थिति बन गई थी। लग रहा था कि अब सत्ता परिवर्तन अवश्यंभावी है और द्वितीय विश्व युद्ध के नायक राष्ट्रपति चार्ल्स डिगॉल को कुर्सी से हटना पड़ेगा। चार्ल्स डिगॉल तुरंत अपने पद से तो नहीं हटे, पर वे हार चुके थे। नैशनल असेंबली को भंग कर उन्होंने जून 1969 में चुनाव की घोषणा कर दी। चुनाव के बाद उनकी पार्टी बहुमत के साथ फिर सत्ता में आ गई लेकिन चार्ल्स डिगॉल पुनः राष्ट्रपति नहीं बन पाये। उनकी जगह जार्ज पौम्पिडू राष्ट्रपति बने। वही पौम्पिडू जिन्होंने 1968 में आन्दोलनकारियों का सामना किया था। छात्रों की मांगों को सुनने और समझने की कोशिश की थी।

छात्र आन्दोलन के कारण फ्रांस में बहुत सारे बदलाव हुए। विवाह, परिवार, शिक्षा, पेशा, राष्ट्र, धर्म जैसी संस्थाएं अब सवालों के घेरे में थीं। युवा पीढ़ी अब हरेक चीज के बारे में जानना चाहती थी, उन पर सवाल उठाती थी। राष्ट्रपति पौम्पिडू युवाओं की इन भावनाओं से वाक़िफ थे। वे समझ रहे थे कि फ्रांसीसी समाज के अंदर एक मंथन चल रहा है और मई 1968 का आंदोलन इसी मंथन का एक प्रतिबिम्ब था। इन्हीं परिस्थितियों को भांपकर राष्ट्रपति पौम्पिडू ने पेरिस में इस सेंटर के निर्माण का फैसला लिया।

पौम्पिडू को कला और संस्कृति से भी उतना ही लगाव था। उनकी इच्छा थी कि पेरिस में एक ऐसे बहुउद्देशीय इमारत का निर्माण हो जो उस वक्त के बदलते समाज की भावनाओं का प्रतिनिधित्व कर सके। एक ऐसी इमारत जहां पेंटिंग या शिल्पकला के साथ साहित्य, सिनेमा, संगीत इत्यादि जैसी अन्य कलाओं के प्रदर्शन की भी सुविधा हो। जो लूव्र म्यूज़ियम की तरह प्राचीन, शास्त्रीय कला-कृतियों के लिए नहीं, बल्कि आधुनिक एवं समकालीन कलाओं के संग्रह, प्रदर्शन का स्थल बने। साथ ही कला एवं संस्कृति से जुड़ी गतिविधियों का केंद्र बने।

इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात यह थी कि जार्ज पौम्पिडू पेरिस को पूरी दुनियां में कला की राजधानी के रूप में एक बार फिर से स्थापित करना चाहते थे। असल में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कला के क्षेत्र में न्यूयॉर्क आगे निकल रहा था। पेरिस की खोई हुई गरिमा को वह पुनः उसके सुपुर्द करना चाहते थे।

इमारत के सामने कतार में खड़े होकर इसके बनने की कहानी हम तन्मय से सुन रहे थे। बूंदाबांदी अभी भी हो रही थी। सेंटर के बारे में हमारी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। बिल्डिंग के अलग-अलग हिस्सों पर हमारी नज़र जाती तो उसकी विशेषताओं को हम समझने की कोशिश करते। उसके ऊपरी हिस्से पर लगे पोस्टर में एक सुंदर स्त्री का चित्र हमें बार-बार लुभा रहा था। असल में ये स्त्री बीसवीं सदी के महान पेंटर पैबलो पिकासो की प्रेमिका रह चुकी थी। उसी पर बनाए गए चित्र को पिकासो की एक सुंदर रचना के रूप में उस पोस्टर में पेश किया गया था। 

प्रवेशद्वार तक हम अब पहुंचने वाले थे। तन्मय ने आगे बताया कि पौम्पिडू ने पूरी दुनियां में एक खुली प्रतियोगिता की घोषणा की थी। इसमें विभिन्न देशों के 681 आर्किटेक्ट्स ने भाग लिया था। फ्रांस के इतिहास में ये पहली बार किसी इमारत के डिज़ाइन के लिए देश के बाहर के कलाकारों को आमंत्रित किया गया था। अंततः इस वास्तुकला को चुना गया। इसे इटली के रेन्ज़ो पियानो और ब्रिटेन के राबर्ट रॉजर्स ने मिलकर तैयार किया था। पौम्पिडू की जब इसपर नज़र पड़ी तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ‘इस पर तो कुछ विवाद जरूर होगा’।

जुलाई 1971 में इस वास्तुकला के चुने जाने की सार्वजनिक घोषणा हुई। उस दिन मीडियाकर्मियों के सामने एक ओर सूट, पैंट व टाई जैसे औपचारिक लिवास में राष्ट्रपति पौम्पिडू खड़े थे एवं दूसरी ओर बिखरे बाल एवं बिल्कुल अनौपचारिक वस्त्र में दो युवा आर्किटेक्ट्स, पियानो एवं रॉजर्स। वह एक अजीब मिलन था। औपचारिकता का अनौपचारिक से, परम्परा का आधुनिकता से और पुरातन का नूतन से।

जैसा कि पौम्पिडू ने कहा था इस डिज़ाइन की घोषणा के बाद कला की दुनियां में हलचल मच गया। कला के पारम्परिक मानकों में विश्वास रखने वालों ने इसकी घोर आलोचना की। किसी ने इसे ‘लेडी ऑफ द पाइप कहा’ तो किसी ने इसको ‘राक्षस’ तक की उपाधि दे दी।

31 जनवरी 1977 को जब राष्ट्रपति जिरार्ड ने पौम्पिडू सेंटर का लोकार्पण किया तब एक नये भविष्य की शुरुआत हुई। आलोचकों को करारा जवाब मिला। पहले ही वर्ष में यह इतना लोकप्रिय हो गया कि क्षमता से पांच गुना ज्यादा लोग इसके दर्शन के लिए आए। हालांकि जार्ज पौम्पिडू अपने सपने के साकार रूप और उसकी सफलता को देखने से वंचित रह गए थे। 1974 में उनकी मृत्यु हो चुकी थी। पर सेंटर के प्रति उनके महत्वपूर्ण योगदान को ध्यान में रखकर इसका नाम ‘नैशनल जार्ज पौम्पिडू सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर’ रखा गया। पौम्पिडू सेंटर उसी का छोटा नाम है।

इस बीच सेंटर के प्रवेशद्वार से हम दाखिल हो चुके थे। अब कहानी को सुनने से ज्यादा खुली आंखों से इसके अंदर की सुन्दरता को देखने में हमारी रुचि बढ़ गई थी। वैसे भी तन्मय की कहानी खत्म हो चुकी थी।

ट्यूब के अंदर लगे एस्केलेटर पर सवार होकर हम सबसे ऊपर, छठी मंजिल, पर गये। वहां जब हमने चारों ओर नज़र दौड़ाई तो हम ठिठक से गये। पेरिस की सुन्दरता हमें लुभा रही थी। 149 फीट ऊंचे पौम्पिडू सेंटर से शहर की संरचना स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। दक्खिनी छोर पर आइफ़िल टावर बहुत ज्यादा दूर नहीं था। उत्तरी कोने में मोनमार्ट की पहाड़ी पर स्थित सेक्रेकर (चर्च) पेरिस के ताज के रूप में चमक रहा था। लगभग 60 फीट की ऊंचाई वाले दूर-दूर तक फैले हाउसमान भवनों की बात ही कुछ और थी।

Continue reading “पेरिस यात्रा: दूसरा दिन”

बड़का बाबू और उनकी पीढ़ी

फोटो क्रेडिट: अरुण जी

अपने बेटे की शादी के सिलसिले में प्रमोद कुमार अपने गांव पहुंचे। निकट संबंधियों को आमंत्रित करना था। उनका गांव पटना से करीब 100 किलोमीटर पूरब गंगा नदी के किनारे बसा है। नाम है मोकामा। शादी पूना में हो रही थी। लड़की केरल की रहनेवाली थी। प्रमोद जी कार्ड लेकर सबसे पहले गये बड़का बाबू के यहां।

प्रमोद के पिता के पांचो भाईयों में सबसे बड़े थे बड़का बाबू। सत्तर के दशक में संयुक्त परिवार के मुखिया। सब लोग उस वक्त एक ही घर में रहते थे। एक ही चूल्हे पर 30 से भी ज्यादा लोगों का खाना बनता था। प्रमोद के बाबा (दादा) और मामा (दादी) तब जीवित थे। बड़का बाबू ही परिवार को चलाते थे। रोजमर्रा के आमद-खर्च की जिम्मेवारी और उसका हिसाब वही रखते थे। समय-समय पर होने वाले पर्व-त्यौहार व शादी-विवाह का जिम्मा भी उन्हीं के पास होता था। खेती की आमदनी के अलावा भाइयों को अपनी नौकरी की आमदनी का एक हिस्सा हरेक महीने बड़का बाबू को सौंपना पड़ता था। यही कारण था कि घर के कुछ लोग उन्हें ‘मालिक’ कहकर पुकारते थे।

प्रमोद जी ने ये सब अपनी आंखों से देखा था। वे उसी संयुक्त परिवार में पैदा हुए थे। बचपन से लेकर बीस वर्ष की उम्र तक वे संयुक्त परिवार की उसी हवेली में पले और बढ़े थे। उन्होंने बड़का बाबू उर्फ महेंद्र नारायण सिंह का रुतबा देखा था।

अस्सी के दशक तक सब-कुछ बदल गया। संयुक्त परिवार बिखर गया। भाइयों का घर, चूल्हा अलग हो गया। बड़का बाबू का रुतबा भी धीरे धीरे कम होने लगा।

2016 में जब प्रमोद जी उनके घर पहुंचे तब-तक बड़का बाबू देह से लाचार हो गये थे। चलना फिरना कम हो गया है। छत के ऊपर वाले कमरे में कभी कोई भाई, भतीजा मिलने चला आता है। पर वे खुद बाहर नहीं निकलते हैं। प्रमोद जी के मन में आज भी बड़का बाबू के लिए वही इज्जत है। सुबह-सुबह जब वे पटना से मोकामा पहुंचे तो उनका पहला पड़ाव था बड़का बाबू का घर।

पहुंचते ही उन्होंने चरणस्पर्श किया और पास वाली कुर्सी पर बैठ गये। हाल-चाल पूछने पर प्रमोद जी ने भेंट स्वरूप शादी का एक कार्ड थमा दिया। बाबू जी ने कार्ड को उलट पलट कर देखा। लड़की और उसके परिवार के बारे में जानकारी ली। फिर मुस्कुरा कर उन्होंने प्रमोद से पूछा,

“आंय हो, एगो बात बताहीं। तुम्हारी पत्नी अपने होनेवाली बहू से किस भाषा में बात करेंगी?”

प्रमोद जी के जवाब देने से पहले ही वे ठठाकर हंसने लगे। एक लम्बी पोपली हंसी। 85 वर्ष के बड़का बाबू के दांत सब झर गए थे। हंसते हुए उनके चेहरे पर एक अजीब सी चमक थी। एक गहरे कटाक्ष की चमक।

प्रमोद जी बेचारे भी क्या कहते! उनके पास कोई जवाब नहीं था। असल में बड़का बाबू ने उत्तर जानने के लिए प्रश्न नहीं पूछा था। इस प्रश्न के द्वारा उन्होंने उस शादी पर कटाक्ष किया था। प्रमोद जी बड़का बाबू के चेहरे की चमक और पोपली हंसी को देखकर ही खुश थे। उन्होंने झट से अपना मोबाइल निकाला और एक फोटो खींच लिया।

इस घटना के दो साल बाद, 2018 में, जब बड़का बाबू का देहावसान हुआ तो उनका यही फोटो उनपर फूल चढ़ाने के काम आया।

फोटो क्रेडिट: AI

इस कहानी के पात्र काल्पनिक हैं। पर सच्ची घटना पर आधारित ये कहानी हमारे समाज में तेजी हो रहे बदलाव का एक दिलचस्प नमूना है। बड़का बाबू और प्रमोद, समाज की दो अलग-अलग पीढ़ियों के प्रतिनिधि हैं। बड़का बाबू जैसे लोगों ने परिवार के ढांचे में परिवर्तन होते देखा है। कि कैसे संयुक्त परिवार धीरे धीरे एकल परिवार में बदलते चले गये। और परिवार में उनकी अपनी भूमिका कम होती चली गई। नब्बे के दशक तक बच्चों की शादियों पर उन लोगों का अच्छा खासा नियंत्रण था। शादियां वही तय करते थे, अपनी जाति, अपने समुदाय में। और वही अरेंज करते थे। लव मैरिज जैसे शब्द तब अपवाद थे।

उस समय प्रमोद जी की हिम्मत नहीं होती इस शादी के कार्ड को बड़का बाबू के सामने पेश करने की। बड़का बाबू इसका कड़ा विरोध करते। शादी अगर हो भी जाती तो उसके बहिष्कार का वे नेतृत्व करते। बिहार में अपनी जाति के अलावा किसी भी अन्य जाति के बीच शादियों की आप कल्पना नहीं कर सकते थे। और यहां तो लड़का और लड़की दो अलग-अलग राज्यों के थे। भाषा और संस्कृति में भी काफी अंतर था।

पर ये इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक था। बड़का बाबू की पीढ़ी अब समाप्त हो रही थी। इसीलिए वे केवल कटाक्ष करके रह गए।